संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

नगड़ी के रैयतों को न्याय कौन देगा?

नगड़ी के भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन पर ग्लैडसन  डुंगडुंग कि एक रिपोर्ट :-
झारखण्ड एक विशिष्ट राज्य है, जहां 32 विभिन्न तरह के आदिवासी समुदाय निवास करते हैं, जिनकी अपनी अद्भूत संस्कृति है। उनकी संस्कृति, आजीविका एवं अस्तित्व प्राकृतिक संसाधनों – जल, जंगल और जमीन पर आधारित है। छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 में आदिवासियों की परंपरा, संस्कृति एवं रीति-रिवाज को कानून से उपर माना गया है। ऐसी स्थिति में भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के विभिन्न धाराओं का हवाला देते हुए उनकी जमीन को नहीं छिना जा सकता है। झारखण्ड सरकार, रांची के कांके प्रखण्ड स्थित नगड़ी मौजा की 227 एकड़ जमीन विकास एवं जनहित के नाम पर आदिवासियों से जबरदस्ती छिनने की कोशिश कर रही है। इस मामले में अगला निर्णय लेने से पहले कुछ पहलूओं पर विचार की जरूरत है।

1. विशेष क्षेत्र के लिए विशेष कानून:
भारत देश में दो तरह के कानून बनते रहे हैं – सामान्य कानून एवं विशेष क्षेत्र, समुदाय व परिस्थिति के अनुरूप विशेष कानून। लेकिन हमेशा देखा गया है कि विशेष कानूनों के रहते हुए भी केन्द्र एवं राज्य सरकारें अपनी जरूरतों के हिसाब से सामान्य कानूनों को लागू करने में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं और विशेष कानूनों को दरकिनार कर दिया जाता है जो सरासर गलत है। देश का कोई भी सामान्य कानून (जेनेरल लॉ) विशेष कानून (स्पेशल लॉ) को अभिभावी (ओवरराइड) नहीं कर सकता है। 5 जनवरी, 2005 को सुप्रीम कोर्ट ने ‘‘इरिडियम इंडिया टेलिकॉम लिमिडेट बनाम मोटोरोला’’ के मामले में फैसला सुनाते हुए कहा कि जब भी समान्य कानून एवं विशेष कानून के बीच विवाद हो तब विशेष कानून ही हमेशा लागू होगा। झारखण्ड में देखा जाये तो छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट 1908 एक विशेष कानून है, जिसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 31-बी तथा नौवीं अनुसूची की मान्यता प्राप्त है। इसलिए इस कानून के सभी प्रावधान संवैधानिक हैं एवं देश का कोई भी सामान्य कानून इसे अभिभावी (ओवरराइड) नहीं कर सकता है।
भूमि अधिग्रहण कानून 1894 एक सामान्य कानून है जो पूरे देश में लागू है वहीं सी.एन.टी. एक्ट विशेष कानून है जो संपूर्ण छोटानागपुर में लागू है एवं नगड़ी मौजा इसी क्षेत्र में आता है। इसलिए झारखण्ड सरकार नगड़ी के रैयतों की जमीन को सी.एन.टी. एक्ट की धारा-50 के तहत ही अधिग्रहण कर सकती है। राज्य सरकार द्वारा नगड़ी गांव की 227 एकड़ जमीन को भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के तहत 1957-58 में अधिग्रहण करने का दावा न सिर्फ गैर-कानूनी है एवं बल्कि असंवैधानिक भी। झारखण्ड के छोटानागपुर क्षेत्र में विकास कार्यों के लिए भूमि का अधिग्रहण सी.एन.टी. एक्ट की धारा – 50 के तहत ही किया जाना है तथा भूमि अधिग्रहण कानून 1894 सिर्फ मुआवजा एवं अदालती कार्रवाई में उपयोग किया जा सकेगा। सी.एन.टी. एक्ट की धारा – 50 (2) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भूमि अधिग्रहण कानून 1894 सिर्फ मुआवजा देने के लिए उपयोग किया जा सकेगा तथा मुआवजा नहीं स्वीकार करने वाले रैयत सी.एन.टी. एक्ट की धारा – 50 (6) के तहत न्यायालय जा सकते हैं, जिसमें कानूनी प्रक्रिया भूमि अधिग्रहण कानून 1894 भाग-दो के तहत होगा। ऐसी परिस्थिति में झारखण्ड के छोटानागपुर प्रमंडल में अबतक सरकार द्वारा विकास कार्यों के लिए भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के तहत किया गया जमीन का अधिग्रहण अवैध एवं असंवैधानिक है।
2. अत्यावश्यकता (अर्जेंसी) की स्थिति में अधिग्रहण:
राज्य सरकार ने नगड़ी के रैयतों की जमीन का अधिग्रहण करते समय भी रैयतों के साथ धोखा किया। सरकार यह दावा करती है कि नगड़ी गांव की 227 एकड़ जमीन का अधिग्रहण ‘भूमि अधिग्रहण कानून 1894’ की धारा – 17 (4) के तहत वर्ष 1957-58 में राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय जो अब बिरसा कृषि विश्व विद्यालय के नाम से जाना जाता है के विस्तार एवं सीड बैंक बनाने के उद्देश्य से किया गया। अंग्रेजों ने भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की धारा – 17 (4) को अपातकाल की स्थिति से निपटने के उद्देश्य से बनाया था। इस धारा के तहत सरकार ‘अत्यावश्यकता (अर्जेंसी)’ बताकर किसी भी जमीन का अधिग्रहण कर सकती है, जिसमें भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की धारा – 5 (2) लागू नहीं होता है, जिसके तहत जनसुनवाई की व्यवस्था है। यहां सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि अगर नगड़ी की जमीन को ‘अत्यावश्यकता (अर्जेंसी)’ की स्थिति में अधिग्रहित किया गया था तो पिछले 60 वर्षो तक इसका उपयोग क्यों नहीं किया गया? क्या विश्वविद्यालय का विस्तार एवं सीड बैंक का निर्माण ‘अत्यावश्यकता (अर्जेंसी)’ के दायरे में आता है? एवं क्या सरकार रैयतों को प्रारंभ में ही धोखा देने का काम नहीं किया?
सुप्रीम कोर्ट ने स्पेशल लीव पीटिशन (सिविल) सं. 8939 वर्ष 2010 देव शरण एवं अन्य बनाम स्टेट ऑफ यूपी एवं अन्य मामले में कहा कि राज्य सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण में देरी इस बात को दर्शाता है कि जमीन अधिग्रहण में कोई ‘‘अत्यावश्यकता (अर्जेंसी)’’ नहीं था। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि भूमि अधिग्रहण कानून 1894 संविधान लागू होने से पहले का कानून है, जो प्रातंत्रता का संचय करता है एवं कठोर कानून है जो लोगों के सम्पति के अधिकार को प्रभावित करता है। सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक कहा कि ‘‘जनहित’’ को लोक कल्याणकारी राज्य की दृष्टि से देखा जाना चाहिए न कि इसको ज्यों का त्यों रखा जाना चाहिए। इस मामले में उत्तर प्रदेश की सरकार ने शहजहंपुर जिले के पूवायन तहसील अन्तर्गत मोछा ग्राम की 63.93 एकड़ कृषि भूमि को जिला जेल बनाने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की धारा – 17 (4) के तहत ‘अत्यावश्यकता (अर्जेंसी)’ दिखाकर बिना जनसुनवाई किये भूमि का अधिग्रहण किया था। सरकार की दलील थी कि शहजहांपुर के जेल में 511 के जगह पर 1869 कैदी रह रहे है एवं यह जेल भीड़भाड़ इलाके में है इसलिए इसे शहर से दूर स्थापित किया जाना चाहिए। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सरकार के दलील को सही ठहराते हुए रैयतों की याचिका को खारिज कर दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण कानून 1894 का दुरूपयोग को सही पाते हुए रैयतों के पक्ष को सही ठहराया, जिसमें रैयतों ने सरकार पर भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की धारा – 17 (4) का दुरूपयोग करते हुए उनकी कृषि भूमि का गैर-कानूनी तरीके से अधिग्रहण करने का आरोप लगाया था। 
3. अधिग्रहित भूमि की वापसी
झारखण्ड के छोटानागपुर क्षेत्र के लिए विशेष कानून होने के बावजूद सरकार नगड़ी की जमीन को भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के तहत अधिग्रहीत मानती है वहीं इसी कानून की धारा – 48 में यह व्यवस्था रखा गया है कि जमीन का उपयोग नहीं होने कि स्थिति में जमीन मूल रैयतों को लौटा देना चाहिए। राज्य सरकार नगड़ी मौजा की जमीन का उपयोग पिछले 60 वर्षें तक नहीं कर सकी इसका मतलब इस जमीन पर मूल रैयतों का ही हक बनता है। इसी तरह जब नगड़ी मौजा की जमीन का अधिग्रहण माना गया उस समय यह क्षेत्र बिहार में आता था। ऐसी स्थिति में इस जमीन पर बिहार भूमि सुधार कानून 1950 लागू होता है। इस कानून में कहा गया है कि सरकार द्वारा 1972 से पहले अधिग्रहीत जमीन का उपयोग नहीं होने पर अधिग्रहित जमीन मूल रैयतों का होगा। सरकार नगड़ी मौजा की जमीन को 1957-58 में अधिग्रहण करने के बावजूद 2011 तक इसका उपयोग नहीं कर सकी थी, इसलिए इस कानून के तहत यह जमीन रैयतों का है।
4. अधिग्रहीत भूमि का दूसरे उद्देश्य में उपयोग गैर-कानूनी:
सरकार यह मानती है कि नगड़ी मौजा की भूमि का अधिग्रहण 1957-58 में राजेन्द्र (बिरसा) कृषि विश्वविद्यालय का विस्तार एवं सीड बैंक बनाने के उद्देश्य से किया था। लेकिन वर्तमान में इस जमीन का उपयोग रिंग रोड़ एवं शैक्षिक संस्थानों के निर्माण के लिए किया जा रहा है, जो भूमि अधिग्रहण के मूल उद्देश्यों के खिलाफ है। भूमि अधिग्रहण ऑडिनेंश 1967 के अनुसार अधिग्रहित जमीन का उपयोग दूसरे उद्देश्य के लिए नहीं किया जा सकता है। एच.ई.सी., रांची के मामले में रांची के उपायुक्त श्री सुधीर प्रसाद ने पत्रांक 22113/डी0सी0 दिनांक 18/11/1991 द्वारा भूमि सुधार आयुक्त, पटना को पत्र लिखा कर कहा कि एच.ई.सी. ने गैर-कानूनी तरीके से 300 एकड़ अधिग्रहित जमीन दूसरे संस्थानों को बेच दिया है, जो एम.ओ.यू. का उल्लंघन है इसलिए एच.ई.सी. के खिलाफ कार्रवाई किया जाना चाहिए। यह अलग बात है कि अबतक एच.ई.सी. प्राबंधन के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं किया गया है, जबकि एच.ई.सी. ने अबतक लगभग 500 एकड़ जमीन 35 निजी संस्थानों को उनसे भारी रकम लेकर लीज पर बेच दिया है।
4. मुआवजा का खेल में धोखा:
जब राज्य सरकार 2008 में रिंग रोड का निर्माण कर रही थी उसी समय पहली बार नगड़ी मौजा का मामला सामने आया। राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानते हुए ग्रामीणों, रिंग रोड के निर्माण के लिए 13.10 एकड़ जमीन देने को तैयार हो गये लेकिन सरकार ने ग्रामीणों को मुआवजा देने से इंकार कर दिया। इस पर रैयतों ने झारखण्ड उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। रैयतों ने 2009 में रिंग रोड की 13.10 एकड़ जमीन को लेकर मुआवजा की मांग की लेकिन झारखण्ड उच्च न्यायालय ने उसी समय 227 एकड़ को जोड़कर 15 प्रतिशत इंट्रेस्ट देने की बात कही गयी। यहां भी कानून की आवहेलना की गई। भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की धारा – 34 के तहत ट्रेजरी में रखे गये मुआवजा में प्रतिवर्ष 9 प्रतिशत इंटरेस्ट देना है लेकिन माननीय उच्च न्यायलय ने भी इस प्रावधान को नजरांदाज कर दिया एवं सरकार को सिर्फ 15 प्रतिशत ब्याज देने को कहा। इस तरह से 227 एकड़ जमीन की कीमत मात्र 1.5 लाख रूपये लगाया गया। झारखण्ड सरकार अभी भी नगड़ी मौजा का 227 एकड़ जमीन, जिसका वर्तमान बाजार भाव लगभग 341 करोड़ रूपये है, जिससे सरकारी निबंधन दर पर लेना चाहती है। सरकार का यह कदम रैयतों के जले में नमक छिड़कने जैसा ही है क्योंकि ये लोग पिछले कई महिनों से आंदोलन कर रहे है। रैयत अपनी जमीन पर 150 दिनों तक शांतिपूर्ण तरीके से दिन एवं रात धरना दिये तथा लू लगने से तीन महिलाओं की मौत हो चुकी है। अब वे अपनी जमीन वापस चाहते हैं।     
5. पांचवीं अनुसूची क्षेत्र:
झारखण्ड राज्य संविधान के पांचवीं अनुसूची के तहत आता है जहां की शासन व्यवस्था का संचालन करने के लिए संवैधानिक रूप से ‘‘ट्राईब एडवाईजरी काउंसिल’’ को सर्वोपरि माना गया है। इस काउंसिल का मुख्य कार्य है कि ऐसे सभी मामलों में जो राज्य में आदिवासियों के कल्याण एवं विकास से संबंधित हों राज्यपाल को समय-समय पर सलाह दें। आदिवासी सलाहकार परिषद् से विचार-विमर्श के बगैर, राज्यपाल को किसी भी प्रकार का कानून चलाने का अधिकार नहीं है। संविधान में आदिवासी सलाहकार परिषद् का कार्य व्यापक है। इसमें कानूनी प्रक्रियाओं के अलावे, नीति-निर्धारण, विकास योजनाओं का पर्यवेक्षण तथा आदिवासी इलाकों में प्रभावी शासन चलाने के लिए भी जिम्मेदारी दी गई है। इसका अर्थ यह है कि कोई भी विकास कार्य को संचालित करने एवं इसके लिए जमीन अधिग्रहण करने से पहले ‘‘ट्राईब एडवाईजरी काउंसिल’’ का प्रमार्श अतिआवश्यक है। नगड़ी मामले में सरकार ने काउंसिल से कोई वार्ता नहीं किया। इसी तरह काउंसिल को बाईपास करते हुए झारखण्ड में 100 से ज्यादा एम0ओ0यू0 पर हस्ताक्षर किया गया है।
अनुसूचित क्षेत्र से संबंधित राज्य के राज्यपाल को कानून संबंधि कई अधिकार एवं शक्तियां प्रदान की गई है। जिसमें राज्यपाल यह निर्णय लेने के लिए जिम्मेदार है कि संसद या विधान मण्डल द्वारा निर्मित कानून अनुसूचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है या नहीं। वे जन-अधिसूचना द्वारा यह निर्देश जारी कर सकते हैं कि संसद या विधान  मण्डल द्वारा पारित कोई कानून अनुसूचित क्षेत्र या इसके किसी भाग में लागू नहीं होगा या कुछ संशोधनों या अपवादांे के साथ लागू होगा। अर्थात् राज्यपाल कानून पर रोक या संशोधन कर सकते हैं जो इस क्षेत्र विशेष के लिए उपयुक्त न हों। उन्हें इस मामले में अधिसूचना जारी करने के लिए आदिवासी सलाहकार परिषद् अथवा राष्ट्रपति से परामर्श लेने की भी जरूरत नहीं है। साथ ही राज्यपाल किसी राज्य में किसी ऐसे क्षेत्र की शांति और सुशासन व्यवस्था बहाल करने के लिए नियम बनाने को अधिकृत हैं। यह अधिकार मूलतः जमीन के मामलों से जुड़े आदिवासियों के अधिकारों एवं हितों की सुरक्षा तथा साहूकारों के द्वारा किये जाने वाले शोषण से संबंधित है। बावजूद इसके नगड़ी मामले में राज्यपाल चुपी साधे हुए हैं। नगड़ी मामले में राज्यपाल चाहे तो एक जन-सूचना द्वारा इसका हल निकाल सकते हैं एवं भूमि अधिग्रहण कानून 1894 को निरस्त कर सकते हैं।
6. कृषि भूमि एवं बंजर भूमि का खेलः
झारखण्ड सरकार अपनी कृषि नीति में कृषि योग्य भूमि का गैर-कृषि कार्यों में उपयोग करने के खिलाफ है। लेकिन हकीकत में अपनी कृषि नीति के खिलाफ कृषि भूमि का उपयोग गैर-कृषि कार्यों के लिए कर रही है। नगड़ी की कृषि भूमि पर शिक्षण संस्थान खोलना कृषि नीति का उल्लंघन है। वहीं दूसरी ओर सरकार बंजर भूमि को कृषि योग्य भूमि बनाने के लिए करोड़ों रूपये खर्च करती है। क्या यह आम जनता के पैसा का दुरूपयोग नहीं है? विकास कार्यों के लिए बंजर जमीन का उपयोग क्यों नहीं किया जाता है? छोटे किसानों के लिए कृषि ही खाद्य सुरक्षा की गारंटी देता है। खेत चला जायेगा तो लोग कहां से खाना खायेंगे? राज्य की बढ़ती जनसंख्या को अनाज उपलब्ध कराने के लिए कौन चिंता करेगा? कृषि योग्य भूमि को गैर-कृषि कार्यों में लगायेंगे तो अनाज कहां से पैदा होगा? क्या विदेशों से अनाज खरीद कर अनाज की कमी को पूरा किया जायेगा? बढ़ती मंहगाई के जमाने में क्या गरीब किसान विेदेशों से आयात किये गये अनाज को खरीदकर अपनी आजीविका चला पायेंगे?
7. जमीन का न्यायपूर्ण उपयोग
जमीन का न्यायपूर्ण उपयोग के बारे में सोचने की जरूरत है। क्योंकि जमीन एक सीमित संसाधन है और लोगों की जरूरत समय के अनुसार बढ़ती ही जायेगी। राज्य सरकार जो भी कंपनी विकास के नाम पर जितनी जमीन और पानी मांगी है उतनी उन्हें देने के लिए एम0ओ0यू0 करती है। लेकिन सरकार यह जानने की कभी कोशिश नहीं करती है कि क्या अमुख कंपनी को उतनी जमीन चाहिए? उदाहरण के लिए मित्तल कंपनी को एक इंटिग्रेटेड स्टील प्लांट के लिए 25 हजार एकड़ जमीन देने के लिए सरकार ने एम.ओ.यू. किया। सवाल यह है कि क्या एक इंटिग्रेटेड स्टील प्लांट के लिए इतनी जमीन की जरूरत है? क्या झाखण्ड सरकार राज्य का विकास चाहती है या मित्तल जैसे कंपनियों का सम्राज्य स्थापित करना चाहती है? झारखण्ड का इतिहास बताता है कि अधिग्रहित जमीन का उपयोग नहीं किया जा सका है। एच.ई.सी., रांची ने 7187 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया लेकिन सिर्फ 3,885 एकड़ का ही उपयोग कर पाया। इसी तरह बी.एस.एल., बोकारो ने 33,346 जमीन का अधिग्रहण किया, जिसमें मात्र 19,187 एकड़ का उपयोग हुआ। इससे स्पष्ट है कि विकास परियोजनाओं के लिए जरूरत से ज्यादा जमीन का अधिग्रहण किया जाता है एवं बाद में अधिग्रहीत जमीन का गैर-उद्देश्य कार्यो में लगाया जाता है।
8. सरकार की भूमिका संदेहजनक: 
नगड़ी मामले में राज्य सरकार की भूमिका काफी संदेहजनक लगती है। राज्य सरकार ने न्यायालय को बार-बार गुमराह किया। के.स. 2347/2012 ऑर्डर न0 – 3 में कहा गया है कि महाधिवक्ता ने झारखण्ड उच्च न्यायालय को बताया कि नगड़ी की जमीन खेती योग्य नहीं है और वहां खेती नहीं होती थी। क्या सरकार यह बता सकती है कि अगर नगड़ी गांव में खेती नहीं होती है तो क्या नगड़ी के लोग पिछले 60 वर्षों तक मिट्टी खा कर जिन्दा थे? सरकार ने पहले न्यायालय के आदेश का हवाला देते हुए बंदूक के बल पर ग्रामीणों की जमीन छिनने की पूरी कोशिश की। लेकिन भयानक जनाक्रोश के बाद झारखण्ड उच्च न्यायालय ने ऑर्डर न0 – 4 के तहत सरकार को इस मामले का हल ढ़ूढ़ने को कहा लेकिन सरकार ने अबतक कुछ ठोस कदम नहीं उठाया सिर्फ दिखाने के लिए उच्च स्तरीय कमेटी का गठन किया। उच्च स्तरीय कमेटी के अध्यक्ष मथुरा महतो बार-बार कहते हैं कि नगड़ीवासियों के साथ अन्याय हुआ और रिर्पोट कुछ और लिखते हैं। तीन बैठकों के बाद वे समिति के रिर्पोट के माध्यम से कहते हैं कि 85 प्रतिशत लोग जमीन देना चाहते हैं, जबकि रैयतों ने इन बैठकों में सरकार से जमीन वापस देने की मांग की है। सरकार ने उच्च न्यायालय को रिर्पोट नहीं दिया ताकि न्यायालय स्वंय निर्णय ले उसके बाद सरकार कहेगी कि उच्च न्यायालय का फैसला हैै इसलिए हम लागू कर रहे हैं। राज्य सरकार आदिवासियों के हितों की रक्षा हेतु बने कानून को लागू नहीं करती है लेकिन उनके जमीन, जंगल और संसाधनों को लूटने वाले कानूनों को लागू करती है। जमीन लूटने का सारा खेल पूंजीपतियों के इशारे पर किया जा रहा है।
9. न्यायपालिका पर सवाल:
नगड़ी मामले में न्यायपालिका पर भी सवाल उठ गया है। वह इसलिए क्योंकि यह मामला कोंफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट का बन गया है। ‘‘बार एसोसिएशन’’ (झारखण्ड उच्च न्यायालय, रांची) ने 3 मई 2012 को झारखण्ड उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर किया, जिसपर सुनवाई करते हुए न्यायालय राज्य सरकार को कई आदेश दिये। इसमें सबसे बड़ा सवाल यह है कि नेशनल लॉ यूनिवसिटि के बदले बार एसोसिएशन ने मामला क्यों दर्ज किया? क्या नेशनल लॉ यूनिवसिटि मामला दर्ज कराने में अक्षम था या कानूनी बध्यताएं थी? नेशनल यूनिवर्सिटि फॉर रिसर्च एण्ड स्टडीज ऑन लॉ, रांची एक्ट 2010 में स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है कि लॉ यूनिवर्सिटि का कुलपति झारखण्ड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश होंगे। इसका अर्थ यह हुआ की जो भी न्यायाधीश झारखण्ड उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश होगें वे स्वतः ही लॉ यूनिवर्सिटी के कुलपति भी होंगे। जब लॉ यूनिवर्सिटी का उदघाटन 2010 में किया गया था तब उस समय झारखण्ड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ज्ञानसुधा मिश्र थी और वे लॉ यूनिवर्सिटी की पहली कुलपति बनी थी। उनके जाने के बाद न्यायाधीश भगवती प्रसाद ने उनका जगह लिया। वे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और लॉ यूनिवर्सिटी के कुलपति भी बने। 
वर्तमान में झारखण्ड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश प्रकाश टाटिया हैं, जो नगड़ी मामले की भी सुनवाई कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में अगर लॉ यूनिवर्सिटी इस मामले में सीधे मुकदमा करता तो वे सुनवाई नहीं कर सकते थे क्योंकि वे सीधे तौर पर सवालों के घेरे में आ जाते इसलिए लॉ यूनिवर्सिटि ने मामले को स्वंय न उठाकर इसे बार एसोसिएशन के हवाले कर दिया गया। चाहे कुछ भी हो झारखण्ड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और लॉ यूनिवर्सिटी के कुलपति प्रकाश टाटिया अपनी रणनीति में अबतक सफल रहे और इस मामले की सुनवाई करते रहे है। इसमें सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या उन्हें इस मामले में सुनवाई करने का कानूनी एवं नैतिक अधिकार होना चाहिए? क्योंकि बार एसोसिएशन का मामला लॉ यूनिवर्सिटी के जमीन से संबंधित है और वे यूनिवर्सिटी के कुलपति हैं। क्या यह ‘हित के टकराव’ (कॉनफ्लिक्ट ऑफ इंट्रेस्ट’) का मामला नहीं है?
नगड़ी के मामले में माननीय उच्च न्यायालय ने अबतक कई आदेश जारी किया हैै, जिसका अध्ययन करने से स्पष्ट दिखता है कि माननीय उच्च न्यायालय दोहरा मापदण्ड अपना रही है। उदाहरण के रूप में माननीय उच्च न्यायालय कहती है कि पिछले 50 वर्षों का रेवेन्यू रेकॉर्ड एवं जमीन पर कब्जा होने के बावजूद रैयत जमीन पर अधिकार नहीं जता सकते हैं। लेकिन वही न्यायालय यह भी कहती है कि लॉ यूनिवर्सिटी के पास उपलब्ध पिछले 6 महिने का रेवेन्यू रिकॉर्ड जमीन पर अपना अधिकार जताने के लिए पर्याप्त है। यह कैसा न्याय है?  माननीय न्यायालय को संस्थानों के बारे में चिंता है लेकिन लोगों के आजीविका के बारे में नहीं जो उनका मौलिक अधिकार हैं। माननीय न्यायालय सरकार से यह भी सवाल पूछती है कि खेती योग्य जमीन केवल नगड़ी में है? इस जमीन में कितना उपज होता है? सरकार यह बताये कि क्या यहां कानून का राज चलेगा या सड़क पर फैसले होंगे, इत्यादि? माननीय न्यायालय भूमि अधिग्रहण काननू 1894 का व्याख्या करने से भी नहीं थकती है लेकिन उसे यहां का विशेष कानून छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट, पांचवीं अनुसूची के प्रावधान एवं पेसा कानून इत्यादि के बारे में कोई चिंता नहीं है। इसी तरह माननीय न्यायालय को बाहरी बच्चों की चिंता है पर नगड़ी के बच्चों के बारे में नहीं। क्यो?
10. अभिव्यक्ति की आजादी का हनन
नगड़ी के मामले में झारखण्ड सरकार ने बार-बार कहा है कि नगड़ी के रैयत सरकार को जमीन देने के लिए तैयार हैं लेकिन बाहरी लोग ग्रामीणों को भड़का रहे हैं। सरकार के महाधिवक्ता ने 6 अगस्त 2012 को माननीय उच्च न्यायाल को कहा कि नगड़ी मामले में जब भी सरकार ग्रामीणों के साथ वार्ता के लिए जाती है, बाहरी लोग जिसमें दयामनी बारला, ग्लैडसन डुंगडंुग एवं रतन तिर्की पहुंच जाते है एवं ग्रामीणों को भड़काते हैं। इसी तरह माननीय उच्च न्यायालय ने भी अपने आदेशों में विस्तार से कहा है कि बाहरी लोग 1957-58 में भी रैयतों को भड़काये और अब भी भड़का रहे हैं। यह समझना कठिन है कि सम्मनित न्यायाधीशों को यह भी पता है कि 1957-58 में भी बाहरी लोगों ने ग्रामीणों को भड़काया। भारतीय संविधान अनुच्छेद – 19 देश के सभी व्यक्तियों को अभिव्यक्ति की आजादी देता है। इसलिए कोई भी व्यक्ति अगर दूसरे व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है तो उसके खिलाफ आवाज उठा सकता है। झारखण्ड सरकार एवं माननीय उच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति के आजादी पर भी गंभीर हस्तक्षेप करने की कोशिश की है, जो असंवैधानिक है। यह अभिव्यक्ति की आजादी का घोर उल्लंघन है और अगर अभिव्यक्ति की आजादी खत्म हो गई तो कोई भी अधिकार लेना संभव नहीं होगा।  – ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और नगड़ी आंदोलन से जुड़े हुए हैं।
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