संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

छत्तीसगढ़ : आदानी की खदान का वनभूमि डायवर्सन निरस्त होने के बावजूद 11 सितम्बर को जनसुनवाई की नौटंकी

देश आज उस मुहाने पर खड़ा है जहां या तो जंगल बचाने वाले आदिवासी बचेंगे, या जंगलराज लाने वाले कारपोरेट. देश का क़ानून और संविधान कारपोरेट हितों का अभयारण्य बन गया है. वनभूमि-हस्तांतरण को रोकने के लिए 2006 में क़ानून तो बना, लेकिन जब इसे लागू करने के लिए ज़रूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति कंपनियों के आगे घुटने टेक देती हो तो झारखंड हो या ओडीसा या छत्तीसगढ़ जंगल की ज़मीन कब तक बच पाएगी? अदानी का मुनाफा बढ़ाने के लिए छत्तीसगढ़ के सरगुजा ज़िले के हसदेव अरण्य क्षेत्र स्थित पर्सा ईस्ट केते बासन कोल माइनस का वनभूमि पर विस्तार किया जा रहा है | अदानी कंपनी द्वारा संचालित खदान की क्षमता 10 एमटीपीए से बढ़ाकर 15 एमटीपीए किये जाने के लिए 11 सितम्बर 2016 को जनसुनवाई की नौटंकी की जा रही है | जबकि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) 23 मार्च 2014 को पर्सा ईस्ट केते बासन खदान की वन भूमि डायवर्सन की स्वीकृति को निरस्त कर चुका है. अभी इस मामले के सुप्रीम कोर्ट में होते हुए जन सुनवाई करना सीधे तौर पर संविधान के साध भद्दा मजाक है. अदानी को वनभूमि देने के लिए आयोजित जनसुनवाई पर आपत्ति दर्ज करवाते हुए छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन ने बयान जारी किया जिसे हम आप के साथ साझा कर रहे है;

दिनाँक 11 सितम्बर 2016 को सरगुजा ज़िले के हसदेव अरण्य क्षेत्र स्थित पर्सा ईस्ट केते बासन कोल माइन के विस्तार के लिए पर्यावरणीय  जनसुनवाई का आयोजन किया जा रहा है | अदानी कंपनी द्वारा संचालित राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड की इस खदान की क्षमता 10 एमटीपीए से बढ़ाकर 15 एमटीपीए किये जाने के सम्बन्ध में यह जनसुनवाई की जा रही है |

परन्तु इस सम्बन्ध में तैयार की गई पर्यावरणीय जांच रिपोर्ट में कई अहम् तथ्यों को छुपाया गया है और इस परियोजना की NGT द्वारा वन स्वीकृति के निरस्तीकरण या इस सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट में लंबित केस का कोई ज़िक्र ही नहीं किया गया है |

पर्यावरणीय प्रभाव आँकलन नोटिफिकेशन के नियमों के अनुसार जिसमें धारा 8 (6) शामिल है, परियोजना के सम्बंधित गलत या भ्रमात्मक जानकारी देना या किसी अहम् जानकारी को छुपाना कानूनी अपराध है और परियोजना की पर्यावरणीय स्वीकृति के निरस्तीकरण का अपने आप में ही पूर्ण आधार है| इस संबंध में यह बात विशेष है कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने 23 मार्च 2014 को पर्सा ईस्ट केते बासन खदान की वन भूमि डायवर्सन की स्वीकृति को निरस्त कर दिया था और आदेश दिया था की पर्यावरण मंत्रालय की वन सलाहकार समिति इस परियोजना की पुनः जांच करे और एक समग्र अध्ययन करे की क्या यह क्षेत्र पर्यावरण और जैव विविधता की दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण है कि कोयला खनन के लिए इसका विनाश नहीं किया जा सकता |

गौर तलब है कि NGT ने अपने फैसले में इस बात का विशेष उल्लेख किया था कि वन सलाहकार समिति लगातार इस क्षेत्र के संरक्षण के लिए कोयला खनन का विरोध करती रही है और इस सलाह के विपरीत जाकर परियोजना को मिली वन डायवर्सन की स्वीकृति ना सिर्फ गैर कानूनी है परन्तु इससे कई अहम् सवालों की अनदेखी की गयी है |

NGT ने कहा था की इस क्षेत्र में भरपूर जैव विविधता, दुर्लभपशु-पक्षी, तथाहाथी कॉरीडोर होने की जानकारी के चलते खननस्वीकृति से पूर्व इसका सम्पूर्ण समग्र अध्ययन अत्यंत आवश्यक है |

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 28 अप्रैल 2014 को निर्देश दिए की मामले की सुनवाई पूरी होने तक और पर्यावरण मंत्रालयकी जांच पश्चात नए निर्देश आने तक मौजूदा खनन कार्य जारी रह सकता है |

परन्तु सुप्रीम कोर्ट में चल रही कानूनी प्रक्रिया को नज़रन्दाज़ कर और पर्यावरण मंत्रालय के वन सलाहकार समिति के किसी अध्ययन एवं अंतिम निर्देश के पूर्व ही इस खनन परियोजना के विस्तार की कार्यवाही की जा रही है | साथ ही कम्पनी के निर्देश पर तैयार पर्यावरणीय जांच रिपोर्ट ने यह तक बताना ज़रूरी नहीं समझा की इस सम्बन्ध में कोई भी नई प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निर्णय से प्रभावित होगी|

साथ ही इस परियोजना विस्तार के कारण वन सलाहकार समिति का लंबित अध्ययन ही बेमानी  हो जायेगा क्यूंकि जांच का मूल आधार ही जांच से पूर्व ही नष्ट हो जाएगा | साफ़ है की परियोजना विस्तार की यह मंशा कानूनी प्रक्रिया का एक भद्दा मज़ाक है और पर्यावरणीय दुष्प्रभाव के प्रति कंपनी की अत्यंत असंवेदनशीलता का गहरा उदाहरण है |

11  सितम्बर 2014 को पर्यवार्नीय स्वीकृति के समबन्ध में होने वाली जनसुनवाई से एक और अहम् सवाल उत्पन्न होता है | क्या ऐसे किसी परियोजना को नई पर्यावरणीय स्वीकृति दी जा सकती है जिसकी वन भूमि डायवर्सन की स्वीकृति ही निरस्त हो चुकी हो | या फिर क्या संवेदनशील इलाकों में वन स्वीकृति के बिना ही पर्यावरणीय स्वीकृति दी जा सकती है | इसका जवाब शायद पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के 31 नवम्बर 2011 के निर्देश में ढूँढा जासकता है जिसमें स्पष्ट कहा गया था की वन स्वीकृति के बिना या उसकी प्रक्रिया के पूर्ण होने से पहले ना ही पर्यावरणीय स्वीकृति दी जा सकती है और ना ही इस सम्बन्धमें कोई भी कार्यावाही की जा सकती है |

गौरतलब है की इस निर्देष वाले पत्र का ज़िक्र तो कंपनी की रिपोर्ट में किया गया है लेकिन इस निर्देश के पालन की दिशा में कोई कार्य नहीं किया गया क्यूंकि कानूनी रूप से इस परियोजना की वन स्वीकृति निरस्त की जा चुकी है और उस पर सुप्रीम कोर्ट में केस लंबित है |

इन तथ्यों को ध्यान में रख कर छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन यह मांग करता है की आगामी 11 सितम्बर 2016 को होने वाली जनसुनवाई निरस्त की जाए और कंपनी द्वारा जनता को भ्रमित करने के प्रयासों को तुरन्त रोका जाए | साथ ही केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय कानूनी निर्देश का पालन करते हुए वन सलाहकार समिति को इस क्षेत्र के सम्पूर्ण समग्र अध्ययन के तुरंत निर्देश दे जिसमें NGT द्वारा निर्देशित सभी 7 मुद्दों और प्रश्नों की जांच शामिल हों |

छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन मांग करता है की सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निर्णय से पूर्व इस परियोजना का कोई विस्तार ना किया जाए जिससे इस क्षेत्र के पर्यावरण, जैव विविधता और आदिवासी संस्कृति का विनाश हो जायेगा.

छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन मांग करता है कि-

  • कोलमाईंस विस्तार परियोजना की जनसुनवाई रद्द की जायें.
  • परियोजना विस्तार की यह मंशा कानूनी प्रक्रिया का एक भद्दा मज़ाक है 
  • परियोजना के सम्बंधित गलत या भ्रमात्मक जानकारी देना या किसी अहम् जानकारी को छुपाना कानूनी अपराध 
  • NGT ने कहा था की इस क्षेत्र में भरपूर जैव विविधता, दुर्लभपशु-पक्षी, तथाहाथी कॉरीडोर होने की जानकारी के चलते खननस्वीकृति से पूर्व इसका सम्पूर्ण समग्र अध्ययन अत्यंत आवश्यक है |
  • क्या ऐसे किसी परियोजना को नई पर्यावरणीय स्वीकृति दी जा सकती है जिसकी वन भूमि डायवर्सन की स्वीकृति ही निरस्त हो चुकी हो 
  • जनसुनवाई निरस्त की जाए और कंपनी द्वारा जनता को भ्रमित करने के प्रयासों को तुरन्त रोका जाए | 
  • छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन मांग करता है की सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निर्णय से पूर्व इस परियोजना का कोई विस्तार ना किया जाए |

अधिक जानकारी के लिए 

आलोक शुक्ला
9977634040

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