संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

झारखंड के मुख्य न्यायधीश के नाम खुला पत्र

झारखंड की बहुसंख्यक जनता, आदिवासियों और मूलवासियों को न्याय मिले; उनके हितों में बने और उनकी जमीनों की रक्षा के लिए बने कानूनों और संवैधानिक प्रावधानों की रक्षा हो। इस संधर्भ में  विस्थापन विरोधी एकता मंच एवं कोल्हान प्रमंडल, जमशेदपूर, ने झारखंड के मुख्य न्यायधीश के नाम खुला पत्र लिखा है-

माननीय,
मुख्य न्यायधीश

झारखंड

आपने सरकार से नगड़ी
भू-अधिग्रहण के सिलसिले में पूछा कि कानून का राज चलेगा या सड़क का! सवाल तो असल
में यह होना चाहिए कि जनता का राज चलेगा या कानून के नाम पर पैसे वालों और दबंगों
का राज चलेगा! हम इसलिए यह सवाल पूछ रहे हैं कि इस बात में कोई संदेह नहीं होनी चाहिए
कि इस देश में, झारखंड में जनतंत्र रहने की बात है,
और यहां जनता का राज
चलना चाहिए। नगड़ी में न सिर्फ नगड़ी की जनता जमीन देने के खिलाफ है बल्कि जनता के
विभिन्न हिस्सों का प्रतिनिधित्व करने वाले झारखंड के सभी राजनैतिक दलों ने नगड़ी
की जनता के पक्ष में बयान जारी किये हैं जिनमें सत्ताधारी दल भी शामिल हैं। सबसे
बड़े दल के नेता शिबू सोरेन ने खुद नगड़ी की जमीन जोत लेने का आह्वान दे दिया। यह
जनता की आवाज है। जनता चाहे तो कानून को बदलना होगा। क्या हाइकोर्ट जनता की आवाज
का सम्मान नहीं करती है? अगर कानून जनता के खिलाफ जाता है तो उस कानून को
अमान्य करने की जरूरत है।

यह बात हाइकोर्ट को
बताने की जरूरत इसलिए महसूस होती है कि अकसर कोर्ट आम जनता की आवाज नहीं बल्कि
पैसे वालों की आवाज सुनने की अभ्यस्त दिखती है। साथ ही हम यह भी कहेंगे कि कोर्ट
कई बार कानून की आवाज भी नहीं सुनती है। 42 साल से छोटानागपुर में सी
एन टी एक्ट को व्यवहारतः लागू नहीं किया जा रहा है। इस दौर में सी एन टी एक्ट के
संबंध में कोर्ट की नकारात्मक भूमिका रही है; न्यायालय ने सी एन टी एक्ट
और एस पी टी एक्ट के संबंध में अजब-गजब फैसले लेकर कानून के कार्यान्वयन को कमजोर
और दिग्भ्रमित करता रहा है। सी एन टी एक्ट के कार्यान्वयन में चल रही घोर धांधली
को देखते हुए भी कोर्ट लगातार चुप रही। इस सिलसिले में कोर्ट को कानून का राज लागू
कराने की जरूरत महसूस नहीं हुई। कानून का खुले आम 42 साल से हो रहा उल्लंघन
कोर्ट को दिखायी नहीं पड़ा। क्या वह उल्लंघन न्यायाधीशों को उचित लगा?
हाइकोर्ट और दूसरे
कोर्टों में पग-पग पर घोर भ्रष्टाचार व्याप्त है। हम कानून के राज की दुहाई देने
वाले न्यायाधीशों से पूछते हैं कि आप सीधे अपनी नाक के नीचे चल रही इन अवैध
गतिविधियों को रोकने के लिए क्या करते हैं जिनके चलते सुदूर इलाकों से आने वाले
गरीब लोगों को भारी तकलीफों का सामना करना पड़ता है। सी एन टी एक्ट का उल्लंघन करके
अवैध रूप से आदिवासियों, हरिजनों और अन्य पिछड़े वर्गों की जमीनों को चारों
तरफ हड़पा जाता रहा है। अगर कोई पीड़ित इसके खिलाफ मुकदमा करता है तो उसे कोर्ट से
कोर्ट जीतें हासिल करते हुए हाइकोर्ट से पार पाने में (अगर) सफलता हासिल करने में 30-40 साल तक लग जाते हैं। इस बीच हड़पी गयी जमीन कई हाथों में बिक चुकी होती है या
उस पर बड़े-बड़े भवन या कारखाने बन चुके होते हैं। मुकदमा जीतने पर भी पीड़ित को दखल
दिलाया नहीं जाता है। क्या आप कह सकते हैं कि कितने पीड़ितों को आपने दखल दिलाने
में मदद की? झारखंड में ऐसे हजारों मामले हैं। क्या उनकी आपको चिंता है? सी एन टी एक्ट को जमीन पर लागू करने में आने वाली दर्जनों मुश्किलों को दूर करने
के लिए आपने कौन-से कदम उठाये?
आदिवासियों और उनकी
जमीनों की रक्षा के लिए संविधान की 5वीं अनुसूची के तहत अनुसूचित
क्षेत्र में लागू होने वाले कई प्रावधान हैं। इन प्रावधानों को शायद ही कभी लागू
किया जाता है। क्या आपने इन प्रावधानों को लागू कराने के लिए कभी सरकार पर दबाव
डालने का कष्ट उठाया है?
इस तरह झारखंडी
रैयतों की जमीनों की रक्षा करने वाले कानूनों को निष्प्रभावी बनाया जा रहा है और
दूसरी तरफ रैयतों से जमीन छीनने के उपयोग में आने वाले कानूनों को बलपूर्वक लागू
करने का प्रयास हो रहा है। क्या इस पर 
ध्यान देने की जरूरत आपको महसूस नहीं हुई? नगड़ी वासियों का दावा है कि
उनकी जमीनों के अधिग्रहण की प्रक्रिया कभी पूरी हुई ही नहीं और इसलिए उनकी जमीन
अधिग्रहीत नहीं मानी जायेगी। चलिए, अगर वह अधिग्रहीत हो भी तो कानून में शायद ऐसा
प्रावधान है कि अधिग्रहीत जमीन का उपयोग युक्तियुक्त समय के अंदर अधिग्रहण के
प्रयोजन के लिए नहीं किया जाता है तो जमीन वापस किसानों को लौटा दी जानी चाहिए।
क्या यह उचित नहीं है?
नगड़ी की 227 एकड़ जमीन अंतिम कृषि योग्य भूमि नहीं है। लेकिन क्या पठारी झारखंड में पथरीली
टांड जमीनों की कमी है कि उसे लेने के बदले सरकार कृषि भूमि लेने के लिए जिद करे? ऐसे तो यह सरकार की ग्राम और कृषि विरोधी अर्थनीति के अनुकूल ही है। कृषि की
उपेक्षा करते हुए कृषि और ग्राम विकास से संबंधित बजट की 80 प्रतिशत राशि को सरकार वापस
भेज देती है। लेकिन विकास के बारे में चिंतित हाइकोर्ट के न्यायाधीश इस पर सवाल
क्यों नहीं करते? क्या आप ग्राम और कृषि के विकास को विकास नहीं समझते। क्या
आपके विचार से खनिजों की लूट, प्रदूषण फैलाने वाले कारखाने ही विकास हैं जिनसे
झारखंडी जनता को कोई फायदा नहीं होता है बल्कि उनके संसाधन लूट लिये जाते हैं।
उनकी जमीनें हड़प ली जाती हैं। उनको पक्की नौकरियां नहीं मिलती हैं। और हर एक
अधिगहण के साथ विस्थापन का एक नया और लंबा सिलसिला शुरू हो जाता है। ऐसी आर्थिक
नीतिया झारखंड में चलायी जाती हैं कि भारी संख्या में झारखंडी अपने गांवों से
पलायन के लिए मजबूर होते हैं। 94 प्रतिशत झारखंडी जनता गांवों में रहती है। डेढ़ सौ
साल से झारखंडी जनता का विस्थापन और पलायन भारी पैमाने पर होता गया है। क्या इसे
रोकना आपको जरूरी नहीं लगता? क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि झारखंड राज्य बनने का
मूल उद्देश्य झारखंडियों के साथ किये गये ऐतिहासिक अन्याय को दूर करना है, और इसके लिए विकास के नाम से झारखंड के संसाधनों को लूटने में देशी-विदेशी
कंपनियों की मदद करने के बदले गांवों, ग्रामीणों और कृषि के विकास
को प्राथमिकता देनी चाहिए? क्या आपने इस नीतिगत मुद्दे की ओर कभी सरकार का
ध्यान आकर्षित किया? 1894 से जो जो जमीनें अन्यायपूर्वक अधिग्रहीत हुई हैं
वह इतिहास है। लाखों एकड़ जमीन बिना पैसा दिये या नगण्य मुआवजा देकर और बिना किसी
पुनर्वास के अधिग्रहीत की गयी हैं जिसे तथ्यतः जमीन हड़पना ही कहा जा सकता हैं।
जमीन के मालिकों को उनकी जमीनों, जंगलों से वंचित किया गया,
बस इसी दम पर कि
अंग्रेजों ने 1864 में सारे जंगलों को हड़पने के लिए एक कानून बना लिया और 1894 में जमीनों को हड़पने का सरकारी हक कायम करने के लिए एक और कानून बना लिया। आज
जब लोग संघर्ष करते हैं तो अब मुआवजे पर बातें होती हैं। अब बाजार मूल्य परजमीन
लेने की बातें हो रही हैं (पहले पांच साल की एक फसल प्रति वर्ष की कीमत चुका कर
जमीन ले ली जाती थी)।
अब पहले पुनर्वास
करने की बात हो रही है। आजीवन प्रति एकड़ एक निश्चित राशि देने की बात होती है। अब
वन अधिकार अधिनियम 2006 में यह स्वीकार किया गया है कि जंगलों पर
आदिवासियों के अधिकार छीनकर उनके साथ ऐतिहासिक अन्याय किया गया है। क्या न्यायाधीश
उन सारे ऐतिहासिक अन्यायों पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझते?आज सरकार या न्यायपालिका का काम उन ऐतिहासिक अन्यायों को जारी रखना नहीं बल्कि
उनका प्रतिकार करना है। कानून जनता के लिए होना चाहिए। जन विरोधी कानून को मान्य
नहीं करना चाहिए। जाहिर है कि जब जनता अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करेगी तो
सरकार को पीछे हटना पड़ेगा। आज चलाया जा रहा तथाकथित ‘‘कानून का राज’’ (व्यवहार में इसका मतलब है डंडा का राज) जनविरोधी है, इसको चलने नहीं देना चाहिए; जनता के संसाधनों को पैसे वालों को सौंप देने के लिए किये जा रहे कानून के
प्रयोग का विरोध होगा। लाखों लोगों ने इसी के लिए कुरबानी दी है और आगे भी देंगे।
निश्चित ही हाइकोर्ट संविधान की प्रस्तावना पर ध्यान देती होगी:

हम भारत के लोग
……उसके समस्त नागरिकों को:सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा …. .सुनिश्चित
करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए      ……इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

और नगड़ी की लड़ाई संविधान
की प्रस्तावना में बताये गये इसी सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय की
लड़ाई है। अनुरोध है कि हाइकोर्ट के न्यायाधीश यह सुनिश्चित करें कि हाइकोर्ट के
दरवाजों से झारखंड की बहुसंख्यक जनता, मेहनतकश जनता, आदिवासियों और मूलवासियों को न्याय मिले; उनके हितों में बने और उनकी
जमीनों की रक्षा के लिए बने कानूनों और संवैधानिक प्रावधानों की रक्षा हो।
-विस्थापन विरोधी एकता मंच, कोल्हान प्रमंडल, जमशेदपूर
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