वन्य जीव संरक्षण संशोधन अधिनियम, 2021: किसकी सुरक्षा? किसका संरक्षण ? किसका प्रबंधन?
अपने दूसरे कार्यकाल में भारतीय जनता पार्टी नीत संघीय सरकार तमाम केंद्रीय कानूनों में ताबड़तोड़ बदलाव कर रही है। पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कई कानूनों में प्रस्तावित संशोधनों की अगली कड़ी के रूप में अब वन्य जीव संरक्षण कानून, 1972 में संशोधन के लिए 17 दिसंबर 2021 को लोकसभा में एक अधिनियम पेश कर दिया गया है। जिसे संसद की विज्ञान, पर्यावरण और तकनीकी की स्थायी समति के समक्ष भेज दिया गया है। इस समिति ने 12 फरवरी 2022 तक तमाम हितग्राहियों से इस अधिनियम पर टिप्पणियाँ और सिफ़ारिशें मांगीं हैं।
पचास साल पहले वजूद में आए वन्य जीव संरक्षण कानून 1972 में अब तक कई बार संशोधन हुए हैं। यह आठवाँ संशोधन इस कानून में प्रस्तावित है। इससे पहले 1982, 1986, 1991, 1993, 2002, 2006 और 2013 में इसमें संशोधन हो चुके हैं।
9 दिसंबर 2021 को लोकसभा में पेश किए गए इस अधिनियम के जो उद्देश्य बतलाए गए हैं उनमें पहला उद्देश्य ‘वन्य जीवों एवं वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (कंवेशन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड इन इनडेंजर्ड स्पीसिज ऑफ वाइल्ड फोना एंड फ्लोरा-सीआईटीईएस) का एक पक्षकार होने के नाते इसके बेहतर क्रियान्वयन करने का है। दिलचस्प है कि भारत 1976 में इस कन्वेन्शन का पक्षकार बन गया था। तब से अब तक करीब 7 बार इस कानून में संशोधन किए जा चुके हैं। जरूर इस कन्वेन्शन का ध्यान रखा गया होगा।
इस मामले में छत्तीसगढ़ राज्य वन्य जीव संरक्षण बोर्ड की सदस्य मीतू गुप्ता कहती हैं कि- “ ध्यान तो जरुर रखा गया लेकिन यह तो संकटग्रस्त प्रजातियों के अवैध व्यापार और शिकार के लिए है। इसे केंद्र में रखकर अपने देश के वन्य जीवों के संरक्षण के लिए मौजूद कानून में परिवर्तन करने की ज़रूरत नहीं है”। इसे इसी कानून के तहत एक अलग श्रेणी में रखा जा सकता है और 2013 में हुए संशोधन में इसे अलग श्रेणी में रखा भी गया है। दंड के प्रावधान बढ़ाए जा सकते हैं जो इस संशोधन के जरिये भी किया गया है”।
उल्लेखनीय है कि 1972 के मूल कानून में जहां सामान्य अपराध/ उल्लंघन के लिए जहां जुर्माने की रकम 25 हज़ार रुपए थी उसे बढ़ाकर अब एक लाख रुपए तक कर दिया गया है। वहीं विशेष रूप से संरक्षित वन्य जीवों के खिलाफ हुए अपराध या उल्लंघन के लिए पहले जहां जुर्माने की रकम 10,000 रुपए थी उसे भी बढ़ाकर अब 25,000 रुपये कर दिया गया है।
हालांकि मीतू गुप्ता इसे लेकर भी चिंता ज़ाहिर करती हैं कि ‘ऐसी प्रजातियों का अवैध व्यापार अंतरर्ष्ट्रीय स्तर पर व्यापक पैमाने पर हो रहा है। इस तकनीकी के जमाने में इन्टरनेट ऐसे व्यापार को आसान बना रहा है। अगर इसे लेकर सरकार वकाई चिंतित है तो इन नए माध्यमों के इस्तेमाल मसलन इन्टरनेट को ‘साइबर अपराधों’ की श्रेणी में रखते हुए इस अधिनियम में प्रावधान करना चाहिए लेकिन इसे लेकर इस मसौदे में कुछ नहीं कहा गया है’।
संकटग्रस्त और लुप्तप्राय प्रजातियों को लेकर डायरेक्टोरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस (DRI) की 2019-20 की रिपोर्ट में भी इस बढ़ते अवैध कारोबार पर चिंता जताई गयी है। इस रिपोर्ट में भी बतलाया गया है कि भारत में यह तेज़ी से बढ़ रहा है।
दूसरा उद्देश्य इस कानून के तहत संरक्षित वन्य जीवों, पक्षियों और पादपों के लिए निर्धारित अनुसूचियों को सरल बनाने का है। इसलिए इस संशोधन का मुख्य ज़ोर इन अनुसूचियों को बदलने पर है। मूल कानून में और 2013 में हुए संशोधन में अब तक अनुसूची 1 और अनुसूची 2 के भाग 1 में दी गयी प्रजातियों व अनुसूची I, II, III व IV में शामिल प्रजातियों के लिए संरक्षण और उनके हनन के लिए अलग अलग दंड विधान मौजूद थे जिन्हें अब केवल दो अनुसूचियों में तब्दील किया जा रहा है। वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय का मानना है कि अब तक मौजूद अनुसूचियों की वजह से लोगों में गलतफहमियाँ हैं।
अनुसूचियों में प्रस्तावित बदलावों को लेकर नेचर कंसर्वेशन फाउंडेशन ने स्थायी समिति को भेजीं अपनी टिप्पणियों व सिफ़ारिशों में कहा है कि – इसके आधार स्पष्ट और पारदर्शी नहीं हैं। न ही अनुसूचियों में शामिल की जा रही प्रजातियों को लेकर कोई पारदर्शी, संवाद हितग्राहियों के साथ किया गया है। विशेष रूप से अनुसूची IV जो सीआईटीईएस को आधार बनाकर जोड़ी गयी है उसमें भी कोई स्पष्टता नहीं है।
प्रस्तावित संशोधन, सबसे पहले इस कानून की प्रस्तावना में ही बदलाव की हिमायत करता है। अब तक इस कानून की प्रस्तावना में वन्य जीव, पक्षियों और पादपों के संरक्षण ही मूल भावना थी जिसे अब केवल ‘वन्य जीव’ में सीमित कर दिया गया है और संरक्षण के साथ-साथ सुरक्षा व प्रबंधन जैसे शब्द भी जोड़ दिये गए हैं।
हम जानते हैं कि हिंदुस्तान में प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन और उनके संरक्षण को लेकर अलग- अलग नहीं बल्कि एक ही कानून हैं क्योंकि दोनों के उद्देश्य एक हैं। फिर इन शब्दों को अलग से लिखे जाने की जरूरत क्यों पड़ी? 18 दिसंबर 2021 को द टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर में कहा गया है कि महाराष्ट्र के कुछ इलाकों से हाथियों को रिलायंस (अंबानी) द्वारा संचालित राधे कृष्णा टेंपल एलिफेंट वेल्फेयर ट्रस्ट के सुपुर्द किए गए हैं। इसी खबर में बताया गया है कि रिलायंस ने जामनगर, गुजरात में स्थापित अपनी रिफायनरी के नजदीक 280 एकड़ क्षेत्र में एक चिड़ियाघर बनाया है, जहां वन्य जीवों की कई प्रजातियों का प्रबंधन किया जा रहा है। इसलिए जीवित हाथियों के ट्रांसपोर्टेशन को यह अधिनियम वैध बनाने की पहल कर रहा है। समझिए, इस खबर से क्या इशारा मिल रहा है?
इस प्रावधान की तरफ मीतू गुप्ता ध्यान खींचती हैं और बताती हैं कि “हाथियों के विषय में इस प्रस्तावित कानून के प्रावधान वन्य जीवों के संरक्षण की दिशा में हुई प्रगति को मिटा देने जैसे हैं। जिंदा हाथियों के ट्रांसपोर्ट को जिस तरह से वैधानिक बनाया जा रहा है वह अपने देश के हेरिटेज एनिमल के व्यापार को कानूनी संरक्षण देना है। अभी तक यह केवल चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन की अनुमति से केवल हाथी को यहां से वहाँ ले जाने या उन्हें अपने साथ रखना संभव था और वो भी सीमित परिस्थितियों में। लेकिन इस मसौदे में जीवित हाथियों के स्वामित्व का प्रमाण दिये जाने या राज्य सरकार से अनुमति प्राप्त कर लेने के बाद इसे वैधानिक माना जाएगा।
दिलचस्प है कि हाथी जैसा जीव जो जंगलों को समृद्ध बनाता है और परिस्थितिकी को सभी जीवों और पादपों, वनस्पतियों के बीच संतुलन बनाकर रखता है, उसे जंगलों से ही हटाने के लिए उसके कारोबार को वैधानिक बनाने की पहल इस संशोधन के मार्फत की जा रही है।
मीतू गुप्ता इसमें जोड़ती हैं कि “हाथी रिज़र्व या हाथी कोरिडोर्स को ठीक वही कानूनी पवित्रता या श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है जैसे टाइगर रिज़र्व को है। हाथी के पर्यावासों के लिए कभी कुछ किया ही नहीं गया है। हाथी -मानव द्वंद्व भी उनही इलाकों में बढ़ रहे हैं जहां उनके नैसर्गिक रास्तों में खदानें खोद दी गयी हैं या उनके नैसर्गिक पर्यावास के साथ गंभीर छेड़छाड़ हुई है।
इस अधिनियम की मंशा हाथियों से ऐसे जंगलों को मुक्त करना भी है जहां अकूत खनिज या कोयला दबा है। यहाँ हसदेव अरण्य पर हाल ही में आयी वन्य जीव संस्थान (WII) और भारतीय वानिकी अनुसंधान परिषद (ICFRE) की रिपोर्ट्स ने इस इलाके में कोयला खदाने न खोलने की सख्त हिदायतें दी थीं। जिसकी सबसे बड़ी वजह इस इलाके में हाथियों का नैसर्गिक पर्यावास होना बताया गया था।
इस बदलाव से जहां एक तरफ कोयले और अन्य खनिज के अकूत भंडारों के लिए अडानी के लिए रास्ता साफ होते दिख रहा है क्योंकि इन जंगलों से हाथियों या अन्य संकटग्रस्त प्रजातियों को अंबानी द्वारा बनाए जा रहे चिड़ियाघरों में ट्रांसपोर्ट कर दिया जाएगा वहीं इनके प्रबंधन के लिए अंबानी को बेहिसाब अनुदान मिलेगा और इसके साथ बड़े भू-भाग पर कब्जा तो मिलेगा ही।
प्रस्तावना में संशोधन के ‘प्रस्ताव’ में किए गए बदलावों का असर पूरे अधिनियम में स्पष्ट तौर से दिखलाई देता है। इस अधिनियम का मसौदा केवल और केवल वन्य जीवों पर ही केन्द्रित है। शुरुआत से ही इस कानून के दो मुख्य मकसद रहे हैं। पहला, संरक्षित क्षेत्रों का चयन और गठन और दूसरा, अनुसूचित प्रजातियों को सूचीबद्ध करना।
हिंदुस्तान में कई तरह के पर्यावास पाये जाते हैं जिनमें घास के मैदान, अर्द्ध-रेगिस्तानी, वेटलैण्ड्स और ऊंचाई वाले हिमालयन क्षेत्र जो प्राय: संरक्षित क्षेत्रों के दायरे में शामिल नहीं होते। केवल 5 प्रतिशत ही ऐसे इलाके इसमें शामिल हैं। ये इलाके भी संकटग्रस्त वन्य जीव प्रजातियों मसलन ग्रेट इंडियन बस्टर्ड्स या लेसर फ्लोरिकन के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण हैं। ऐसी संकटग्रस्त प्रजातियों को केवल अनुसूचित करके तो बचाया नहीं जा सकता। संरक्षित क्षेत्रों के बीच में वन्य जीवों के लिए कोरिडोर्स या गलियारे भी महत्वपूर्ण पर्यावास की भूमिका निभाते हैं और ऐसे गलियारे प्राय: निजी ज़मीनों, खेतों और मानव बस्तियों के बीच से भी जाते हैं। ऐसे में, इस तरह के पर्यावसों को बचाने और उनके प्रबंधन के लिए स्थानीय समुदायों का साथ बहुत ज़रूरी है जिसके लिए उन्हें प्रबंधन योजना में भागीदार बनाने के साथ उन्हें कुछ लाभ भी देना होगा। इस कानून में ऐसे किसी भी प्रयास की गंभीर कमी दिखलाई पड़ती है।
मीतू गुप्ता कहती हैं कि – ‘इस अधिनियम को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे मंत्रालय को अब तक चली आ रही व्यवस्था के बारे में कुछ पता ही न हो। जहां वन विभाग अपने जंगल को संरक्षित और पुनरुत्पादित करने के लिए वर्किंग प्लान बनाता है वहीं वन्य जीव संरक्षण कानून के तहत वन्य जीवों के पर्यावास के लिए मैनेजमेंट (प्रबंधन) प्लान बनाए जाते हैं। अगर उनके पर्यावास के प्रबंधन पर ज़ोर न दिया गया तो वन्य जीवों का संरक्षण कैसे होगा?
हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार ने नीलगाय और जंगली सुअरों की बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या और फसलों को नुकसान पहुंचाने की तेज़ गति के मद्देनजर इनके शिकार के लिए मध्य प्रदेश वन्य जीव संख्या नियंत्रण के लिए नियमों का मसौदा जारी किया है। ऐसे में सवाल है कि जब राज्य सरकारें ऐसे वन्य जीवों के लिए नियम बना रही हैं तो उन्हें इस संशोधन अधिनियम के तहत भी क्यों नहीं लाया गया है?
एडवोकेट अनिल गर्ग इस मामले में एक दिलचस्प ऐतिहासिक विवरण देते हैं। वो कहते हैं कि “मध्य प्रदेश में 2006 तक और छत्तीसगढ़ में अभी भी वन विभाग द्वारा बनाए जा रहे वर्किंग प्लान में यह लिखा जा रहा है कि वन्य जीवों के कारण जंगलों को नुकसान पहुंचता है। 1972 से पहले तक शिकार के लिए लाइसेन्स जारी करने हेतु निविदाएँ आमंत्रित होती रही हैं। 1972 में वन्य जीव संरक्षण कानून के आने के बाद इसी वन विभाग को जो वन्य जीवों को जंगलों के विनाश का कारण बता रहा था, उसे ही इनके प्रबंधन और संरक्षण की ज़िम्मेदारी दे दी गयी”।
अनिल गर्ग वन महकमे की वन्य जीवों के प्रति अनभिज्ञता का एक और उदाहरण देते हैं जो मध्य प्रदेश विधान सभा में 23 फरवरी 2012 को एक सवाल के जवाब में दिया गया। इस लिखित जवाब से ज़ाहिर होता है कि “मध्य प्रदेश वन महकमे को चीता (Acinonyx) और तेंदुए (Panthera pardus) में फर्क मालूम नहीं है। 1971 तक वन विभाग चीते के शिकार के लिए मध्य प्रदेश आखेट अधिनियम, 1935 के तहत निविदाएँ आमंत्रित करता रहा। जबकि देश में अंतिम चीता 1947 में ही मारा गया था और 1952 में इसे लुप्त घोषित कर दिया गया था। जब इस मामले में विधानसभा में सवाल पूछा गया तो तत्कालीन वन मंत्री ने बताया कि सामान्य बोलचाल कि भाषा में चीता को तेंदुआ कहा जाता है इसलिए इसी नाम का उल्लेख किया जाता रहा है”।
वन विभाग के सरोकार वाकई वन्य जीवों को बचाने के लिए कितने हैं इसका एक और उदाहरण अनिल गर्ग उन तमाम अधिसूचनाओं के जरिये देते हैं जो इनके शिकार के लिए निविदाएँ आमंत्रित करने को लेकर हैं। वो बताते हैं कि “मध्य प्रदेश में एक तरफ वन्य प्राणियों के शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध की अधिसूचना 11 जनवरी 1971 को राजपत्र में प्रकाशित की जाती है लेकिन रीवा जिले में शिकार के लिए लाइनसेन्स जारी करने की निविदाएँ 19 मई 1972 तक भी जारी रही हैं”।
वन्य जीव संरक्षण और सामुदायिक अधिकारों के बीच हमेशा गहरा तनाव रहा है। वनाधिकार मान्यता कानून, 2006 को चुनौती देने वालों में वन्य जीव संरक्षणवादी समूहों ने अहम भूमिका निभाई थी। वो आज भी वनाधिकार के तहत मान्य किए जा रहे अधिकारों को वन्य जीवों और जंगल के लिए बड़ा खतरा मानते हैं। इस संशोधन में वनाधिकार मान्यता कानून, 2006 की अहमियत को स्वीकार करते हुए अभ्यारण्य क्षेत्रों में केंद्रीय दिशा-निर्देशों के अनुसार प्रबंधन योजना बनाते समय वन अधिकार मान्यता कानून का सम्मान करते हुए संबंधित ग्राम सभा से परामर्श लिया जाना अनिवार्य बनाया गया है। हालांकि यह प्रावधान 2013 में हुए संशोधन में भी शामिल था लेकिन इसका असर दिखलाई नहीं दिया। इस प्रावधान का स्वागत किया जाना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि वन अधिकार मान्यता कानून की धारा 4 राष्ट्रीय पार्क व अभ्यारण्य की सीमा में निवासरत अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत समुदायों के अधिकारों को मान्यता देते हुए धारा 4 (2) (ग) इस तथ्य को स्थापित करता है कि मानव समुदायों व पर्यावरण के बीच ‘सह-अस्तित्व जैसे युक्तियुक्त विकल्प उपलब्ध नहीं हैं’। इसके साथ ही इन क्षेत्रों में निवासरत समुदायों के पुनर्वास व पुनर्स्थापना के लिए प्रावधान किए गए हैं। धारा 4 (3) में दिये गए प्रावधान में यह भी स्पष्ट किया गया है कि ‘ये अधिकार केवल इस शर्त पर दिये जाएँगे कि ऐसी जनजातियाँ या जनजाति समुदायों या अन्य परंपरागत वन निवासियों ने 13 दिसंबर 2005 से पूर्व वन भूमि अधियोग (कब्जे) में ली हो’। यह इस कानून का एक महत्वपूर्ण प्रावधान है जो उस गलतफहमी को भी दूर करता है जिसके तहत यह प्रचारित किया जाता है कि गैर जनजाति लेकिन परंपरागत समुदायों को तीन पीढ़ी या 75 सालों से वन भूमि पर काबिज होने का प्रमाण देना होगा।
अनिल गर्ग कहते हैं कि “इस स्वागतयोग्य कदम के साथ वन, पर्यावरण मंत्रालय को यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि 2008 से लागू हो चुके इस कानून के तहत अब तक इस धारा का कितना क्रियान्वयन हुआ है? और आगे इसके क्रियान्वयन में कितना और कैसे सहयोग दिया जाएगा? 14 सालों के अनुभव बताते हैं कि ऐसे क्षेत्रों में वनाधिकार कानून, 2006 का क्रियान्वयन न के बराबर हुआ है”।
इस स्वागत योग्य और सरहनीय पहल के साथ साथ इस संशोधित अधिनियम में भूमि अधिग्रहण के लिए औपनिवेशिक कानून 1984 को भूमि-अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार कानून, 2013 को बदला गया है।
अगर एक साथ वन अधिकार मान्यता कानून, 2006 और भूमि-अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार कानून, 2013 को अभ्यारण्य और राष्ट्रीय पार्क क्षेत्रों में लागू किया जाता है तब सही मायने में यह परंपरागत रूप से जंगलों में निवासरत आदिवासी व अन्य परंपरागत समुदायों के हित में होगा।
एडवोकेट अनिल गर्ग बताते हैं कि “अब तक इन क्षेत्रों से बसे समुदायों को केवल पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन का पात्र ही माना गया था और इसके लिए भी उन्हें एक मुश्त नकद पैकेज के रूप में दिया जा रहा था। उन्हें उचित प्रतिकर (मुआवज़े) से वंचित रखा गया था। लेकिन इस कानून को वन्य जीव संरक्षण कानून में स्थान दिये जाने से इन समुदायों को भी अब इस दायरे में लाया जा सकेगा। नकद पैकेज की व्यवस्था खत्म की जाना चाहिए और 2013 में पारित हुए कानून के मुताबिक उचित प्रतिकर का आंकलन करने की स्पष्ट व्यवस्था व दिशा-निर्देश बनाए जाएँ”।
कानून के तहत गठित राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड की तर्ज़ पर राज्य वन्य जीव बोर्ड की संरचनाओं में आमूलचूल बदलाव इस अधिनियम के मसौदे में सुझाए गए हैं। अब तक जो व्यवस्था चली आ रही थी उसमें इस बोर्ड के अध्यक्ष राज्य के मुख्यमंत्री होते हैं। लेकिन इस संशोधन के जरिये अब मुख्यमंत्री को इस भूमिका से बाहर कर दिया गया है। अब इस व्यवस्था में वन मंत्री को इसका अध्यक्ष बना दिया गया है। इसके साथ ही सदस्यों की संख्या दस सदस्यों तक सीमित कर दी गयी है।
मीतू गुप्ता जो स्वयं राज्य वन्य जीव बोर्ड की सदस्य हैं इसे इस अधिनियम के सबसे खतरनाक परिणाम के तौर पर देखती हैं। उनका मनाना है कि “जिस तरह अब देश के प्रधानमंत्री को अपने ही देश के वन्य जीवों के संरक्षण के दायित्व से अलग कर दिया गया है उसी तरह अब राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी इससे बाहर कर दिया गया है। अब तक मुख्यमंत्री इसके अध्यक्ष होते थे तब सभी संबंधित विभागों की जबावदेही भी सुनिश्चित होती थी। लेकिन अब मुख्यमंत्री को वन्य जीव संरक्षण से कोई मतलब नहीं होगा और वन मंत्री अपने अधिकारियों के जरिये इस पर काम करेंगे। दस सदस्यों का चयन भी अब तयशुदा ढंग से की जाएगा जिसमें विशेषज्ञता की जगह राजनैतिक नज़दीकियों को महत्व मिलेगा। इन बोर्ड्स पर कॉर्पोरेट्स का नियंत्रण बढ़ेगा”।
साभार : डाउनटूअर्थ