संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

ब्रिक्स देशों का आठवां सम्मेलन : चुनौतियां और विकल्प

ब्रिक्स के राष्ट्राध्यक्षों का दो दिवसीय सम्मेलन कल 15-16 अक्टूबर 2016 को गोआ में शुरु होने जा रहा है। गोआ के मछुआरों पर सम्मेलन का असर यह है कि उन्हें सुरक्षा की दृष्टि से मछली मारने से आज रोक दिया गया है। यह भी जानकारी दी गई है कि भारत रूस के साथ मिसाइलों को लेकर समझौता करने जा रहा है। इसके बावजूद पूरी दुनिया सम्मेलन के फैसलों का इंतजार कर रही है। दुनिया की पचास प्रतिशत आबादी वाले पांच देशों के सम्मेलन में जो भी तय होगा वह पूरी दुनिया पर असर डालेगा इसमें कोई शक नहीं है लेकिन असर क्या होगा यह सबसे महत्वपूर्ण है। आम तौर पर दुनिया में जब भी सरकारों के प्रतिनिधि मिलते हैं वह आंतरिक आवश्यकताओं तथा विदेश नीति के अनुसार अपने मुद्दों को आगे बढ़ाने का कार्य करते हैं। ब्रिक्स को जी-20 के बाद सबसे महत्वपूर्ण मंच कहा जा सकता है। वैसे तो संयुक्त राष्ट्र संघ के भीतर चल रहे सामूहिक प्रयासों को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है लेकिन सहस्रताब्दी विकास लक्ष्यों (एमडीजी) की जिस तरह से उपेक्षा हुई है तथा जिस तरह संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद दुनिया के महत्वपूर्ण हिंसक विवादों में विश्व समुदाय की ओर से सही हस्तक्षेप करने में असफल हुई है उससे पूरी दुनिया यह मानने लगी है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधारों की आवश्यकता ही नहीं है पुर्नसंरचना जरूरी हो गई है। ब्रिक्स इस उद्देश्य के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध दिखलाई नहीं देता। इस कारण संयुक्त राष्ट्र संघ में न तो ब्रिक्स देशों की एक आवाज सुनने को मिलती है और न ही वह दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण निकाय को प्रभावशाली बनाने की दिशा में कोई ठोस कदम उठाता दिखाई दे रहा है।

ब्रिक्स द्वारा अब तक दो बैंक न्यू डेवलपमेंट बैंक तथा एआईआईबी गठित किए गए हैं जिनका मकसद दक्षिण के देशों को विकास के लिए आवश्यक राशि उपलब्ध करवाना है। भारत सहित पांचों देशों में कुछ परियोजनाओं को स्वीकृति भी मिली है। सवाल यह है कि विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों की तुलना में ब्रिक्स द्वारा गठित बैंकों की शर्तें कितनी अलग हैं। परियोजना के परिवर्णीय असर, सामाजिक दुष्प्रभावितों की आजीविका तथा प्रभावितों की सहमति को लेकर एनडीबी और एआईआईबी से जनमुखी नीति अपनाने की उम्मीद थी लेकिन ऐसा परियोजना क्षेत्र में दिखाई नहीं देता जिससे स्पष्ट है कि बैंक बदलने से प्रभावितों को न्याय मिलने की उम्मीद नहीं की जा सकती।

ब्रिक्स देशों में राज्य् (स्टेट) की भूमिका दमनकारी है। हमारा जनसंगठनों का 68 वर्ष का अनुभव यही बताता है कि सरकार कोई भी आए राज्य का रवैया आंदोलनकारियों के प्रति लगभग एक जैसा रहता है। सरकारों की परियोजनाओं की कमियों को उजागर करना सरकार विरोधी कार्य तो माना ही जाता है अब उसे राष्ट्र विरोधी भी माना जाने लगा है। ब्राजील में विद्रोह हुआ। चुने हुए राष्ट्रपति को खदेड़ दिया गया। चीन में विरोध की कोई गुंजाइश ही नहीं है। दक्षिण अफ्रीका में श्वेतों की जगह अश्वेतों की सरकार जरूर बनी है लेकिन नई सरकारों का रवैया भी जनविरोधी ही है। रूस लगातार जनता की आवाजों को दबाने के लिए जाना जाने लगा है। ऐसी स्थिति में राज्य की दमनकारी स्वरूप को बदलने के बारे में ब्रिक्स में विचार होना अति महत्वपूर्ण है लेकिन इस दिशा में अब तक हुए 7 सम्मेलनों में कोई कदम नहीं उठाया गया है और न ही गोआ सम्मेलन के एजेंडा में यह मुद्दा कहीं दिखाई पड़ता है। राज्य की पुर्नरचना की बात तो बहुत दूर है राज्य, अपने ही लोगों के साथ संवाद करने के पक्ष में नहीं है।

सामूहिक तौर पर ब्रिक्स ने नागरिक समाज के साथ संवाद बनाने, उनकी चिंताओं और सरोकारों को बात-चीत में सम्मिलत करने का कोई प्रयास नहीं किया है। हालांकि दिल्ली में ब्रिक्स ने औपचारिकता निभाने के लिए 3-4 अक्टूबर 2016 को एक बैठक आयोजित की थी, लेकिन उसमें देश के जनांदोलनकारी संगठनों को संवाद के लिए आमंत्रित नहीं किया गया। यहां यह विश्लेषण करना जरूरी है कि क्या जो राष्ट्राध्यक्ष और सरकारों के प्रतिनिधि ब्रिक्स सम्मेलन में मिल रहे हैं वे वास्तव में पूरे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं? तकनीकि तौर पर जरूर करते हैं लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि भारत की सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार को केवल 31 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन प्राप्त है। ब्राजील में तो ब्राजील की सरकार के प्रतिनिधि वास्तविक तौर पर जनप्रतिनिधि कहे नहीं जा सकते। चीन में अभी भी एकदलीय व्यवस्था चल रही है जिस कारण विभिन्न विचार के व्यक्तियों, संगठनों के किसी प्रतिनिधित्व का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता। रूस के चुनाव में चुनाव को लेकर लगातार आवाजें उठती रहीं हैं। ब्रिक्स ने यदि पांचों देशों के विपक्ष और नागरिक समाज की आवाजों को फोरम में जगह देने का इंतजाम किया होता तो यह समझा जा सकता था कि वह वास्तव में दुनिया की पचास प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करते हुए उनके सरोकारों को लेकर सामूहिक निर्णय कर रहे हैं।

ब्रिक्स में होने वाले समझौतों का फैसला कौन कर रहा है यह महत्वपूर्ण है क्योंकि पांचों देशों की संसदों तथा विधान सभाओं में इन समझौतों लेकर कोई चर्चा नहीं की गई है। अंतरराष्ट्रीय समझौतों को लेकर यह सवाल लगातार उठता रहा है। गैट से लेकर विश्व व्यापार संगठन के गठन तक यह सवाल उठता रहा है कि भारत की तरह बाकी चारों देशों की सरकारों ने भी कभी अंतरराष्ट्रीय समझौते करने के लिए अपनी ही संसद को विश्वास में नहीं लिया। कुछ अफसर मिलकर सत्तारूढ़ दल के निर्देशों का पालन करते हुए पूरे देश की ओर से फैसला कर लेते हैं जिसका देश की बहुसंख्यक आबादी पर विपरीत असर पड़ता है। उल्लेखनीय है कि गैट का गठन सभी को काम देने के उद्देश्य के साथ हुआ था। विश्व व्यापार संगठन के गठन होते-होते यह उद्देश्य नजर से ओझल हो गया। ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में सभी को रोजगार देना प्राथमिकता में नहीं है। खेती के कॉर्पोरेटीकरण तथा कुछ तकनीक आधारित औद्योगिकरण के चलते बड़े पैमाने पर पहले से रोजगार में लगे लोग बेरोजगार हो रहे हैं। नए रोजगार के सृजन करना ब्रिक्स का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए था। इसके लिए यदि व्यापारिक समझौते किए जाते तो वह लोगों के पक्ष में होते लेकिन व्यापारिक समझौतों का उद्देश्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अधिकत्तम मुनाफा कमाने का रास्ता प्रशस्त करना है। इस कारण इन समझौतों से पांचों देशों के आम नागिरकों को कोई लाभ होता दिखाई नहीं देता।

पांचों देशों में श्रमिक संगठन काफी मजबूत हैं जिनका अपना कई दशकों का साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का तथा श्रमिकों के हितों के लिए संघर्ष करने का अनुभव है। इन श्रमिक संगठनों के साथ भी ब्रिक्स कोई संवाद करता हुआ दिखाई नहीं देता। ब्रिक्स की यह प्रतिबद्धता भी नहीं है कि वह यह कह सके कि वह अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन द्वारा पारित नीतियों का ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान हुए व्यापार समझौतों में पालन करने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मजबूर करेंगे। पारदर्शिता और जवाबदेही की कसौटी के आधार पर यदि हम ब्रिक्स की भीतरी कार्यवाहियों को जांचना चाहे तो हम निराश ही होंगे।

इसी तरह मानवाधिकारों के सम्मान को लेकर अंतरराष्ट्रीय मानकों का पालन करने को लेकर भी ब्रिक्स की सरकारें कोई प्रतिबद्धता दिखलाने को तैयार नहीं है।

विश्व व्यापार संगठन ने दुनिया में पूंजी की खुली आवाजाही को सुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयास और समझौते किए हैं। पूंजी की निर्बाध आवाजाही का मुख्य उद्देश्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अधिकतम मुनाफा कमाने का अवसर देना होता है। ब्रिक्स के संदर्भ में भी यह जानना जरूरी है कि क्या ब्रिक्स का उद्देश्य पांचों देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की पूंजी की निर्बाध आवाजाही के अलावा और कुछ भी है? पांचों देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी गठजोड़ कर रही हैं जिनका लक्ष्य बड़ा गठजोड़ बनाकर गरीब मुल्कों के बाजारों पर कब्जा करना भी है।

ब्रिक्स के पांचों देशों के पड़ोसी देशों के संबंध दुनिया की शांति और सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। भारत का पाकिस्तान के साथ रिश्ता लगातार तनावपूर्ण होते हुए युद्ध की दिशा में अग्रसर हो रहा है। इस टकराव में चीन स्पष्ट तौर पर पाकिस्तान के साथ खड़ा नजर आता है। भारत और चीन के बीच सीमा विवाद अभी तक सुलझा नहीं है। चीन ने अरूणाचल प्रदेश का एक बड़ा हिस्सा तथा स्वतंत्र तिब्बत को हड़पा हुआ है। यह हर भारतीय के मानस में दर्ज है। एक समय था जब हिंदी रूसी भाई-भाई का रिश्ता भारत और रूस के नागरिकों के बीच में विशेष आत्मीय संबंध बनाता था आज वह स्थिति नहीं है क्योंकि भारत सरकार लागातार अमरीकापरस्त होती जा रही है। जिससे भारत और रूस का रिश्ता प्रभावित हो रहा है। चीन उत्तर कोरिया के साथ तथा ताइवान के खिलाफ खड़ा है। लेकिन बाकी चार देशों की यह स्थिति नहीं है। इन मुद्दों पर संवाद की कोई गुंजाइश ब्रिक्स में दिखाई नहीं पड़ती।

ब्रिक्स देशों में तमाम जनसंगठन सरकार द्वारा अपनाई गई विकास नीति को चुनौती देते रहे हैं। पांचों देशों का विकास का मॉडल एक ही रहा है। सभी पूंजी आधारित तकनीक आधारित ऊर्जा आधारित शहरीकरण तथा औद्योगिकरण आधारित विकास को तव्वजो देते रहे हैं। औद्योगिकीकरण से उपजे पर्यवारणयी संकट तथा जलवायु परिवर्तन से लेकर पांचों देशों में बढ़ती बेरोजगारी जैसे मुद्दों को सामूहिक तौर पर हल करने की दिशा में विचार-परामर्श भी ब्रिक्स में होता दिखाई नहीं देता। होना तो यह चाहिए था कि वैकल्पिक विकास की नीतियों को लेकर आपसी संवाद कर औद्योगिकीकरण के दुष्प्रभावों को कम करने का प्रयास होना था लेकिन उस दिशा में कोई पहल होती दिखाई नहीं पड़ती।

पांचों देशों के आम नागरिकों के लिए गरीबी एक बड़ा सवाल है। 130 करोड़ के हमारे देश में तीस प्रतिशत से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करते हैं जिसका मतलब है कि उन्हें दोनों वक्त का पौष्टिक भोजन उपलब्ध नहीं है। भारत में बीस करोड़ लोग रोज भूखे सोते हैं। दूसरी तरफ एक लाख 94 करोड़ टन अऩाज खराब हो जाता है। हंगर इंडेक्स (भुखमरी क्रमांक) में भारत 118 देशों में 97वें क्रमांक पर आता है। दुनिया की कुल टीबी ग्रस्त मरीज में से 26 प्रतिशत भारत में हैं। भारत के चालीस से पचास प्रतिशत बच्चे और महिलाएं कुपोषित हैं तथा बेरोजगारों की संख्या 20 करोड़ से अधिक है। भारत की गिनती दुनिया के भ्रष्टतम देशों में होती है। मंहगाई और बेरोजगारी पांचों देशों के लिए अहम समस्या बनी हुई है। इन समस्याओं को हल करने में ब्रिक्स सम्मेलन की रूचि दिखलाई नहीं पड़ती।

उक्त तथ्यों और मुद्दों के आधार पर हम कह सकते हैं कि 15-16 अक्टूबर 2016 को गोआ में हो रहे ब्रिक्स सम्मेलन से हम बहुत उम्मीद नहीं कर सकते लेकिन दुनिया को बहुध्रुवीय बनाने तथा अमरीकी साम्राज्यवाद को चुनौती देने में यूरोप के असफल होने के बाद ब्रिक्स देशों में दुनिया में नई उम्मीद पैदा की है। इसलिए दक्षिण के देशों के नागरिक समाज को लगातार अपनी सरकारों पर दबाव डालकर उन्हें उक्त मुद्दों पर बात-चीत के लिए तैयार करने का प्रयास जारी रखना चाहिए।

ब्रिक्स देशों के जनसंगठनों तथा संस्थाओं ने 13-14 अक्टूबर जेवियर्स इंस्टिट्यूट में पीपल्स फोरम ऑन ब्रिक्स आयोजित कर इस दिशा में मजबूत प्रयास किया है। हम उम्मीद करते हैं कि फोरम में हुए विचार परामर्श के निचोड़ का ब्रिक्स देशों की सरकारें आने वाले सम्मेलनों का एजेंडा तथा समझौता करते समय ध्यान रखेंगी।

 

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