संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

‘भूमि अधिग्रहण’ की समस्या पर ‘विचार-विमर्श’

साझी पहल का फैसला: संसद पर प्रदर्शन का निर्णय !
जन संघर्ष समन्वय समिति का गठन
 
‘भूमि अधिग्रहण’ की समस्या पर विभिन्न जन संघर्षों के प्रतिनिधियों के साथ एक विचार-विमर्श का आयोजन 3 से 4 जून 2011 को  गढ़वाल भवन, नयी दिल्ली में आयोजित किया गया। इस विचार-विमर्श में छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, तथा हरियाणा में भूमि, जल, जंगल, खनिज पदार्थों के अधिग्रहण के खिलाफ चल रहे आंदोलनों से 45 सहभागी शामिल थे जो भूमि अधिग्रहण के विरोध में संघर्षरत हैं।
नियामगिरी सुरक्षा समिति (वेदांत विरोधी आंदोलन, उड़ीसा), आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच (मित्तल विरोधी आंदोलन, झारखंड), भूमि सुरक्षा समिति (जिंदल-भूषण- मित्तल विरोधी आंदोलन, सिंहभूम, झारखंड), कृषि भूमि बचाओ मोर्चा (गंगा एक्सप्रेस वे विरोधी आंदोलन, उत्तर    प्रदेश), करछना (इलाहाबाद) का भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन (उ. प्र.), सेज विरोधी संघर्ष समिति (उ. प्र.), यमुना एक्सप्रेस-वे विरोधी आंदोलन (उ. प्र.), अवैध खनन विरोधी आंदोलन (राजस्थान), भूमि अधिग्रहण विरोधी संघर्ष (सीमेंट प्लांट विरोधी आंदोलन, राजस्थान), मातृ भूमि रक्षा समिति (सेज विरोधी आंदोलन, हिमाचल प्रदेश), किसान संघर्ष समिति गोरखपुर (परमाणु संयंत्र विरोधी आंदोलन, हरियाणा), सूचना का अधिकार अभियान (उड़ीसा), पर्यावरण विनाश विरोधी अभियान, मिर्जापुर (उ. प्र.), हिमालय बचाओ अभियान, बिहान(उ. प्र.), आदि जनसंघर्षों के साथियों ने विचार-विमर्श में भागेदारी निभाई। पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति (उड़ीसा), काठीकुण्ड का कंपनी विरोधी संघर्ष (झारखण्ड) तथा कनहर बचाओ आंदोलन  (उ. प्र.) के प्रतिनिधि स्थानीय जनसंघर्षों की वजह से बैठक में शामिल नहीं हो पाये। एन.ए.पी.एम,, युवा भारत, संघर्षवाहिनी, इण्डियन सोशल एक्शन फोरम (इंसाफ) तथा आजादी बचाओ आंदोलन से जुड़े कुछ साथियों ने भी इस बैठक में अपनी हिस्सेदारी निभायी।
बातचीत की शुरूआत में ही यह बात उभरकर सामने आयी कि-
  • सभी के सभी संघर्ष भूमि की लूट के खिलाफ, कृषि, वन, जल तथा खनिजों की रक्षा के साथ ही साथ परोक्ष तथा अपरोक्ष रूप से प्रभावित होने जा रहे लोगों के विस्थापन, पलायन, जीविका के संकट तथा अस्तित्व समाप्त हो जाने के सरोकारों से जुड़े हैं।
  • सभी संघर्षों का यह अनुभव है कि कंपनियों के हित में राज्य विवेकहीन तरीके से जमीनों का अधिग्रहण कर रही है तथा कंपनियों को जमीन, जंगल, पानी तथा खनिजों की लूट करने में पूरी तरह मदद पहुंचा रही है। अधिकांश राजनीतिक दल तथा राजनेता जनता के हित के खिलाफ खड़े हैं।
  • जन संघर्षों को दबाने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद का इस्तेमाल कंपनियाँ तथा सरकारें कर रही हैं।
  • जन संघर्षों को कमजोर करने के लिए राज्य दमन का रास्ता अपना रहा है। दलालों का भी इस्तेमाल किया जा रहा है। उत्पीड़न, गिरफ्तारियाँ तथा फर्जी मुकदमों, अफवाहों, गलत सूचनाओं और विकास के संदर्भ में दिग्भ्रमित करने की कोशिशें भी लगातार जारी हैं।
  • उड़ीसा, छत्तीसगढ़ तथा झारखण्ड के जनसंघर्ष ‘कारपोरेट हिंसा’ से भी जूझ रहे हैं तथा इन राज्यों में (अन्य राज्यों की तुलना में) राज्य कारपोरेट के हित में अत्यधिक ‘प्रो-एक्टिव’ भूमिका में नजर आ रहा है। पेसा कानून, संविधान की पाँचवीं अनुसूची, सी.एन.टी.एक्ट, एस.पी.टी. एक्ट तथा वन अधिकार अधिनियम 2005 का खुलकर दुरूपयोग किया जा रहा है। पर्यावरण मापदण्डों, सामाजिक प्रभाव आकलन, जन सुनवाइयों, प्रकृति-मनुष्य के संतुलित रिश्तों, सामूहिकता, लोक जीवन, स्थानीय अर्थव्यवस्था को नष्ट करने पर राज्य आमादा है।
चर्चा में यह बात आयी कि भूमि अधिग्रहण केवल भूमि का ही नहीं होता है उसके साथ कई दूसरे संसाधन भी जुड़े होते हैं। भूमि अधिग्रहण के माध्यम से खनिज, पानी, वन एवं पहाड़ों पर कब्जा किया जाता है। यह विचारणीय है कि भूमि अधिग्रहण का सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं    राजनीतिक पहलू क्या है ? दूसरा है व्यवस्थागत या ढाँचागत या इन ढाँचों व व्यवस्था को चलाने वाले मूल्यों के बारे में हमारी क्या सोच है ? तीसरा है कानूनी पहलू। जब कानूनी पहलू की हम बात कर रहे हैं तो इन दोनों बिन्दुओं से कानूनी पहलू कैसे जुड़ा है ? यह भी हमारे चिंतन का विषय है। समाज कानून बनाता है या कानून समाज को बनाता है। इनके अन्तःसम्बन्ध क्या हैं? इस सत्र में हम भूमि अधिग्रहण पर एक समग्र दृष्टिकोण बनाने का प्रयास किया गया।
इस समस्या पर गहराई से विचार करने के लिए यह आवश्यक समझा गया कि इन बिन्दुओं पर स्पष्ट राय बनायी जाय-
·         प्रकृति-मनुष्य का रिश्ता क्या हो?
·         उत्पादन का आधार क्या हो?
·         वितरण का आधार क्या हो ?
·         उत्पादन पर किसका नियंत्रण हो?
·         संसाधनों पर किसका नियंत्रण हो?
·         भूमि किसके अधिकार में हो ?
·         विकास की अवधारणा क्या हो ?
इन बिंदुओं पर सहभागियों में चर्चा हुई। सहभागियों की सहमति थी कि प्रकृति-मनुष्य का रिश्ता संतुलित होना चाहिए इसलिए जरूरी है कि प्रकृति का दोहन जरूरत के आधार पर हो। उत्पादन का आधार मुनाफा नहीं जरूरत हो। सहभागियों की यह भी राय थी कि उत्पादन तथा संसाधनों पर बहुसंख्यक आबादी का हक होना चाहिए तथा विकास की अवधारणा  सामूहिकता और भाईचारे पर आधारित होनी चाहिए।
दूसरे दिन की कार्यवाही सुबह 8.30 बजे शुरू हुई। समय की कमी के कारण कुछ विशेष बिंदुओं का निर्धारण किया गया जिन पर चर्चा को आगे बढ़ाने पर सहमति बनी। चर्चा के लिए इन सवालों को रखा गया-
  • भूमि क्या है? आजीविका का स्रोत, धरोहर या सम्पत्ति।
  • अगर भूमि आजीविका का स्रोत है तो क्या उसकी  क्षतिपूर्ति संभव है?
  • जो संपदा सामूहिक मालिकाना के हिस्से में है उसको सरकारी बोलकर सरकार का रीयल एस्टेट एजेंट के रूप में काम करना सही है क्या?
  • भूमि का चरित्र क्या हो ? उसका इस्तेमाल कैसे होता है? भूमि के चरित्र को क्यों तेजी से बदला जा रहा है?
  • कृषि भूमि की सीमा का निर्धारण होना चाहिए कि नहीं?
  • भूमि अधिग्रहण के बाद अगर परियोजना बंद हो जाती है तो उस जमीन पर किसका मालिकाना हो?
  • अनुपस्थित जमींदार के बारे में क्या सोच है? ऐसे लोग जो जमीन के मालिक तो हैं, मगर उस पर खेती नहीं करते, इस जमीन का क्या होगा?
  • वह कानून जो किसानों के हित की एक सीमा तक रक्षा करते हैं (जैसे कि सीलिंग एक्ट, जेडएए, सीएनटी, एसपीटीए, संविधान की पांचवीं अनुसूची आदि) उनको व्यवहार में उतारा जाय।
  • ‘जरूरत से ज्यादा जमीन के अधिग्रहण’ के बारे में क्या सोच है?
  • भूमि अधिग्रहीत करके यदि किसी कंपनी को दी जाती है तो कंपनी उसकी मालिक होगी या कुछ समय के लिए मात्र किराएदार।
इन सवालों से जुड़े कुछ बुनियादी पहलुओं पर चर्चा हुई। जैसे कि-
  • भूमि अधिग्रहण नहीं होना चाहिए।
  • अगर हो तो इसमें लोकहित/सार्वजनिक उद्देश्य क्या हो? लोकतांत्रिक प्रक्रिया क्या हो?
  • भूमि के बदले भूमि को ही प्राथमिकता दी जाएगी या मुआवजा शेयर, बॉन्ड्स/डिवेंचर्स के रूप में लिया जाएगा।
  • भूमिहीनों के हित की रक्षा इसमें कैसे की जाय।
  • 70 फीसदी कम्पनी :  30 फीसदी सरकार:  इस के बारे में क्या सोच है?
इन चर्चाओं को समेटते हुए तथा सभी सहभागियों की सहमति से लोकहित एवं लोकतांत्रिक प्रक्रिया की परिभाषा तय की गयी, जो इस प्रकार है-
लोकहित:
व्यापक आबादी का हित, जो जरूरत पर आधारित हो, मनुष्य-प्रकृति के संतुलित रिश्तों पर आधारित हो तथा टिकाऊ हो।
इन हितों का निर्धारण, नियोजन, संचालन तथा नियंत्रण व्यापक आबादी के हाथ में हो।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया:
लोकहित को ध्यान में रखते हुए ऐसी खुली एवं स्वतंत्र प्रक्रिया जिसमें (परोक्ष या अपरोक्ष रूप में) प्रभावित होने जा रही बहु-संख्यक अधिवासी आबादी नियोजन, निर्धारण,  संचालन एवं नियंत्रण का फैसला सर्वसम्मति से ले। इस प्रक्रिया में किसी प्रकार का बाहरी (सरकारी, गैर-सरकारी, कम्पनी आदि) हस्तक्षेप न हो।
सभी प्रकार की जानकारियों, आकलन रिपोर्टों को प्राप्त करने के बाद उपरोक्त प्रक्रिया के तहत कम से कम 3 लगातार बैठकों (जो 45 दिन के अंतराल में होगी) में फैसला लिया जाए (इन बैठकों में पूरी वयस्क आबादी की कम से कम 75 प्रतिशत उपस्थिति हो, जिसमें कम से कम 50 प्रतिशत महिलायें हों), जो सभी पर बाध्यकारी होगा तथा लिखित व प्रमाणित होगा।
70 फीसदी: 30 फीसदी के बारे में साथियों ने कहा वह स्वीकार नहीं है।
इसके बाद अस्वीकार्य (नॉन-निगोशिएबल) मुद्दों पर चर्चा हुई। चर्चा के बाद सहभागियों की सहमति से एक नॉन-निगोशिएबल मुद्दों की सूची तैयार की गयी जो इस प्रकार है-
  • जब तक भूमि अधिग्रहण/भूमि रूपांतरण पर श्वेत पत्र जारी न हो तब तक कोई नया भूमि अधिग्रहण न किया जाये।
  • अभी तक विस्थापित किये गये लोगों की मौजूदा स्थिति के बारे में भी श्वेत पत्र जारी किया जाय।
  • कृषि, वन, पहाड़, जल स्रोत तथा सामूहिक सार्वजनिक सम्पत्ति का अधिग्रहण बिना समुदाय की सहमति के नहीं किया जाय तथा इस तरह की भूमि, वन, जल स्रोतों, जलाशयों, नदियों, पहाड़ों को राज्य अपनी सम्पत्ति मानने की समझ से बाहर आये तथा इसे समुदाय की सम्पत्ति माने।
  • सार्वजनिक सम्पत्ति को दुबारा से बहाल करना होगा।
  • मुआवजा नहीं निंरतर लाभ।
  • वादा खिलाफी, गलत सूचना देने पर सजा का प्रावधान हो।
  • तय समय सीमा तक कम्पनी कार्य नहीं शुरू कर पाती है तो भूमि वापस लेने का हक हो।
  • कम्पनी, निकाय आदि को व्यक्तिगत जमीनें खरीदने का अधिकार नहीं होगा और न ही इन्हें सरकारी जमीन  आबंटित की जाये।
  • सार्वजनिक हित परिभाषित किया जाये।
  • अधिग्रहित जमीनों पर चल रही परियोजनाओं के कुप्रभावों पर श्वेत पत्र जारी किया जाये।
  • अधिग्रहित लेकिन उपयोग में नहीं आ रही जमीन को वापस लिया जाये।
  • वर्ष 2005 में मौजूद कृषि भूमि की सीमा को यथावत रखा जाय।
  • जमींदारी उन्मूलन अधिनियम, सीलिंग एक्ट, सीएनटी एक्ट जैसे कानूनों को बरकरार रखा जाये तथा इनको प्रभावकारी ढंग से लागू किया जाय।
इसके बाद सदन के सामने दो सवाल रखे गयेः-
1.            क्या हम इन सात राज्यों के स्तर पर साझी पहल पर कोई निर्णय ले सकते हैं?
2.            क्या हम अपने राज्य के स्तर पर साझी पहल के लिए कोई प्रयास कर सकते हैं?
इन दोनों सवालों पर सहभागियों की सहमति के बाद इन सवालों पर खुली चर्चा हुई। चर्चा में मुख्यतया निम्न बिन्दु निकल कर आये-
  • जन संघर्ष के नेताओं को अन्य आंदोलनों में बतौर नेता स्थापित किया जाय।
  • सभी राज्यों से एक-दो साथियों को लेकर एक कोर कमेटी का निर्माण किया जाय।
  • राज्य स्तर पर भी एक कमेटी का निर्माण हो जो स्थानीय स्तर पर चल रहे आंदोलनों से संपर्क रखे।
  • देश के स्तर पर कुछ प्रतीकात्मक बड़े कार्यक्रम किये जायें।
  • राजस्थान स्तर की एक कमेटी का निर्माण किया जा चुका है। वह फागी, नीम का थाना तथा नवलगढ़ के संघर्ष स्थलों पर जायेगी तथा आंदोलनकारियों से सम्पर्क साधेगी।
  • एक टीम बनाकर विभिन्न आंदोलनों से सम्पर्क किया जाय।
  • भूमि अधिग्रहण के विरोध में एक साझा अभियान शुरू किया जाय।
इसके बाद चर्चा इस बात पर हुई कि क्या हम इन सात राज्यों के साथियों को लेकर एक कमेटी बना सकते हैं जो साल में एक-दो बार आपस में मिल बैठ कर आगे की रणनीति पर बात कर सके। इस सवाल पर सहभागियों की राय थी कि एक कमेटी का निर्माण किया जाय।
इसके बाद जन संघर्ष समन्वय समिति का सर्वसम्मति से गठन किया गया, जिसमें हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, उत्तर-प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उड़ीसा राज्यों के विभिन्न जनसंघर्षों के साथियों को रखा गया।
इसके बाद यह बात सामने आयी कि जन संघर्ष समन्वय समिति की पहली बैठक कब व कहाँ पर आयोजित की जाय। सहभागियों की राय थी कि पहली बैठक दिल्ली में जुलाई माह में आयोजित की जाय। कई सहभागियों की राय थी कि जन संघर्ष समन्वय समिति की तरफ से मानसून सत्र में जन्तर-मन्तर पर एक दिन का भूमि अधिग्रहण के विरोध में प्रदर्शन किया जाय तथा उसके बाद जन संघर्ष समन्वय समिति की बैठक को रखा जाय।
इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए एक 11 सदस्यीय कोर कमेटी का गठन किया गया।
इस कोर कमेटी को जिम्मेदारी दी गयी कि वह-
  • संसद के समक्ष प्रदर्शन के संदर्भ में तैयारी को अंतिम रूप दे तथा सभी को अवगत कराये।
  • अन्य जन संघर्षों से सम्पर्क करके इस साझी पहल को और व्यापक रूप दे तथा प्रदर्शन की सर्वसम्मत तिथि तय कराये !
इसके बाद सहभागियों की राय बनी कि कोर कमेटी की पहली बैठक 16 जून 2011 को दिल्ली में रखी जाय ताकि प्रदर्शन से सम्बन्धित तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा सके।
इसके बाद जिम्मेदारियों की बात आयी तथा पूछा गया  कि हम लोग राज्य स्तर की बैठकें (अन्य संघर्षों के साथ) कब तक कर सकते हैं ? इस सवाल पर सहभागियों का कहना था कि 5 जुलाई 2011 तक हम राज्य स्तर की बैठकें कर लेंगे।
इसके बाद कैप्टन दीप सिंह शेखावत ने सभी साथियों को धन्यवाद देते हुए विचार-विमर्श की समाप्ति की घोषणा की।
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