संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

परमाणु नहीं, सौर ऊर्जा चाहिए

विदेशी बाजे के शौक़ीन हमारे हुक़्मरान
डा. राजेंद्र प्रियदर्शी लखनऊ में रहते हैं और जाने-माने परमाणु भौतिकविद हैं। उन्होंने 1955 से 1960 तक स्टाकहोम स्थित स्वीडेन के एटामिक एनर्जी स्टेब्लिशमेंट में शोध कार्य किया जिसे दुनिया के अग्रणी नाभिकीय शोध संस्थानों में गिना जाता है। वैज्ञानिक शोध के सिलसिले में वह जर्मनी और कनाड़ा में भी रहे। इसी दौरान उनका मार्क्सवादी साहित्य से परिचय हुआ और जिसने उनका सर घुमा दिया- कि नाभिकीय भौतिकी पर काम चलता रहेगा लेकिन हिंदुस्तान को इंक़लाब की ज़रूरत है और मेरी ऊर्जा सबसे पहले इसी मोर्चे पर लगनी चाहिए।

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भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलुरू से जुड़े दो वैज्ञानिकों द्वारा किये गये ताज़ा अध्ययन का नतीज़ा देश के विभिन्न हिस्सों में जारी परमाणु ऊर्जा विरोधी आंदोलनों को नयी ताक़त देने का काम कर सकता है। हीरेमठ मितवचन और जयरमन श्रीनिवासन द्वारा किया गया यह साझा अध्ययन देश में सौर ऊर्जा की अपार संभावनाओं को उजागर करते हुए परमाणु ऊर्जा के पैरोकारों के इस दावे को ख़ारिज करता है कि देश को परमाणु ऊर्जा की सख़्त ज़रूरत है| लखनऊ में रह रहे बुज़ुर्ग परमाणु वैज्ञानिक डा. राजेंद्र प्रियदर्शी का भी यही मानना है। इसी कड़ी में पेश है आदियोग का यह आलेख;

सरकार बहादुर परमाणु ऊर्जा के पक्ष में हैं। इसलिए कि वे हर क़ीमत पर विकास चाहते हैं। इसके लिए अगर एटामिक लायबिलिटी बिल है तो परमाणु ऊर्जा के लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण विरोध को ‘देख लेने’ का हमलावर तेवर भी है। लेकिन लोग हैं कि सच और इंसाफ़ के मोर्चे पर डटे हुए हैं। परमाणु परियोजनाओं से प्रभावित लोग ऐसा विकास नहीं चाहते जो उन्हें अपनी ज़मीन, आजीविका, परंपरा, संस्कृति से उजाड़ दे और प्राकृतिक संसाधनों के विनाश को न्यौता दे।


इस आरपार की लड़ाई के माहौल में परमाणु ऊर्जा के विरोधियों के लिए करेंट साइंस में छपा एक अध्ययन उनका नया हथियार भी बन सकता है। याद रहे कि करेंट साइंस वैज्ञानिकों के बीच महत्वपूर्ण और विश्वसनीय शोध जर्नल के तौर पर जाना जाता है। इसके अक्टूबर अंक में सौर ऊर्जा पर फ़ोकस हीरेमठ मितवचन और जयरमन श्रीनिवासन द्वारा किये गये साझा अध्ययन की रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। दोनों वैज्ञानिक बंगलुरू स्थित लब्ध प्रतिष्ठित भारतीय विज्ञान संस्थान के प्रोफ़ेसर हैं। उनके अध्ययन के मुताबिक़ देश की ऊर्जा ज़रूरतों को केवल सौर ऊर्जा और अन्य दूसरे स्रोतों से सुविधापूर्वक पूरा किया जा सकता है।
अनुमान है कि 2070 तक देश की ऊर्जा ज़रूरत सालाना 3400 टेरावाट (एक टेरावाट 114 मेगावाट के बराबर होता है) हो चुकी होगी। इसे केवल सौर ऊर्जा के ज़रिये पूरा करने के लिए देश पूरी तरह सक्षम है। इसके लिए देश की ग़ैर ऊपजाऊ और बेकार पड़ी ज़मीन के कुल 4.1 प्रतिशत हिस्से की ज़रूरत होगी। अध्ययन आगे कहता है कि सौर ऊर्जा के अलावा अगर पूरी क्षमता के साथ अन्य दूसरे साधनों का भी उपयोग किया जाये तो ज़मीन की यह ज़रूरत एक अंक घट कर 3.1 प्रतिशत रह जायेगी। याद रहे कि इस अध्ययन में छतों पर लगाये जानेवाले सौर पैनलों को शामिल नहीं किया गया है। उसे भी शामिल किया जाये तो ज़मीन की ज़रूरत का यह प्रतिशत और भी नीचे पहुंच जायेगा।
इसी कड़ी में यह अध्ययन अपने इस नतीज़े को रेखांकित करता है कि सौर ऊर्जा का भरपूर इस्तेमाल करने में ज़मीन की उपलब्धता कोई बाधक तत्व नहीं है। दोनों वैज्ञानिकों ने कोयला, परमाणु और पानी आधारित ऊर्जा के स्रोतों के लिए इस्तेमाल हो रही ज़मीनों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर यह नतीज़ा पेश किया। इस तरह यह अध्ययन ख़ास कर परमाणु ऊर्जा के पैरोकारों के इस तर्क का क़रारा जवाब है कि देश के पास इतनी जगह नहीं कि सौर उर्जा को विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके। आम समझ भी यही है और जो सौर ऊर्जा के उपयोग को जगह खपाऊ मानती है। सच तो यह है कि सौर ऊर्जा के सुलभ भंडार की अनदेखी करते हुए मंहगे और जोखिम भरे विकल्पों की पैरवी करनेवालों ने ही इस समझ को आकार दिया है।
अध्ययन कहता है कि कोयला आधारित ऊर्जासंयंत्र आसपास की ज़मीन को बदल देते हैं। इसके अलावा उन्हें कोयला खनन के लिए भी ज़मीन चाहिए होती है। इससे लोग विस्थापित होते हैं। औसत रूप में एक बांध 31340 लोगों को विस्थापित करता है और 8748 हेक्टेयर ज़मीन को डुबो देता है। परमाणु ऊर्जा संयंत्र के लिए संयंत्र के अलावा बफ़र ज़ोन, कचरे के निर्माण और यूरेनियम खोदने के लिए भी ज़मीन चाहिए होती है। इसके मुक़ाबले सौर ऊर्जा संयंत्रों के लिए बहुत कम ज़मीन की ज़रूरत पड़ती है। उसकी ज़मीन को पशुओं की चराई जैसे कामों में भी उपयोग किया जा सकता है। जबकि ऊर्जा के उक्त तीनों स्रोतों में यह मुमकिन नहीं।
अतुल चोक्शी भी भारतीय विज्ञान संस्थान से जुड़े हुए हैं और सौर ऊर्जा के विशेषज्ञ हैं। वे इस अध्ययन के नतीज़ों से सहमत हैं। अभी हाल में उन्होंने अपना यह आंकलन पेश किया था कि अगर 42.5 करोड़ घरों की छतों पर तीन किलोवाट का सौर पैनल लगे तो इससे सालाना 1900 टेरावाट बिजली हासिल की जा सकती है और यह 2070 तक अनुमानित कुल ऊर्जा की ज़रूरत के आधे से अधिक है। शंकर शर्मा ऊर्जा नीति के विश्लेषक हैं और ‘इंटीग्रेटेड पावर पालिसी’ के लेखक हैं। कहते हैं कि छत के सौर पैनलों और सौर ऊर्जा संयंत्रों के उपयोग से हम ऊर्जा क्षेत्र की सूरत बदल सकते हैं
कुल मिला कर कहें तो यह अध्ययन एक बार फ़िर इस सच पर मोहर लगाता है कि सौर ऊर्जा पर अधिकाधिक निर्भरता की दृष्टि पर्यावरण के हित में हैं। यह कहीं से विनाशकारी नहीं है। विस्थापन की त्रासदी से भी मुक्त है। यह सस्ती, सुलभ और सहज भी है।
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