संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

किडनी रोग के गिरफ्त में उड़ीसा का गंजाम जिला : मोनाजाइट खनन शक के दायरे में; भाग एक

उड़ीसा के गंजाम जिले के तटीय क्षेत्र में भारत सरकार का मोनाजाइट प्लांट इस इलाके में रह रहे ग्रामीणों में फैल रहे किडनी रोग और उसकी वजह से हो रही मौतों की वजह बन रहा है। मोनाजाइट से होने वाला विकिरिण आदमी से लेकर पर्यावरण सबको नुकसान पहुंचा रहा है लेकिन इसकी तरफ प्रशासन ने अपनी आंखें मूंद रखी हैं। हम यहां पर रंजना पाढी तथा राजेन्द्र सिंह नेगी की यह रिपोर्ट (दो भागों में ) प्रकाशित कर रहे हैं जो स्थिति की गंभीरता को परिलक्षित करती है। संघर्ष संवाद के लिए इसे संध्या पाण्डेय ने हिंदी में अनुवाद किया है;

बड़ा पुट्टी (जिला गंजाम-उड़ीसा): पी. जगन्नाथ से अगस्त’17 में जब हम मिलने गए थे तो वे एक प्लास्टिक की कुर्सी पर पैर फैलाकर बैठे हुए थे। वह साफ-सफ़ेद गोल गले की शर्ट और लुंगी पहने हुए थे। उनको देखने से ऐसा लग रहा था कि जैसे उनकी जिंदगी की सभी उम्मीदें ख़त्म हो गई हैं और वे जानते हैं की मौत की काली छाया उनके चारो तरफ मंडरा रही है, जो उन्हें धीरे-धीरे लेकिन शर्तिया तौर पर लील लेने पर उतारू हैं। वह हीन और कमजोर दिखाई दे रहे थे और उनके पैरों के घावों से मवाद बह रहा था। उनके तलवे खून की कमी से पीले पड़ गये थे। उनकी आखों में मौत के मंडराते साये को देखकर डर लगता था। (हमारे वहां से आने के एक महीने बाद पी. जगन्नाथ की मृत्यु को गई।)

पी. जगन्नाथ पिछले दो सालों से जीर्ण किडनी रोग से जूझ रहे थे। उनके इलाज में परिवार द्वारा जीवन भर की बचत खर्च करने के बाद इलाज जारी रखने के लिए उनके पास में एकन्नी भी नहीं बची। वे उनके इलाज़ के लिए दवाएं भी नहीं खरीद पा रहे थे, डायलिसिस तो दूर की बात है।

एक सप्ताह पहले तक वे नियम से बहरमपुर और भुवनेश्वर के अस्पतालों में इलाज़ के लिए जा रहे थे। सेवन हिल्स और अपोलो जैसे निजी अस्पतालों में होने वाले मंहगे इलाज़ की खातिर उनके परिवार ने घर के सभी सोने के गहने एवं कीमती समान बेच दिए थे। उनके पुत्र पी. आदित्यनाथ ने अपने कॉलेज की पढ़ाई बीच में छोड़ कर पिता के इलाज एवं घर के खर्चे के लिए अपना पुश्तैनी ‘नाई’ का पेशा शुरू कर दिया था। उनकी तस्वीर लेते समय उनका पूरा परिवार उनके उनके इर्द-गिर्द खड़ा था, लेकिन उनके चेहरे का पीलापन और विछिन्न भावनाएं परिवार के सभी सदस्यों के चेहरे पर मौजूद थी और वे उनकी बीमारी के खतरे को गहराई से महसूस कर रहे थे।
जगन्नाथ अपने परिवार के साथ बड़ापुट्टी में रहते थे। वे जिस घर में रहते थे वह 2013 में आये फेलिनी साइक्लोन द्वारा तबाह किए तट पर था। उनका घर वर्ल्ड बैंक की सहायता से उड़ीसा आपदा पुनर्वास परियोजना के तहत बनाए गये दो कमरों के मकान के 85 मकानों में से एक था।

अभिशप्त गांव

गोपालपुर-छतरपुर रोड पर एक बेरावास्य नामक चौक है। बड़ा पुट्टी गाँव इसी चौक से करीब 500-600 मीटर पश्चिम में स्थित है। यह गाँव करीब एक किलोमीटर की लम्बाई में बसे 700 परिवारों का गाँव है। गाँव के दोनों तरफ सड़क के किनारे पक्के घर बने हुए हैं। गाँव के एक छोर पर एक प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक विद्यालय है जिसकी स्थापना 1954 में की गई थी।

बड़ा पुट्टी एक समय में टिस्को द्वारा प्रस्तावित मेगा स्टील प्लांट के खिलाफ होने वाले प्रतिरोध का मजबूत गढ़ रहा है। प्लांट को छतरपुर ब्लाक के निवासियों ने मजबूत संघर्ष के दम पर रुकवा दिया था। 19 जुलाई 1996 को इसी गाँव की 55 वर्षीया लक्ष्मी अम्मा ने गाँव और उनकी जमीन को बचाने की कोशिश में अपने जिंदगी गवाई थी। यह गाँव चारों तरफ से काजू के पौधे, केवड़े की झाड़ियों और नारियल के पेड़ों से इस प्रकार घिरा हुआ है कि लगता है कि जैसे उस समय से उसने अपने आप को इनके भीतर छिपा लिया है।

2013 से ही लगभग 3000 आबादी वाले गाँव के करीब 200 लोग किडनी रोग से चिन्हित किये गये हैं। कुछ और ऐसे गांव हैं (बेगनीपेटा एवं लखीमपुर) जहाँ से गुर्दा रोग के मामले सामने आए हैं। इस इलाके में पिछले दो सालों में किडनी खराब हो जाने की वजह से करीब 50 लोगों की मौत हो चुकी है। यह गाँव इस कदर बदनाम हो गया है की दूसरे गाँव के लोग हमारे बेटे-बेटियों से शादी करने को नहीं तैयार होते हैं। चुने हुई जनप्रतिनिधियों ने भी इस जिले की समस्याओं से आँखे मूंद रखी हैं।

अपने गांव के लोगों के परीक्षण परिणामों, बीमारियों और मौतों पर नजर रख रहे सामाजिक कर्मी गुरुदेब बेहरा ने ‘द वायर’ को बताया कि “हमें शक है कि इस बीमारी का असली अपराधी मोनाजाइट प्रोसेसिंग प्लांट है जो की एक सरकारी कंपनी है। यह गाँव के चौहद्दी से 500 मीटर से भी कम दूरी पर स्थित है। हमने मई 2016 में मोनाजाइट के कारण होने वाले स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में जिलाधिकारी को पत्र भेजा था”।

मोनाजाइट खनन पर ही संदेह क्यों?

इस प्लांट का नाम उड़ीसा सैन्ड्स कॉम्प्लेक्स (OSCOM) है जो की इंडियन रेयर अर्थ लिमिटेड का एक यूनिट है। इसका उद्घाटन 2010 में हुआ था। इसके अवशेष (मिनरल प्रोसेसिंग परिक्रिया के दौरान उत्पन्न भरी मात्र के अवशेषों का ढेर) गाँव के किनारे डंप कर दिए जाते हैं। इलाके के लोगो को यह संदेह है की प्लांट के जहरीले तत्व रिस रिस कर भूजल में मिलते रहते है।

बड़ापुट्टी की 90% आबादी खेती, पीने के पानी और रोजमर्रा के जरूरतों के लिए इसी भूजल पर निर्भर करती है। हांलाकि करीब सभी निवासियों ने अपने घरों में आर.ओ वॉटर प्यूरीफायर लगवा रखा है। गाँव के जो लोग मंहगे प्यूरीफायर खरदीने की क्षमता नहीं रखते हैं वे पीने के लिए मिनरल वाटर की बोतलों पर निर्भर हैं। गाँव के चौक में एक दिहाड़ी मजदूर जी. धरमू 20 लीटर का पानी का प्लास्टिक कन्टेनर अपने कंधो पर लेकर उतर रहा था। पसीने से नहाये हुए एवं चिपचिपी गर्मी से बेहाल धरमू से जब हमने पूछा की आपको पानी खरीदने की जरूरत क्यों पड़ गई तो वह बोले कि, “आप को तो पता है की यहाँ का पानी पीने लायक नहीं होता इसलिए पानी खरीदने के अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं है।

10 लीटर पानी के लिए 50 रूपये खर्च करना कोई आसान बात नहीं-यदि यह मानें कि पानी इसी दाम पर उपलब्ध है। कई बार तो दुकानदार 15 रु. लीटर पर भी पानी बेचते हैं। संकटों से मरे गाँव में ये भूमिहीन मजदूर बहुत ही मुश्किल से अपना जीवन जीते हैं, लेकिन परिस्थितयों की चेतावनी फलस्वरूप बोतल बंद पानी खरीदना स्वास्थय खराब करने की अपेक्षा सस्ता है।

इस दयनीय माहौल में जगन्नाथ अकेले नहीं हैं। डी. लोवराज की 60 वर्षीय पत्नी और बहू (बेटे की पत्नी) लोवराज को नियमित तौर पर भुवनेश्वर डायलिसिस के लिए ले जाती रही हैं। वे हफ्ते में 2 बार उन्हें बड़ा पुट्टी से 160 किलोमीटर दूर भुवनेश्वर ले जाती हैं। 2 साल पहले जब पहली बार लोवराज की किडनी समस्या का पता चला था तो उस समय विशाखापट्टनम में उनके शुरुआती इलाज में 60,000 रु. खर्च हुए थे। उनका बेटा विशाखापट्टनम में नौकरी करता था। बीमार होने से पहले लोवराज केवडा की खेती करके अपनी जीविका चलाते थे। उनके बेटे मनोज ने फ़ोन पर बताया की डायलिसिस का खर्चा हर बार 1300 रूपये आता है। इन्जेक्शन और दवाइयों का खर्च 2500 रूपये अलग से है। और इसमें अगर दूसरे अन्य खर्च (जैसे आने जाने का किराया) भी जोड़ दिया जाय तो हर बार यह करीब 5000 रूपये बैठता है।

लोवराज की 60 वर्षीय बहन सरस्वती भी कुछ सालों से अपने पैरों में दर्द की शिकायत कर रही हैं, खासतौर पर टखनों के पास के जोड़ों में और साथ ही वह भी किडनी रोग की गिरफ्त में भी पाई गईं। वह विशाखापट्टनम के केयर अस्पताल में हर महीने में 2 या 3 बार जाती हैं, जहाँ 10,000 से 15,000 रूपये महीने इलाज पर खर्च आता है।

एक दूसरे परिवार ने अपने दो सदस्यों को किडनी खराब हो जाने के एक ही तरह के केस में खो दिया है। 59 वर्षीय के. जंगामिया की 14 मई 2016 को तबियत बिगड़ने पर भुवनेश्वर के अस्पताल में ले जाते समय रास्ते में मौत हो गई थी। उन्हें किडनी की बीमारी का उस समय हुई जब वे फौज से सेवानिवृत्त होकर घर आए ही थे। उसके बाद वे 2 वर्ष जीवित रहे। उनकी पत्नी के. महालक्ष्मी कहती हैं की जब वे फौज में नौकरी करते थे तब हमें उनके जीवन की ज्यादा चिंता थी। जब वे लौटकर आए तो हम बहुत खुश हुए थे। हमने कभी नहीं सोचा था की मृत्यु उनका यहां इंतज़ार कर रही थी।

केवल 6 महीने बाद के. जनमिया के बेटे तुलसी राव मात्र 35 वर्ष की आयु में किडनी रोग के चपेट में आ गए। उनकी मृत्यु 7 मई 2017 को हुई। वह अपनी पत्नी और 2 बच्चों के साथ रहते थे।

क्रमश: जारी

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