संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

वजूद के लिए जूझती कलाकारों की बस्ती : दिल्ली की कठपुतली कॉलोनी पर विस्थापन का संकट



आजादी के बाद जब देश इंसानी इतिहास के सबसे बड़े विस्थापन को देख रहा था उसी समय भाटों के सात डेरे आकर  दिल्ली की मौजूदा कठपुतली कॉलोनी  में जम गए. इन डेरों को अब यहीं जम जाना था. पानी की जरूरत के लिए एक तालाब भी बनाया गया. धीरे-धीरे देशभर की कला से जुड़ी जातियां यहां आकर बसने लगी। तीन पीढ़ियों से रह रहे इस कठपुतली कॉलिनी पर अचानक फिर विस्थापन का खतरा मंडराने लगा है कारण रेहजा बिल्डर्स को इस जमीन पर अपने एक प्रोजेक्ट के लिए चाहिए। रहेजा का कहना है कि 190 मीटर ऊंची और 54 मंजिला यह इमारत दिल्ली की सबसे ऊंची इमारत होगी. इसमें 170 लग्जरी फ्लैट, एक स्काई क्लब और हेलीपेड बनाए जा रहे हैं। हम यहां आपके साथ कठपुतली कॉलोनी के जन्म से लेकर विस्थापन के खिलाफ उनकी लड़ाई तक पर विनय सुल्तान की यह विस्तृत रिपोर्ट साझा कर रहे है;


यह पश्चिमी राजस्थान का कोई भी दूर-दराज का गांव हो सकता है. लोग रात का खाना खाकर मंदिर के खाली मैदान में जमा हैं. लकड़ी के तख्ते और कपड़े की मदद से चार फीट के लगभग का एक मंच बनाया गया है. काले कपड़े पहने एक कठपुतली, जो एक जोगी का किरदार अदा कर रही है, चिलम पीती है और धुआं छोड़ती. सब लोग हैरान हैं कि कठपुतली धुआं कैसे छोड़ सकती है? लेकिन तभी उस मंच के पीछे से किसी के खांसने की आवाज आती है. इस भांडाफोड़ पर सब लोग ठठ्ठे मार कर हंसने लगते हैं. आखिर में महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक लम्बी छलांग लगा कर नाला पार करता है. ढपली पर घोड़े की टाप बजती है. मंच पर चार चक्कर काट कर घोड़ा गायब हो जाता है.


परियोजना के मुताबिक बस्ती के लोग दो साल के लिए आनंद पर्वत (दिल्ली में पश्चिम उत्तर का एक इलाका) में बने ट्रांजिट कैम्प जाएंगे. दो साल के बाद उन्हें इसी जमीन पर अपना एक फ्लैट मिलेगा


जब मैं शादीपुर बस डिपो से सटे हुए कठपुतली कॉलोनी पहुंचा तो मेरे साथ अनेक स्मृतियां थीं. वो भागीरथ भाट जो दीपावली के अगले दिन नियम से घर आता और एक सांस में मेरे 20 पुरखों के नाम बता देता. घोड़े की वो टाप जो ढपली से निकल कर दिमाग में चिपक गई थी. लेकिन कॉलोनी के मुहाने पर मिले इंसानी बस्ती के सबसे सनातनी सबूत. मल और कीचड़ से बजबजाती नाली. भीतर घुसने के तीसरे मिनट में आपको इस बात का अहसास हो जाएगा कि यह जगह इंसानों के रहने लायक तो नहीं है. हालांकि यह सड़क पर खेल-तमाशा दिखाने वाले कलाकारों यानी स्ट्रीट आर्टिस्टों की अपने आप में अनोखी और सबसे बड़ी बस्ती है. राजस्थान, महाराष्ट्र, बंगाल, बिहार, आंध्र प्रदेश से आए लगभग 3500 कलाकार परिवार यहां बसे हुए हैं.


किस इलाके में कहां जाकर डेरे डालना सुरक्षित है, कहां पर पानी आसानी से मिल जाएगा, घुमंतू जातियों में यह जानकारी पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती है. आजादी के बाद जब देश इंसानी इतिहास के सबसे बड़े विस्थापन को देख रहा था उसी समय भाटों के सात डेरे इस जगह आकर जम गए. इन डेरों को अब यहीं जम जाना था. पानी की जरूरत के लिए एक तालाब भी बनाया गया. धीरे-धीरे देशभर की कला से जुड़ी जातियां यहां आकर बसने लगी.




बस्ती के बाहर लगे दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) के कैम्प में गहमागहमी का आलम है. लोग यहां आकर एक करारनामे पर दस्तख्त कर रहे हैं. इस करारनामे के मुताबिक बस्ती के लोग दो साल के लिए आनंद पर्वत (दिल्ली में पश्चिम उत्तर का एक इलाका) में बने ट्रांजिट कैम्प जाएंगे. दो साल के बाद उन्हें इसी जमीन पर अपना एक फ्लैट मिलेगा. इसके लिए इन्हें 1.12 लाख रुपये देने होंगे. साथ ही पांच साल रख-रखाव के लिए तीस हजार रुपये भी देने होंगे.


डीडीए कैम्प में एक बड़ा एलसीडी टेलीविजन रखा हुआ है. इस पर कठपुतली कॉलोनी के पुनर्वास पर एक वीडियो दिखाया जा रहा है. इस वीडियो में नए बनने वाले फ्लैट का नक्शा दिखाया जा रहा है. दो कमरों वाले इन फ्लैट को देखने पर आपको लगेगा कि इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता. बढ़िया बने हुए पार्क ओपन एयर थियेटर और भी तमाम सुविधाएं. मेरे पास बैठी पतासी भाट बड़ी हसरत से उस वीडियो को देख रही हैं. बीच में प्रधानमंत्री मोदी के भाषण का एक टुकड़ा भी दिखाया जाता है. इसमे वे कह रहे हैं, ‘क्या दिल्ली में लोगों को झुग्गी-झोपड़ी में गुजारा करना पड़े अच्छी बात है? इसलिए भाइयों-बहनों मेरा एक सपना है. 2022, जब भारत की आजादी के 75 साल होंगे, हमारे यहां दिल्ली में हर झुग्गी-झोपड़ी को अपना पक्का घर मिले. मैं यह सपना सच करना चाहता हूं.’ वीडियो खत्म होता है और पतासी मुझसे मुखातिब होती हैं, ‘हमें भी अपना अच्छा घर चाहिए. किसको दिल्ली में अपना घर नहीं चाहिए. लोग अपनी मर्जी से ट्रांजिट कैम्प जा रहे हैं. ‘


मीटिंग में 100 से ज्यादा महिलाएं जुटी हुई हैं. पुरुष ना के बराबर हैं. घिसे-पिटे राजनीतिक नारों के साथ जमीन ना छोड़ने की कसमें खाई जा रही हैं. इतने में किसी घर से पत्थर चल जाता है


हालांकि अपने घर का यह सपना इस बस्ती के लोगों को पहली बार नहीं दिखाया गया है. 1986 में कठपुतली कॉलोनी को वसंत कुंज लेकर जाने की बात हुई. इसके बाद 1990 में डीडीए के स्लम विंग के आर्किटेक्ट अनिल लाल ने इस बस्ती के पुनर्वास की एक योजना पेश की. 1996 में इस बस्ती को महरौली स्थानांतरित करने के प्रयास किए गए. 2002 में सांसद रघुनाथ झा के सवाल का जवाब देते हुए तत्कालीन शहरी विकास मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने कहा कि द्वारका के पॉकेट-बी सेक्टर-16 में बने 1446 जनता फ्लैट कठपुतली कॉलोनी के लोगों के लिए सुरक्षित किए गए हैं. 


2007 में डीडीए ने फिर से इस कॉलोनी के पुनर्वास पर काम करना शुरू किया. ‘झुग्गी मुक्त दिल्ली 2021’ के मास्टर प्लान के तहत इस बस्ती के पुनर्वास को पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर रेखांकित किया गया. पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के इस प्रोजेक्ट के लिए निविदा मंगाई गई. कुल आठ निविदा में से रहेजा बिल्डर्स को सबसे मुफीद पाया गया.


छह अक्टूबर 2009 में रहेजा और डीडीए के बीच हुए करार के मुताबिक प्रोजेक्ट में दो कमरे के 2641 फ्लैट, पार्क, ओपन एयर थियेटर, दो स्कूल जैसी सुविधाओं का वादा किया गया है. इसके बदले में रहेजा बिल्डर्स ने 6.11 करोड़ का भुगतान डीडीए को किया. रहेजा बिल्डर्स के हिसाब से इस पूरे प्रोजेक्ट में 254.27 करोड़ का खर्च आने वाला है. कुल 5.22 हैक्टेयर जमीन में से 3.4 हैक्टेयर जमीन कॉलोनी के पुनर्वास में इस्तेमाल होगी. रहेजा बिल्डर्स को शेष 1.7 हैक्टेयर जमीन पर निर्माण करवाने का हक़ हासिल होगा. माने कुल जमीन का 60 फीसदी हिस्सा ही पुनर्वास के काम लिया जाएगा. रहेजा का कहना है कि 190 मीटर ऊंची और 54 मंजिला यह इमारत दिल्ली की सबसे ऊंची इमारत होगी. इसमें 170 लग्जरी फ्लैट, एक स्काई क्लब और हेलीपेड बनाए जा रहे हैं.


शाम के छह बज रहे हैं. बिहारी बस्ती के बीच छोटे से चौगान में महिलाऐं जुटी हुई हैं. भाट बस्ती से आगे निकल कर जैसे ही आप बाएं मुड़ते हैं तो मोड़ तक राजस्थानी आपको अलविदा कहने आती है. नुक्कड़ पर मराठी आपका स्वागत कर रही है. गली के अंत में खड़ी भोजपुरी बताती है कि प्रदर्शन कहां चल रहा है. पचास के लगभग पुलिसकर्मी यहां तैनात हैं. मीटिंग में 100 से ज्यादा महिलाएं जुटी हुई हैं. पुरुष ना के बराबर हैं. घिसे-पिटे राजनीतिक नारों के साथ जमीन ना छोड़ने की कसमें खाई जा रही हैं. इतने में किसी घर से पत्थर चल जाता है. माहौल में तनाव महसूस किया जा सकता है. बस्ती के नौजवान पहले भी पुलिस की लाठी का स्वाद चख चुके हैं. फिर आपसी समझाइश से चीजें ठीक की जाती हैं. प्रदर्शन सामान्य गति से चलने लगता है.


डीडीए के छह साल पुराने सर्वे के मुताबिक कॉलोनी में 3100 झुग्गियां थीं लेकिन बिल्डर सिर्फ 2641 फ्लैट बना रहा है 


इस बीच पतासी भाट का सवाल अपनी जगह पर बना हुआ है. ‘दिल्ली में किसे अपना घर नहीं चाहिए?’ तो क्या इन लोगों को इस बार अपना घर मिल पाएगा? इस प्रस्तावित पुनर्वास योजना में रहेजा बिल्डर्स ने 2641 फ्लैट बनाने का वादा किया है. 2009 में एक स्वतंत्र फर्म ज्ञान पी माथुर एंड एसोसिएट्स ने बस्ती का सर्वे किया था. इसमें घरों की कुल संख्या 2704 थी. इसके बाद डीडीए ने तीन चरणों में सर्वे किया. नवम्बर 2010 के सर्वे के हिसाब 3100 झुग्गी पायी गईं. बस्ती के लोगों और कुछ गैर सरकारी संगठनों के सर्वे के हिसाब से यह संख्या 3500 के लगभग जाती है.


डीडीए के 2010 के सर्वे को भी सही माना जाए तो बनाए जा रहे फ्लैट और मौजूद झुग्गियों की संख्या में बड़ा अंतर है. क्योंकि यह सर्वे 6 साल पुराना है तो फिलहाल कुल परिवारों की संख्या में अंतर के और बढ़ने से इनकार नहीं किया जा सकता. इस लिहाज से देखा जाए तो इस प्रोजेक्ट के जरिए कुछ लोगों का बेघर होना तय है. वहीं दूसरी तरफ अक्टूबर 2011 में स्टेट लेवल एक्सपर्ट अप्रेजल कमेटी ने कहा कि रहेजा बिल्डर्स ने जो सूचनाएं उपलब्ध करवाई हैं वे पर्यावरण गाइडलाइन की शर्तों को पूरा नहीं करतीं. सो कमेटी ने इस प्रोजेक्ट को एन्वायरमेंट क्लियरेंस को होल्ड पर रख दिया.


डीडीए के साथ जिस करार के तहत बस्ती के लोग आनंद पर्वत ट्रांजिट कैम्प शिफ्ट हो रहे हैं, उसमें कई चीजों का स्पष्ट होना जरुरी है. सामाजिक कार्यकर्ता विजय कुमार कहते हैं, ‘सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि अगर तय दो साल में घर बन कर तैयार नहीं होते तो उसकी जिम्मेदारी किसकी होगी? अगर समय पर घर नहीं मिलते हैं तो हमें क्या मुआवजा मिलेगा यह भी साफ़ नहीं किया गया है. इसके अलावा इस फ्लैट की कीमत 1.12 लाख है. ऊपर से पांच साल के रख-रखाव के लिए तीस हजार रुपये अलग से देने होंगे. ज्यादातर लोग एकमुश्त यह रकम नहीं दे सकते. डीडीए ने इसके लिए लोन लेने की बात कही है. लेकिन इन लोगों को लोन देगा कौन? हमने कई बैंकों से बात की. बिना नियमित आय के कोई भी बैंक लोन नहीं देने जा रहा.’ तो फिलहाल बस्ती के लोगों के लिए अच्छे घर के सपने का सच होना थोड़ा मुश्किल ही लग रहा है.


आप गूगल पर कठपुतली कॉलोनी टूर अगर सर्च करेंगे तो आपको कई सारी ट्रेवल वेबसाइट मिल जाएंगी. ये वेबसाइट 50 यूएस डॉलर में आपको कठपुतली कॉलोनी घुमाने का पैकेज देती है. इसमें होटल से लाने-ले जाने की सुविधा के साथ-साथ 3 घंटे इस कॉलोनी में घूमने का मौका देती हैं. विजय कहते हैं, ‘कई लोगों के हित बस्ती के यथास्थिति बने रहने के साथ जुड़े हुए हैं. यूरोप और अमेरिका से आने वाले पर्यटकों को यहां लाकर कला की जगह गरीबी बेची जा रही है.’


शिक्षा को लेकर इस बस्ती में 11 संगठन काम कर रहे हैं और 2014 के आंकड़ों के मुताबिक यहां 80 फीसदी बच्चे अपनी स्कूली शिक्षा पूरी नहीं कर पाते


यह भी एक कठोर सच्चाई है कि कलाकारों की यह बस्ती कई गैर सरकारी संगठनों के लिए नूराकुश्ती का मैदान बनी हुई है. कलाकारों के हित, स्वच्छता, शिक्षा, ना जाने कितने मुद्दों पर काम करने के नाम पर कई सारे गैर सरकारी संगठन यहां सक्रिय हैं. अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि शिक्षा को लेकर इस बस्ती में 11 संगठन काम कर रहे हैं और 2014 के आंकड़ों के मुताबिक यहां 80 फीसदी बच्चे अपनी स्कूली शिक्षा पूरी नहीं कर पाते.


इधर प्रदर्शन अब ख़त्म होने के कगार पर है. प्रदर्शन में पुरुषों की भागीदारी नहीं होने का सवाल अब भी बना हुआ था. इसका जवाब मिलता है भाट समाज के प्रधान दिलीप भाट के घर पर. 10 फीट की छोटी सी बैठक में जितने लोग आ सकते हैं वो खड़े हैं. बाहर भी लोगों का जमावड़ा लगा हुआ है. मीटिंग में पत्थर चल जाने की खबर से यहां पर सनसनी है. दिलीप बताते हैं कि इससे पहले पुलिस ने उनके घर का दरवाजा तोड़कर उन्हें पकड़ लिया था और मारते-मारते थाने ले गई थी. वो अभी तीन केस में विचाराधीन हैं. बस्ती में 19 लोग मुक़दमा झेल रहे हैं. दिलीप कहते हैं, ‘हम लोग अपने घर में कैद हो चुके हैं. बाहर निकलते ही पुलिस का निशाना बन सकते हैं.’ पास में खड़े राजू भाट कहते हैं, ‘हम काम पर नहीं जा पा रहे हैं. हमेशा डर लगा रहता है कि काम पर गए तो पीछे से कहीं पुलिस कुछ कर ना दे. आखिर इतनी पुलिस यहां क्या कर रही है. हमें क्यों डराया जा रहा है.’



प्रदर्शन खत्म हो गया है. महिलाऐं हाथ नचा कर पुलिस को कोस रही हैं. पुलिस की टुकड़ी धीरे-धीरे बाहर निकलने लगी है. आखिरी पुलिस वाले के पांच मीटर आगे निकल जाने के बाद 4-5 साल के दो बच्चे नाच-नाच कर गाते हैं, ‘हमें तो लूट लिया मिलकर डीडीए वालों ने, रहेजा वालों ने, मोदी वालों ने.’ पास ही खड़ा एक नौजवान हंसते हुए कहता है, ‘हम तो कलाकार हैं साहब, गले लगाओगे तो भी गाना गाएंगे और मारोगे तो भी गाना गाएंगे.’


साभार : सत्याग्रह

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