संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

विकास का नहीं, विनाश का राज्योत्सव

शहीद शंकर गुहा नियोगी संघर्ष और निर्माण के महान रचनाकार थे। उन्होंने ‘नवा भारत बर नवा छत्तीसगढ़’ का सूत्र वाक्य गढ़ते हुए यह नारा दिया था कि ‘हम बनाबो नवा पहिचान, राज करही मजदूर किसान।‘ मेहनतकश जनता पर जारी जोर-जुलुम के इस बर्बर और वीभत्स दौर में यह नारा आज भी बेहतरी की चाहत रखनेवालों के लिए प्रकाश स्तंभ सरीखा है। भिलाई में 28 अगस्त 1991 को आयोजित जन सभा में उन्होंने अपना अंतिम भाषण दिया था जिसके एक साल बाद 28 सितंबर 1992 को उद्योगपतियों के इशारे पर उनकी हत्या हो गयी। उस जन सभा में मशहूर शिक्षाविद और जन आंदोलनों के अग्रणी साथी अनिल सदगोपाल भी मौजूद थे। नियोगी जी के भाषण से प्रभावित होकर उन्होंने चार कविताएं लिखीं थीं। उनमें से दो कविताएं हम यहां पेश कर रहे हैं;

(एक) 

यह दुनिया बहुत सुंदर है
यह मैं जानता हूं। इस दुनिया में शोषण ख़त्म हो यह मैं चाहता हूं।
एक दिन दुनिया की हर कली खिल उठेगी यह मैं मानता हूं।
दुनिया का ऐसा नक़्शा अपने आप नहीं बनने वाला है
मेरे चाहने से सब कुछ नहीं होनेवाला है।
इसकी सुंदरता की ख़ातिर हमको क़ुर्बानी देनी होगी। मौत के सामने हंसना सीखना होगा।
जेल की सलाखों को हाथों की गर्मी से गलाना होगा।
कई ज़िंदगियों के खप जाने
कई पीढ़ियों के संघर्ष के बाद ही हर इंसान के लिए दुनिया सुंदर बन सकेगी।

(दो)

यह उनका भ्रम है कि
सुंदर दुनिया को कंटीले तारों से
घेरा जा सकेगा और मज़दूरों को उसमें घुसने से
रोका जा सकेगा।
इसीलिए हमें अपनी सांसों की गर्मी से
इंसान के अंदर छिपे पिशाच को सुलझाना होगा। लगातार संघर्ष करके हर आंसू को अंगारे में
और हर मौत को शहादत बनाना होगा।
तभी तो तुमने
ज़िंदगी को सच्चा प्यार किया है, इसका सबूत मिल सकेगा।
तभी हर इंसान
उनके कंटीले तारों को उखाड़ कर
सुंदर दुनिया को
जी भर के प्यार कर सकेगा।

 12 साल पहले जब मध्यप्रदेश से अलग होकर नया छत्तीसगढ़ राज्य बना तो उम्मीद जागी कि अब दुख के दिन गुजरेंगे, अंधेरा मिटेगा और खुशहाली आयेगी। छोटा राज्य होने से छत्तीसगढ़ के आम लोगों का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास तेजी पकड़ेगा, शोषण विहीन छत्तीसगढ का सपना पूरा होगा। लेकिन इन 12 सालों में कुछ भी नहीं बदला, बेहतरी के तमाम सपने धरे के धरे रह गये। पाना तो दूर, केवल खोना और खोते रहना छत्तीसगढ़ के आम लोगों की नियति बन गयी। पेश है कलादास डेहरिया की टिप्पणी:

अलग राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ में जल, जंगल एवं जमीन का बेतहाshaaशा दोहन हुआ और लगातार हो रहा है। शिवनाथ, महानदी, अरपा, पैरी, इन्द्रावती, खारून आदि नदियों को बेचा गया। बस्तर के आदिवासी जंगल को अपनी मातृभूमि मानते हैं। जंगल ही उनका जीवन है और इस जीवन को आदिवासियों से छीन कर टाटा, एस्सार जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बेचा गया। जंगलों की अंधाधुंध कटाई कर आदिवासियों को बेघर किया गया। केवल बस्तर में ही 644 गांवों को उजाड़ दिया गया। जंगल उजड़ने से आदिवासियों का सब कुछ लुट गया। जो काम अंग्रेजों ने नहीं किया, उसे छत्तीसगढ़ सरकार ने कर दिखाया। राज्य बनने के बाद से कोई सवा दस हजार तालाब और 14 हजार कुएं खत्म हो गये। चार हज़ार वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र घट गया। 18 हज़ार हेक्टेयर वनभूमि पर नाजायज कब्जा हुआ। राज्य का 56 प्रतिशत पानी उद्योगों के लिए आरक्षित हो गया।

छत्तीसगढ़ में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बाढ़ आ गयी है। सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या वर्तमान में भाजपा की हो, किसानों की जमीनों की लूट हुई। कानूनी प्रावधानों को ताक पर रखते हुए आदिवासियों एवं गैर आदिवासियों की जमीन हड़पने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी। इसके लिए बंदूक के साये में जन सुनवाइयों का आयोजन हुआ। रायगढ़ में जिंदल और बस्तर में टाटा और एस्सार इसका जीवन्त उदाहरण है। जांजगीर चांपा जिले में 50 पावर प्लांट लगने वाले हैं। कुछ में तो काम शुरू भी हो चुका है- आरकेएम पावर प्लांट, डीवी पावर प्लांट, एथेना पावर प्लांट आदि। जहां पावर प्लांट शुरू हो चुके हैं, वहां के किसान अपनी बर्बाद हो रही जमीन पर रो रहे है।

जसपुर, कोरबा, कोरिया, धरमजयगढ़, रायगढ़ आदि जिलों में जैसे कंपनियों का शासन चलता है। भिलाई, रायपुर, बलौदा बाजार में सीमेंट कंपनियों का दबदबा है। उद्योगों की भरमार के चलते खेती की जमीन घट रही है। डर है कि धान का कटोरा कहीं एकदम से खाली ना हो जाये।
   
छत्तीसगढ़ अपनी लोक संस्कृति और विरासत के लिए जाना जाता रहा है।  परन्तु आज खड़े साज, नाचा, करमा, ददरिया, सुवा जैसी समृद्ध लोक परंपराएं लुप्त होती जा रही है। लोक कलाकार भी अश्लीलता और फूहड़ता की राह पर दौड़ लगा रहे हैं। इसमें राज्य सरकार की अहम भूमिका नजर आती है। संस्कृति विभाग अप संस्कृति को बढ़ाने के लिए हर साल पानी की तरह रूपया बहा रहा है। राज्योत्सव इसका ताजा उदाहरण है जिस पर करोड़ों रूपये फुंक जायेंगे। दूसरी तरफ तमाम जिलों में मनरेगा के मजदूरों की मजदूरी का भुगतान महीनों से बकाया है।

सामाजिकता और भाईचारे की भावना खतरे में है। समाज को जाति और धर्म के आधार पर बांटने का अभियान तेज हुआ है। आरएसएसएस का प्रभाव क्षेत्र बढ़ा है- बजरंग दल, शिवसेना, धर्मसेना जैसे उसके पूरक संगठन मजबूत हुए हैं। हालत कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा कसडोल के रामपुर कोर्ट गांव में हुई घटना से लगाया जा सकता है। एक युवती के साथ बलात्कार हुआ। महिला गर्भवती हुई तो हलचल मची और तब समाज के ठेकेदारों ने आरोपी को 250 रूपये और 25 किलो चावल प्रतिमाह देने की सजा सुना दी।

सांस्कृतिक एकता कभी छत्तीसगढ़ के गांवों की बड़ी पहचान थी। तीज-त्यौहार पूरा गांव मिल कर मनाता था। नियमित रूप से चौपाल लगती थी जहां गांव के भले पर चर्चा होती थी और आपसी झगड़े दूर किये जाते थे। किसी घर में संकट आता तो पूरा गांव मदद के लिए दौड़ पड़ता था। किसी गरीब घर की लड़की की शादी करना सामूहिक जिम्मेदारी हुआ करती थी। गांव की साफ-सफाई जैसे कामों में सबका हाथ लगता था। परन्तु राज्य बनने के बाद आज यह सब कुछ सपने की तरह हो गया।

छत्तीसगढ़ में सबसे पहले भिलाई स्टील प्लांट का निर्माण हुआ और यहीं से अविभाजित मध्य प्रदेश में मजदूर आंदोलन की शुरूआत हुई। इसकी कमान शहीद नियोगी ने संभाली थी जिसके कारण उन्हें काम से निकाला गया। इसके बाद उन्होंने दानीटोला और दल्लीराजहरा के खदान मजदूरों को संगठित करने और संघर्ष में उतारने का बड़ा काम किया। इन आंदोलनों से उन्होंने किसानों और दूसरे तबके के लोगों को भी जोड़ने का ऐतिहासिक काम किया। परन्तु आज किसान और मजदूरों के बीच की यह एकता टूट चुकी है। खुद किसान भी बंटे हुए हैं और मजदूर भी। यह फूट डालो और राज करो की विलायती नीति की जीत है। जुझारू मजदूर संगठनों को कमजोर करने में दलाल मजदूर संगठन सामने किये जा रहे हैं।

छत्तीसगढ़ में महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। औद्योगिक क्षेत्रों में महिलाओं से भी 12-12 घंटे काम कराया जाता है। लेकिन पुरूषों के बराबर काम करने के बावजूद उन्हें बहुत कम मजदूरी मिलती है। जसपुर और सरगुजा जिला देह व्यापार के लिए बदनाम है जहां लड़कियों को बहला-फुसला कर दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों में भेज दिया जाता है। टोनही के नाम पर महिलाओं को प्रताड़ित करने और गांव से बाहर कर देने की घटनाएं होती रहती हैं। दहेज उत्पीड़न की घटनाएं तो हर जिले में बढ़ी हैं। देश के दूसरे इलाक़ों की तरह छत्तीसगढ़ में भी महिलाएं पैर की जूती की हैसियत से बाहर नहीं आ सकीं। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद महिला विरोधी प्रवृत्तियों में केवल बढ़ोत्तरी ही हुई है।

छत्तीसगढ़ में शिक्षा का निजीकरण तेज गति से हुआ है और उसी अनुपात में सरकारी स्कूलों को बदहाल किया गया है। कहीं शिक्षकों की पर्याप्त संख्या नहीं तो कहीं शिक्षण की समुचित व्यवस्था नहीं। यह गरीब बच्चों को आगे न बढ़ने देने की साजिश है। यों तो दोहरी शिक्षा व्यवस्था पूरे देश में है लेकिन छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा त्रासद स्थिति में है और जो बचपन से ही अगली पीढ़ियों को अमीर-गरीब में बांट देने के लिए है।

छत्तीसगढ़ में निजी अस्पतालों का धंधा खूब फलफूल रहा है। दूसरी तरफ सरकारी अस्पतालों का हाल बहुत बुरा है- वहां दवाई, सुविधा, बुनियादी उपकरण और डाक्टरों का अकाल बना रहता है। कारण कि सरकारी डाक्टरों को निजी अस्पतालों में काम करने और यहां कि खुद अपना अस्पताल चलाने की अघोषित सुविधा हासिल है। ऐसे में सरकारी अस्पतालों का स्वास्थ्य कैसे ठीक रह सकता है? छत्तीसगढ़ में बड़े-बड़े औद्योगिक क्षेत्र हैं जहां लाखों मजदूर काम करते हैं। जब-तब औद्योगिक दुर्घटनाएं होती रहती हैं लेकिन मजदूरों के लिए कहीं कोई बेहतर अस्पताल नहीं है। छत्तीसगढ़ के जंगल इलाकों में तो डाक्टरों की परछाईं तक नहीं पहुंचती। लोगों को वैद्य-गुनिया के सहारे जीना होता है। यह दुखद स्थिति विकास का ढोल पीटनेवाली राज्य सरकार की बड़ी उपलब्धियों में शामिल है।

छत्तीसगढ़ को पहले धान का कटोरा कहा जाता था जो अलग राज्य बनने के बाद शराब का हंडा बन गया। छत्तीसगढ़ में दो तिहाई से अधिक आबादी शराबखोरी के चंगुल में है। इसकी शुरूआत अलग राज्य बनने के बाद हुए चुनाव से हुई थी जब सभी चुनावी दलों ने वोट खरीदने की होड़ मे शराब का जम कर इस्तेमाल किया। सयाने कहते हैं कि शराब एक बार होठों को छूती है तो उसे छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। चुनावबाज दलों की ‘कृपा’ से आज शराबखोरी का रंग बहुत गाढ़ा हो चला है। इसके खिलाफ छत्तीसगढ़ शराब विरोधी मंच बना और उसने बच्चों के जरिये पूरे राज्य में नशामुक्त छत्तीसगढ़ बनाने का अभियान छेड़ा तो राज्य सरकार भी यह नारा लगाने लगी। हालांकि कुछ साल पहले कई जगहों पर यही सरकार शराब के तीखे विरोध को देखते हुए पुलिस थानों तक में शराब बिकवाने की व्यवस्था कर चुकी थी।

छत्तीसगढ़ के देशी लघु उद्योग धड़ाधड़ बंद होते जा रहे हैं। राजनांदगांव जिले में बंगाल और नागपुर सूती मिलें ब्रिटिश जमाने जमाने से चल रही थीं जिन्हें पुतरीघर नाम से जाना जाता था और जो नया राज्य बनने के बाद बंद हो गयीं। बुनकरी और कुम्हारी से लेकर बांस से सुपा, चरिहा, टुकनी बनाने का काम ठप्प हो गया। सरकार को इसकी चिंता नहीं। इसके विपरीत छत्तीसगढ़ में अब लोहा, कोयला, हीरा, डोलोमाइट, बाक्साइट, तांबा, पीतल, लाइमस्टोन, सोना जैसे बेशकीमती खजाने को लूटने के लिए साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुली छूट है और उनकी सुरक्षा की भरपूर व्यवस्था है। अभी तक 110 एमओयू हो चुके हैं और कंपनियों को राज्य को लूटने की दावत देने का काम लगातार जारी है। राज्योत्सव के आयोजन का यही मकसद है।  

छत्तीसगढ़ की बिगड़ती सूरत को ठीक करने और उसे पुराना वैभव लौटाने के लिए आज शहीद वीरनारायण सिंह के संघर्षों के इतिहास को दोहराने की आवश्यकता है जिन्होंने अंग्रेजों एवं सामंतवादियों के खिलाफ, भूख एवं लूट के खिलाफ जनता को गोलबंद किया और संघर्ष का मोर्चा खोला। आज शहीद शंकर गुहा नियोगी के रास्ते पर चलते हुए उनका यह नारा बुलंद करने की आवश्यकता है कि-

हम बनाबो नवा पहिचान, राज करही मजदूर किसान
   
(लेखक संस्कृतिकर्मी हैं और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (मजदूर कार्यकर्ता समिति) की अगली पंक्ति के साथी हैं)

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