संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

मणिपुर की हिंसा के मायने

उत्तर-पूर्व के सीमावर्ती राज्य मणिपुर में करीब दो महीनों से जारी तीखी हिंसा ने यह सहज सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या इसकी वजह साम्प्रदायिक विभाजन है? गहराई से पड़ताल करें तो इसकी स्पष्ट ध्वनियां सुनाई भी देती हैं। प्रस्तुत है, इसी विषय पर प्रकाश डालता राम पुनियानी का यह लेख;

उच्च न्यायालय द्वारा मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) के रूप में मान्यता दिए जाने के बाद से मणिपुर में भड़की हिंसा में अब तक सवा सौ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और एक लाख से ज्यादा अपने घर-बार छोड़कर भागने पर मजबूर हो गए हैं। इस हिंसा के कारण आम लोग बहुत तकलीफें भोग रहे हैं और महिलाओं, बच्चों और विस्थापितों की हालत दयनीय है। इस स्थिति से निपटने में सरकार की विफलता के कारण देश बहुत शर्मसार हुआ है।

यह हिंसा 3 मई से शुरू हुई थी और आज करीब दो महीने बाद भी जारी है। कुकी और अन्य, मुख्यतः ईसाई आदिवासी समूहों और उनकी संपत्ति को निशाना बनाया जा रहा है। हिंसक भीड़ चर्चों को चुन-चुनकर नष्ट कर रही है। अब तक करीब 300 चर्च नफरत की आग में खाक हो चुके हैं। इस बात का जवाब सरकार को देना ही होगा कि क्या यह हिंसा ईसाई-विरोधी है।

हिंसा शुरू होने के बाद से प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे पर अपना मुंह खोलने की जहमत नहीं उठाई है। वे अब तक चुप हैं। क्या उनकी चुप्पी रणनीतिक है? आख़िरकार इस हिंसा का शिकार हो रही कुकी और अन्य पहाड़ी जनजातियां ईसाई धर्म की अनुयायी हैं, जिसे संघ परिवार ‘विदेशी’ मानता है। मोदी अनेक बार उत्तरपूर्व की यात्रा कर चुके हैं, परंतु जिस समय हिंसा की आग को शांत करने के लिए उनकी जरूरत है तब वे वहां से मीलों दूर हैं। गृहमंत्री अमित शाह ने मणिपुर पहुंचे, उन्होंने वहां खूब बैठकें भी कीं, परंतु नतीजा सिफर ही रहा।

मणिपुर में भाजपा का शासन है और दिल्ली में भी सरकार भाजपा की ही है। अर्थात मणिपुर में ‘डबल इंजन’ सरकार है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह विकास की गंगा बहा देती है। यहाँ यह याद दिलाना भी प्रासंगिक होगा कि भाजपा का एक लंबे समय से दावा रहा है कि उसके राज में साम्प्रदायिक हिंसा नहीं होती।

उत्तरप्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक डॉ. विभूति नारायण राय ने अपनी प्रतिष्ठित कृति ‘काम्बेटिंग कम्युनल कनफ्क्टि्स’ में लिखा है कि अगर राजनैतिक नेतृत्व की इच्छा हो तो किसी किस्म की भी हिंसा को 48 घंटे के भीतर नियंत्रण में लाया जा सकता है। मणिपुर में तो दो माह से हिंसा जारी है। ऐसा प्रचार किया जा रहा है कि मणिपुर में कुकी और अन्य पहाड़ी कबीलाई समूहों का कृषि भूमि के अधिकांश हिस्से पर कब्जा है और मैतेई लोगों को जमीन में उचित हिस्सेदारी नहीं मिल रही है। वर्तमान कानूनों के अनुसार आदिवासियों की जमीन गैर-आदिवासी न तो खरीद सकते हैं और ना ही उस पर कब्जा कर सकते हैं।

मणिपुर की कुल आबादी में मैतेई का प्रतिशत 53 और कुकी का 18 है। शेष आबादी में अन्य पहाड़ी जनजातियां शामिल हैं। पहाड़ी जनजातियों को अफीम उत्पादक, घुसपैठिया और विदेशी धर्म का अनुयायी बताया जा रहा है। मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने हिंसा के पीछे राजद्रोहियों का हाथ होने की बात कही है। ‘द टेलिग्राफ’ अखबार ने ‘इंटेलिजेंस ब्यूरो’ के पूर्व संयुक्त निदेशक सुशांत सिंह के हवाले से लिखा है कि मुख्यमंत्री का यह आरोप अनावश्यक और निराधार है और इससे ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री सभी कुकी लोगों को आतंकी बताकर बदनाम करना चाहते हैं।

दरअसल, नफरत इसी तरह की सोच से उपजती है। नफरत पैदा करके ही अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ हिंसा भड़काई जाती है। मणिपुर हाईकोर्ट बार-एसोसिएशन ने भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाय चन्द्रचूड़ को बताया है कि “मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने के खिलाफ आन्दोलन तो हिंसा का केवल बहाना था।”

पत्रकारों, लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, महिला अधिकार कार्यकर्ताओं समेत करीब 550 नागरिकों ने एक बयान जारी कर हिंसा पर अपनी चिंता व्यक्त की है और प्रदेश में शांति की अपील करते हुए कहा है कि हिंसा पीड़ितों को न्याय मिलना चाहिए और उनका पुनर्वास होना चाहिए। बयान में कहा गया है, “मणिपुर जल रहा और इसके लिए काफी हद तक केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकारों की विघटनकारी राजनीति ज़िम्मेदार है। और लोग मारे जाएँ उसके पहले इस गृहयुद्ध को समाप्त करवाने की ज़िम्मेदारी भी उनकी ही है।”
बयान में बिना किसी लाग-लपेट के कहा गया है कि “सरकार राजनैतिक लाभ के लिए दोनों समुदायों को आश्वासन दे रही है कि वह उनके साथ है, जबकि असल में दोनों समुदायों के बीच लम्बे समय से चले आ रहे तनाव को और गहरा कर रही है और उसने वर्तमान संकट से निपटने के लिए संवाद के आयोजन की अब तक कोई पहल नहीं की है।”

वक्तव्य में कहा गया है कि “इस समय, कुकी समुदाय के खिलाफ सबसे वीभत्स हिंसा मैतेई समुदाय के हथियारबंद बहुसंख्यकवादी समूह, जैसे–‘अरम्बई तेंग्गोल’ और ‘मैतेई लीपुन’ कर रहे हैं। इसके साथ ही कत्लेआम का आव्हान किया जा रहा है, नफरत फैलाने वाले भाषण दिए जा रहे हैं और अपने को श्रेष्ठ साबित करने के प्रयास हो रहे है। इन ख़बरों की सच्चाई का भी पता लगाया जाना चाहिए कि उन्मत्त भीड़ महिलाओं पर हमला करते समय ‘रेप हर, टार्चर हर’ के नारे लगा रही है।”

‘आरएसएस’ के मुखपत्र ‘आर्गेनाइजर’ ने 16 मई के अपने अंक के सम्पादकीय में कहा है कि मणिपुर में खून-खराबा चर्च के समर्थन से हो रहा है। इस आरोप को चर्च ने आधारहीन बताया है। मणिपुर के कैथोलिक चर्च के मुखिया आर्चबिशप डोमिनिक लुमोन ने कहा है कि “चर्च न तो हिंसा करवाता है और ना ही उसका समर्थन करता है।” यह बेसिरपैर का दावा सांप्रदायिक राजनीति की पुरानी रणनीति का हिस्सा है। जाहिर है, वे इस तथ्य से लोगों का ध्यान हटाना चाहते हैं कि मणिपुर में 300 से अधिक चर्चों में या तो आग लगाई जा चुकी है, या उन्हें नुकसान पहुँचाया जा चुका है।

पत्रकार अन्तो अक्करा का कहना है कि अगर चर्च को इस टकराव के खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया जा सके तो ‘अरम्बई तेंग्गोल’ और ‘मैतेई लीपुन’ जैसे समूहों द्वारा की जा रही योजनाबद्ध हिंसा पर पर्दा डालना आसान हो जाएगा। उनके मुताबिक “मणिपुर में वही हो रहा है जो उडीसा के कंधमाल में 2008 में हुआ था। जिन गाँवों में चर्चों को नष्ट कर दिया गया है उनके पादरियों से शपथपत्र भरवाए जा रहे हैं कि अब वे वहां नहीं लौंटेगे।” उत्तरपूर्व में पहले भी हिंसा होती रही है, परन्तु इसका वर्तमान स्वरुप निश्चित रूप से सांप्रदायिक है। अलबत्ता, इस समय तो हम सभी को यही प्रार्थना करनी चाहिए कि क्षेत्र में शांति स्थापित हो।
साभार : सप्रेस (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया )

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