संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

9 जनवरी 2018 : उलगुलान दिवस के अवसर पर जन-विरोधी नीतियों के विरुद्ध जमशेदपुर में सम्मेलन



विस्थापन विरोधी एकता मंच द्वारा 9 जनवरी 2018 को बीरसा मुंडा के उलगुलान दिवस के दिन पोटका, जमशेदपुर, झारखंड में भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वसन कानून 2013 में संशोधन, धर्मान्तरण निषेध कानून, स्वास्थ सेवा की बदहाली, कुपोषण एवं भूख से मौतों एवं असंगठित मजदूरों की दुर्दशा के खिलाफ एकजुट मुहिम जारी रखने और तेज करने के लिए एक दिवसीय सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है। हम आपके साथ इस सम्मेलन के जारी पर्चा साझा कर रहे है;

साथियों,

अपनी जिन्दगी की तल्ख सच्चाईयां सरकार के दावों और प्रचारों की असलियत उघाड़ रही हैं। आम आदमी, गरीब मेहनतकशों, बेजार बेरोजगारों से ज्यादा अच्छी तरह इस बात को कौन समझ सकता है कि सबका साथ सबका विकास का नारा जनता के साथ एक भद्दा मजाक है। किसानों के हाथ से जमीन छीनकर पूंजीपतियों को सौंपने की योजनाओं को विकास बताया जा रहा है। पूंजीपतियों से यारी और जनता से गद्दारी को सरकार विकास की जिम्मेवारी का नाम दे रही है। लूट को छिपाने, जनता को छलने- भरमाने के लिए विकास की मृगतृष्णा, विकास का मायाजाल रचा जा रहा है।

विकास की इस लहर मे गैरबराबरी और बदहाली बढ़ती ही जा रही है। हाल के एक अन्तर्राष्ट्रीय आंकड़े में यह खबर आयी कि भारत करोबार सुगमता सूचकांक के मामले में बेहतर हुआ है। सरकार इस हवाले से सीना तानकर अपनी पीठ से खुश थपथपाने लगी है। पूंजीपतियों-व्यापारियों को कारोबार में आसानी हुई है, इस बात से खुश होनवाली सरकार इस बात पर दुखी नहीं होती कि राशन मिलने में गरीबों की कठिनाई आधार नं0 लिंक की अनिवार्यता और मीलों दूर राशन जैसे कारणों से बढ़ी है। इस कारण झारखंड में भूख से हुई मौतों को भी नकारने पर तुली है। भारत विश्व स्वास्थ्य सूचकांक में पिछले तीन सालों यानी नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में 97वें स्थान से गिरकर 103वें स्थान पर चला गया है। पूरी दुनिया में 5 साल से कम उम्र के बच्चे सबसे ज्यादा भारत में मरते हैं।

भारत की आधी से ज्यादा आबादी -51 प्रतिशत औरतों में खून की कमी है। 5 वर्ष तक के 38 प्रतिशत भारतीय बच्चों का कुपोषण के कारण विकास रूक गया है। स्त्री-पुरूष बराबरी के मामले में भारत एक साल में ही 21 सीढ़ी नीचे लुढ़क गया है। 2016 में 144 देशो में भारत 87वें स्थान पर था, 2017 में 108वें स्थान पर है। वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 119वें स्थान पर पहुंच गया है। भारत के सिर्फ 1 प्रतिशत भारतीयों से ज्यादा सम्पति है। ध्यान दें, ये सारे आंकड़े मोदी सरकार के कार्यकाल के दरम्यान के ही है। झारखंड की भी तस्वीर भारत की तस्वीर से मिलती-जुलती ही होगी, ज्यादा बदरंग ही होगी। यह प्रतिभा का नहीं, विकास के नाम पर चल रहे लूट और भ्रष्टाचार का ही कमाल है।

झारखंड की रघुवर सरकार पूरे भक्तिभाव से मोदी सरकार के पदचिन्हों पर बढ़ती जा रही है। भाजपा और उसकी सरकारें विकास के साथ ही भारतीयता, राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व राग अलापती रहती है। पूंजीपतियों को अभिनन्दन-किसानों मजदूरों पर दमन, सबका साथ विकास नहीं, गरीबों पर आघात-अमीरों का विकास- यही मौजूदा विकास का परम सत्य है। हिन्दुत्व और राष्ट्र का नाम- सामाजिक विषमता को कायम रखने का काम – धार्मिक तानाशाही थोपने का अरमान- यही भाजपा की रणनीति है। इस मकसद  से झारखंड की भाजपा सरकार भी काम कर रही है। इन कदमों पर गौर करते हुए आम लोगों को अपना जिम्मा तय करना है।

व्यापक जनदबाव के बाद झारखंड सरकार ने सीएनटी एवं एसपीटी एक्ट के संशोधन को राज्यपाल द्वारा लौटाने के बाद वापस ले लिया। लेकिन जमीन की लूट की भूख छूटी नहीं। उसकी जगह भूमि अर्जन, पुनर्वसन एवं पुनर्स्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार (झारखंड संशोधन) विधेयक 2017 पारित कर लिया।

अगर यह संशोधन राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद कानून का हिस्सा बन गया तो अनेक परियोजनाओं के लिए भूअर्जन करने के पहले सामाजिक प्रभाव आकलन अध्ययन करके की अनिवार्यता खत्म हो जाएगी। इन परियोजनाओं की सूची में स्कूल कॉलेज, युनिवर्सिटी, अस्पताल, पंचायत भवन, सड़क, पाइपलाईन, जलमार्ग तथा गरीबों के लिए मकान निर्माण शामिल हैं। ये परियोजनायें निजी क्षेत्र की भी हो सकती हैं। इस संशोधन के बाद ग्रामसभा से बस राय-विचार कर लेने के बाद ही भूअर्जन करना संभव होगा। संशोधन के पहले की स्थिति में हर तरह की परियोजना के लिए सामाजिक प्रभाव आकलन अध्ययन के तहत कई शर्तों को पूरा करना अनिवार्य था।

भू-अर्जन के पहले ग्राम सभा की अनुमति अनिवार्य थी। इस अध्ययन के तहत एक स्वतंत्र एजेन्सी से यह जांच निष्कर्ष पाना जरूरी था कि परियोजना सामाजिक-सार्वजनिक उद्देश्य को पूरा करती है। जरूरत के हिसाब से परियोजना के लिए न्यूनतम विस्थापन और अधिग्रहण के दूसरे वैकल्पिक उपायों पर विचार किया गया और दूसरे उपयुक्त वैकल्पिक उपाय न होने के कारण यह अधिग्रहण करना जरूरी है। यह भी जॉचना और बताना जरूरी था कि आसपास में पहलें से अधिग्रहित ऐसी कोई खाली जमीन नहीं है, जिसमें प्रस्तावित परियोजना लगायी जा सके। अब उपरोक्त परियोजनाओं के लिए यह सब करने से छुटकारा मिल जाएगा। इन जरूरी कामों से बचने के इस कदम का यही मतलब है कि सरकार को समाज पर पड़नेवाले खतरनाक प्रभावों को जॉचने और हटाने की कोई परवाह नही है। जनता का लाख बुरा हो, परियोजनाओं के लिए मनचाहा जमीन लेना ही है।

इस विनाशकारी संशोधन के खिलाफ लगातार लड़ते रहकर इसे वापस करवाना है। अपने हित में बेहतर कानून बनवाना और उसपर अमल करवाना है। जरूरत पड़े तो जीवन और जनमत को नकारने वाली भाजपा पार्टी उसकी सरकार को चुनावों में भी करारा जवाब देना है, नकार देना है।

इसी सरकार ने भूअर्जन और पुनर्वसन कानून में संशोधन के साथ-साथ एक धर्म स्वातंत्र विधेयक पारित कर दिया है। राज्यपाल की सहमति से वह कानून भी बनाया गया है। धर्म परिवर्तन समारोह की अनुमति डीसी/डीएम से लेनी है। अपने मन से धर्म बदलने वाले को भी इसकी सूचना डीसी/डीएम को देनी है। ऐसा नहीं करने पर सजा हो सकेगी। पुलिस इन्सपेक्टर और डीसी को अगर लगता है कि धर्म परिवर्तन जोर-जबरदस्ती या प्रलोभन या धोखा से हुआ है तो मुकदमा दायर हो सकेगी। दोषी को तीन या चार साल के जेल की सजा और 50 हजार रू0 का जुर्माना लगेगा। यह कानून पुलिस राज, कलक्टर राज को बढ़ावा देता है। धार्मिक स्वतंत्रता के संवैधानिक और नैसर्गिक वैयक्तिक लोकतांत्रिक अधिकार पर आघात करता है। यह कट्ठ मनुवादी आरएसएस संचालित हिन्दुओं की निरंकुशाता को स्थापित करने की चाल हैै। झारखंडी संस्कृति पर आक्रमण है।

आदिवसियों की स्वतंत्र धार्मिक पहचान की मिटाकर हिन्दू धर्म में विलीन करने की साजिश है। जनसंघर्षो की व्यापक सामुदायिक एकजुटता को विभाजित करने की कूटनीतिक चाल है। अगर ऐसा नहीं होता तो आदिवासियों के स्वतंत्र गैर हिन्दू सरना धर्म  को वैधानिक मान्यता देने की वर्षाे की मॉग मान ली जाती। पीड़ित व्यक्ति द्धारा शिकायत दर्ज होने पर ही मामला दर्ज करने का एकमात्र प्रावधान होता। स्वेच्छा से धर्म बदलने वाले को डीसी तक सूचना पहेंचाने का प्रावधान नहीं होता। ऐसी संविधानविरोधी, लोकतंत्र विरोधी, एकधर्मी निरंकुशता को बरदाश्त नहीं करना है। इस कानून को भी रद्द कराना है। सरना एवं अन्य असंगठित धर्मो को मान्यता और सुरक्षा देने की लड़ाई लड़नी है।

झारखंड की सामान्य सार्वजनिक स्वास्थ व्यवस्था को देखकर यही लगता है कि सरकार को आम जिन्दगी की कोई फिक्र ही नहीं है। सरकारी अस्पतालों की बदहाली बार-बार अखबारों में आती है। पर अपनी सफलता और उपलब्धियों का अखबारों में करोड़ो का विज्ञापन देनेवाली सरकार इन खबरों पर मौनव्रत ले लेती है। गॉंव में स्वास्थ्य केन्द्र बरसांे पहले बना दिये गये हैं। इलाज ग्रामीणों की मांग के बाद भी शुरू नहीं हुआ है। अस्पताल में होनेवाली मौतें बार-बार सरकार को कत्ल का गुनाहगार ठहराती है। कुपोषण, शिशु मृत्यु दर, मातृ मृत्यु दर आदि के पैमानों पर झारखंड गिने-चुने बदहाल प्रांतो में है। पर संवेदनशून्य और बेशर्म सरकार सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था सुधारने की जगह जीडीपी, निवेश का शीर्ष प्रांत होने का सेहरा बांधे इतरा रही है। अपने सपनों का, पूंजीपतियों का विकसित प्रांत बनाने की सनक में लगी झारखंड सरकार झारखंड को बीमार और कंकाल राज्य बना रही है। स्वास्थ्य का निजीकरण कर बीमारों को लाश में बदलने का कार्यक्रम चला रहे है। सेहतमंद झारखंड बनाने के लिए, अपनी जिन्दगी बचाने के लिए एक बड़ा स्वास्थ्य आंदोलन बनाने की जरूरत है। निजीकरण को जोरदार विरोध करना है। सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रो को सुधारने, फैलाने, उन्नत करने का जनदबाव बनाना है।

निजीकरण और उदारीकरण का तुफान नौजवानों और मजदूरों पर आफत बनकर टूटा है। स्थायी कर्मियों की भारी छंटनी होती रही है। लगभग हर काम ठेका मजदूरों से कराया जा रहा है। इन ठेका मजदूरों को न तो वाजिब श्रम अधिकार, न मानवीय जिन्दगी जीने लायक पारिश्रमिक और न ही दुर्घटनाओं से सुरक्षा और उचित इलाज दिया जा रहा है। रोजगार की नियमितता की गारन्टी भी नही है। छोटे-मोटे उपक्रमों और कार्यो में दो-पांच-दस की संख्या में लगे मजदूरों और कारीगरों की हालत तो और भी ज्यादा खराब है। सरकारी श्रम विभाग निष्क्रिय और निष्प्रभावी बनाकर रख दिया गया है। सस्ते श्रम की भरपूर उपलब्धता का सरकार गौरव गान कर रही है और निवेशकों को ललचा रही है। बेरोगारों को रोजगार न दे पाने की अक्षमता पर उसे शर्म नहीं आती, राहत महसूस होती है। बेरोजगारों-अर्धबेरोजगारों की संख्या जितनी ज्यादा होगी, सस्ते में काम करने की मजबूरी और आपाधापी उतनी ज्यादा होगी। नियोजकों को मनमानी की उतनी आसानी होगी।

इस हालात को बदलना होगा। सुनिश्चित, दीर्धकालिक, सम्मानजनक और पर्याप्त पारिश्रमिक के रोजगार का आंदोलन समाज को बेहतर, न्यायपूर्ण और मानवीय बनाने के लिए जरूरी है। सम्पूर्ण, सुनिश्चित, मानवीय रोजगार के लिए किसानों, मजदूरों, छात्रों नौजवानों को एक साथ आना होगा। असंगठित मजदूरों की समस्ओं के समाधान का आंदोलन बनाना होगा।

आप भी इन मसलों पर चेतना और माहौल बनाने के लिए, आंदोलन की जमीन तैयार करने के लिए, आंदोलन छेड़ने और उसे फैलाने-गहराने के लिए हम सबके साथ चलें, आगे बढ़ें। हम आपका आह्वान करते हैं कि आप 9 जनवरी 2018 को विस्थापन एकता मंच द्वारा हाता, पोटका, जमशेदपुर, झारखंड में आयोजित सम्मेलन में भागीदारी करें।

निवेदक
भूमि, श्रम, प्रकृति और संस्कृति पर आक्रमण के खिलाफ संयुक्त अभियान
विस्थापन विरोधी एकता मंच, अखिल भारतीय झारखंड पार्टी, सी पी आई एम एल, झारखंड मुक्ति वाहिनी, नवजनवादी लोकमंच एस यू सी आई (सी)

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