संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

आदिवासी लडेंगे, पीछे नहीं हटेंगे

जंगसाय कोया गोंड आदिवासी हैं और सरगुजा के निवासी हैं। वे दसवीं के छात्र थे जब 2000 में अलग राज्य बना और ज़मीनों के अधिग्रहण ने रफ़्तार पकड़ी। इसी गहमागहमी के माहौल में वे भारत जन आंदोलन के संपर्क में आये। प्रो. बीडी शर्मा के विचार, व्यक्तित्व और जुझारूपन से इस क़दर प्रभावित हुए कि पढ़ाई छोड़ कर भारत जन आंदोलन के कार्यकर्ता के बतौर विभिन्न इलाक़ों में विकसित हो रहे जन संघर्षों के हमराही हो गये। अब वे 28 साल के नौजवान हैं और जन आंदोलनों के बीच अनजाना नाम नहीं हैं। पेश है उनकी सीधी बात;  
12 साल पहले जब छत्तीसगढ़ अलग राज्य बना तो यह सपना जागा कि अब यहां के मूलवासियों के लिए विकास का दरवाज़ा खुलेगा। उनकी धरती पर उन्हीं का राज होगा। लेकिन यह सुहाना सपना चकनाचूर हो गया, छत्तीसगढ़ बाहर से आये लुटेरों का अड्डा हो गया। बिजली, इस्पात और सीमेंट बनाने के लिए, लोहा-कोयला जैसे क़ुदरत के ख़ज़ाने को खोदने के लिए और तरह-तरह के दूसरे उद्योग खड़ा करने के लिए ज़मीनों के अधिग्रहण की झड़ी लग गयी।

छत्तीसगढ़ के राज्योत्सव के बहाने आयोजित किये गये संघर्ष संवाद के इस आठ दिवसीय अभियान में किसी आदिवासी की यह इकलौती टिप्पणी है।

इसकी शुरूआत बस्तर के हीरानगर और नगरनार से हुई। गांववाले जानते थे कि यहां उद्योग आया तो उनकी ज़िंदगी तबाह हो जायेगी। इसलिए वे अपनी ज़मीन छोड़ने को एकदम तैयार नहीं थे। नगरनार में तो तब की जिला कलेक्टर ने सबके सामने ग्राम सभा के उस प्रस्ताव को फाड़ दिया था जिसमें गांववालों ने उद्योग लगाये जाने की योजना को अपनी नामंज़ूरी दी थी। इससे पता चलता है कि सरकार और प्रशासन ने मन बना किया था कि वे उद्योगपतियों के भले के लिए काम करेंगे, छत्तीसगढ़ के मूलवासियों के भले के लिए नहीं। सदियों से छत्तीसगढ़ की धरती पर रह रहे लोगों को उद्योगों ने उजाड़ने और उनकी आजीविका छीनने का काम किया है। पिछले 12 सालों से यही तो हो रहा है।


बढ़ते उद्योगों से आदिवासी समाज का जीवन तबाह हो गया। विरोध करने के अधिकार पर पाबंदी लग गयी। आदिवासी संगठनों की छानबीन होने लगी। हालत यह है कि जो न्याय और अधिकार की बात करे, उसे माओवादी बता कर ढेर कर देने या फ़र्ज़ी मामला बना कर जेल में ठूंस देने की धमकी मिलती है। अभी पिछले अक्टूबर महीने में ही सूरजपुर जिले के प्रतापपुर ब्लाक में 15 आदिवासियों के ख़िलाफ़ झूठा मुक़दमा दर्ज़ हुआ। हुआ यह था कि किसी आदिवासी ने किसी ग़ैर आदिवासी पर तरस खा कर उसके मवेशियों को रखने की जगह दी थी। एक साल पहले उस ग़ैर आदिवासी ने आसपास की आसपास की ज़मीन पर कब्ज़ा जमा लिया और उस पर खेती शुरू कर दी। आदिवासी भोले होते हैं, सबको अपने जैसा समझते हैं, सब पर आसानी से भरोसा कर लेते हैं और इसलिए आसानी से किसी के भी झांसे में आ जाते हैं। तो इस मामले को लेकर दोनों के बीच तनातनी हो गयी।     

हमेशा की तरह इस मामले में भी पुलिस ने ग़ैर आदिवासी का ही साथ दिया, झूठ और अन्याय का पक्ष लिया। पीड़ित आदिवासी को दबाने के लिए साज़िश रची गयी और उसके तहत उस ग़ैर आदिवासी ने ख़ुद अपनी झोपड़ी में आग लगा दी। अब पुलिस खुल कर उसके पक्ष में खड़ी हो गयी और उसने 15 आदिवासियों के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज़ कर लिया। दो आदिवासी पुलिस के हत्थे चढ़े, बाक़ी 13 गिरफ़्तारी से बचने के लिए फ़रार हो गये। हमने इस मामले में पुलिस से पूछताछ करनी चाही और असली बात बतानी चाही तो उल्टे सवाल हुआ- नेतागिरी करते हो? धमकी दी कि ज़्यादा बोलोगे तो माओवादी बता कर जेल पहुंचा दिये जाओगे और वहीं सड़ोगे। यहां जो बोलता है, माओवादी बता दिया जाता है।

दूसरा उदाहरण देखिये। सरगुजा में पैर जमानेवाली पहली बड़ी कंपनी एसीसीएल है। पूरे देश में कोयला आबंटन में हुई धांधली को लेकर हंगामा मचा। सबसे बड़ा घोटाला सरगुजा संभाग में चल रही उसकी कोयला खदानों से हुआ। तीन साल पहले हमने बलरामपुर (सरगुजा से काट कर बनाया गया नया जिला) के राजपुर ब्लाक की नयी खदान को लेकर सवाल पूछा कि भई, गांव सभा ने तो इसकी मंज़ूरी दी नहीं तो किस नियम से खदान का काम शुरू कर दिया गया। इस गुंडई के ख़िलाफ़ हमने आंदोलन किया और खदान का काम रूकवा दिया।

इसके बदले में कंपनी ने हमें मुक़दमेबाजी में उलझा दिया कि हमारे कारण कंपनी को बहुत नुक़सान हुआ है और इसके लिए आंदोलन करनेवालों से 37-37 लाख रूपये वसूले जायें। यह मुक़दमा तीन साल से चल रहा है और हम कोर्ट-कचहरी में उलझे हुए हैं। लेकिन हम चुप नहीं बैठ सकते, पीछे नहीं हट सकते। अगली नौ नवंबर को हम दोबारा कोयला खदान बंद करवाने के अभियान पर निकलेंगे।  

प्रचार किया जा रहा है कि आदिवासी अपने विकास के बारे में कुछ नहीं सोच सकते, कुछ नहीं कर सकते। उन्हें शराबी बताया जाता है। आदिवासियों के बारे में सरकार-प्रशासन की इतनी गिरी हुई सोच है। दूसरी ओर जाति और निवास प्रमाण पत्र पाने के लिए आदिवासियों को यहां से वहां बस दौड़ते रहना होता है। ग़ैर आदिवासी हमारी बहन-बेटियों पर बुरी निगाह रखते हैं। सरगुजा संभाग और जशपुर से आयेदिन लड़कियां ग़ायब हो जाती हैं और सरकार उन्हें बचाने की कोई सुध नहीं लेती? उसे तो केवल उद्योगों की चिंता सताती है। यह कहां का न्याय है?

तो पूरी सरकार और उसका पुलिस-प्रशासन आदिवासियों के ख़िलाफ़ खड़ा हुआ है। आदिवासियों के जल, जंगल, ज़मीन पर सरकार कब्ज़े कर रही है और उसे उद्योगों को सौंप रही है। यहां वन अधिकार और पेसा क़ानून का कोई मतलब नहीं रह गया है। सरगुजा संभाग में 13 पावर प्लांट लगाये जाने की तैयारी हो रही है। इससे सैकड़ों आदिवासी बर्बाद होंगे। सैकड़ों आदिवासी अपनी ज़मीन से हाथ धो चुके हैं। यह अत्याचार रूकने का नाम ही नहीं ले रहा। तो लड़ना आज की ज़रूरत है। हम शांति से रहना चाहते हैं लेकिन ये सरकार ही है जो हमें लड़ने को मजबूर करती है। 

(जंगसाय कोया के साथ हुई बातचीत के आधार पर आदियोग की पेशकश)

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