संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

उद्योगों के लिए खेती पर हमला

छत्तीसगढ़ में खेती संकट में है। नदी और जंगल भी संकट में है। लोगों की हालत बहुत पतली है, लगातार और पतली होती जा रही है। यह उद्योग और उद्योगपतियों की चाकरी करने और अपनी जनता के भले से मुंह मोड़ लेने का नतीज़ा है। पेश है असित दास का यह लेखाजोखा; 
छत्तीसगढ़ के लोग बहुत गरीब हैं लेकिन यहां की भूमि खनिज सम्पदा और वन के मामले में उतनी ही धनी है। अधिकतर लोग आजीविका के लिए खेती और वनों पर निर्भर हैं। राज्य में तीन चौथाई प्रतिशत से भी अधिक लोगों की जीविका का साधन खेती है जबकि कुछ जिलों में यह प्रतिशत 90 तक है। लेकिन खेती के 12 प्रतिशत से भी कम हिस्से में सिंचाई की व्यवस्था है। राज्य में आजीविका के लिए वनों के संसाधनों को इस्तेमाल किये जाने पर कठोर पाबंदी है। खेती के विकास से ही आदिवासियों और दूसरे स्थानीय लोगों का विकास संभव है। लेकिन इसकी योजना गायब है। नतीजा यह है कि 45 प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजारने पर विवश है और राज्य भुखमरी और कुपोषण की समस्या से जूझ रहा है। शिशु मृत्युदर भी काफी ऊंची है। इसके ठीक उलट देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों ने मुनाफे के लिए यहां निशाना साध रखा है।

छत्तीसगढ़ देश का नौवां खनिज संपन्न राज्य है जहां देश के कुल खनिजों का 13 प्रतिशत भंडार है- 23 प्रतिशत लोहा, 14 प्रतिशत डोलोमाइट और 6.6 प्रतिशत लामस्टोन। झारखंड और उड़ीसा के बाद कोयले के उत्पादन में छत्तीसगढ़ का तीसरा स्थान है। यहां देश का कुल 18 प्रतिशत कोयला भंडार है। सोने, बाक्साइट, क्वार्ट्ज और हीरे जैसे कीमती पत्थरों की भी खानें हैं।

राज्य में लौह अयस्क का कोई सवा 23 हजार मिलियन टन का भंडार है। बेलाडिला का भंडार 1955-56 में खोजा गया था जिसे विश्व के बेहतरीन भंडारों में गिना जाता है और उसे निजी कंपनियों को मामूली कीमत पर बेचा जाता है। जापानी कंपनी को लोह अयस्क की आपूर्ति करने के लिए विशेष रेलवे लाइन बिछाई गई है। हाल में गुजरात की एक कंपनी को भी विशाखापटनम से इसकी सप्लाई के लिए पाइप लाइन बिछाने की अनुमति मिली है।

लौह अयस्क के अधिकतर समझौते बस्तर क्षेत्र के लिए हुए हैं। यह क्षेत्र केरल से भी बड़ा है और 62 प्रतिशत वन क्षेत्र से घिरा है। इसमें आदिवासी जनसंख्या 87 प्रतिशत है। खेती की कुल भूमि के कुल दो प्रतिशत हिस्से के लिए ही सिंचाई की व्यवस्था है। आदिवासियों की आजीविका के साधनों में महुआ, तमारिंद, चिरौंजी और गोंद जैसे वन उत्पाद शामिल हैं।

छत्तीसगढ़ की औद्योगिक नीति का कुल मकसद संसाधनों का अधिकतम लाभ उठाना है और जो उपनिवेशवादियों और उनकी स्थानीय संस्थाओं को ही मिलेगा। इसीलिए बड़ी संख्या में निवेशकों के प्रस्ताव आये हैं। 2006 के शुरूआती छह महीने में इसमें गजब का उछाल आया, लगभग 52 लाख करोड़ के समझौते हुए लेकिन कुल 8143 करोड़ का निवेश हो सका। बस्तर और सरगुजा में टाटा, एस्सार और इफ्को के लिए भूमि अधिग्रहण हो चुका है। दूसरी बड़ी पार्टी वीएसए की टैक्सास पोनबर्गन है जो एक लाख मेगावाट का पावर प्रोजेक्ट लगा रही है। इस पिछड़े राज्य में सरकार फूड पार्क, एल्युमिनियम पार्क, जेम्स और ज्वेलरी पार्क जैसे प्रोजेक्ट भी लाने की तैयारी में है।

2002 में कांग्रेसी सरकार ने छत्तीसगढ़ इंवेस्टमेंट प्रोमोशन एक्ट बनाया और निवेशकों की सुविधा के लिए स्टेट इंवेस्टमेंट प्रोमोशन बोर्ड की स्थापना की। उद्योगों को लौह अयस्क की आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए एनएमडीसी और सीएमडीसी ने संयुक्त वेंचर बनाया- छत्तीसगढ़ स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कारपोरेशन (सीएसआईडीसी)। इसने उसी साल बाल्को के अगले विस्तार के लिए छह हजार करोड़ का समझौता किया। इस वायदे के साथ कि कोरबा में सभी प्रस्तावित परियोजनाओं के लिए भूमि मुहैया कराने में हर संभव मदद की जायेगी, कि पर्यावरण संबंधी सभी क्लियरेंस भी करा लिये जायेंगे। पावर प्लांट की राख के निपटान के लिए अब तक छह सौ एकड़ भूमि अलग से अधिग्रहीत की जा चुकी है।

तय हुआ कि बाल्को द्वारा उत्पादित बिजली पर 15 सालों तक कर नहीं लगेगा, कच्चे माल और अन्य सामान पर भी नहीं और स्टाम्प ड्यूटी फीस पर छूट भी मिलेगी। बाल्को पहले मुनाफा कमानेवाली सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी थी लेकिन सरकार ने उसे बहुत कम कीमत पर स्टरलाइट को बेच दिया गया था- उसके कामगारों द्वारा कंपनी को खुद चलाये जाने के प्रस्ताव को ठुकराते हुए। यह तब की बात जब केंद्र में भाजपा की अगुवाईवाली गठबंधन सरकार थी। कांग्रेस की अगुवाईवाला गठबंधन केंद्र में आया तो 2004 में बाल्को के खिलाफ जांच हुई। पता चला कि उसने एक हजार एकड़ भूमि पर अवैध कब्जा कर रखा है। अगले साल यह मामला राज्य विधानसभा में उठा तो भाजपा सरकार ने इस बारे में कुछ न कर पाने की अपनी असमर्थता जता कर छुट्टी पा ली। अब बाल्को एल्युमिनियम पार्क बनाने में सरकार की मदद कर रही है।

2005 में टाटा स्टील के साथ हुए समझौते के तहत बस्तर में पांच मिलियन टन ग्रीनफील्ड इंटीग्रेटेड स्टील प्लांट लगाया जाना है। इसमें बेलाडिला संरक्षित वन क्षेत्र में लौह अयस्क की खानों को विकसित किया जाना भी शामिल है। 12 हजार करोड़ की इस परियोजना के लिए 35 सौ एकड़ भूमि अधिग्रहण होनी है। इसके अलावा टाउनशिप के लिए दो हजार एकड़ भूमि की अलग से जरूरत है। परियोजना के लिए सबरी नदी से जल आपूर्ति का प्रस्ताव है। दूसरे शब्दों में कहें तो लोगों से उनकी जमीन, नदी, पर्वत, प्राकृतिक संसाधन और उनकी आजीविका छीनी जानी है। समझौते का प्रावधान दोनों पक्षों को समझौते के नियम व शर्तों को उजागर करने से रोकने के लिए है। एनएमडीसी और सीएमडीसी दोनों ही सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई हैं और दोनों ने ही इस क्षेत्र में लीज के लिए आवेदन किया था। इसके बावजूद राज्य सरकार ने टाटा स्टील के लिए केंद्र सरकार से सिफारिश की। उसी साल एस्सार ग्रुप के साथ बस्तर में छह हजार करोड़ की लागत से 3.2 मिलियन टन उत्पादन क्षमता का ग्रीनफील्ड स्टील प्लांट लगाने का समझौता हुआ। यह वह जिला है जहां साक्षरता दर 44 प्रतिशत से कम है और 13 लाख से भी अधिक आबादी के लिए मात्र 1473 प्राथमिक स्कूल हैं। लोगों के रहन-सहन में सुधार करने और उनकी क्रय क्षमता को बढ़ाने की कोशिश करने के बजाय सरकार उन पर बड़ी परियोजनाएं थोप रही है। नवम्बर 2005 में जिंदल स्टील एंड पावर के साथ 32 करोड़ की लागतवाले 750 औद्योगिक पार्कों के विकास के लिए समझौता हुआ था। कंपनी को अपने विस्तार के लिए भी पर्यावरण संबंधी क्लीयरेंस फटाफट दे दिया गया।

कंपनी हर साल टनों कचरा जमीन में डिस्पोज करती है जिससे भूमिगत जल और खेती को बहुत नुकसान हो रहा है। इससे खाद्य श्रृंखला प्रभावित हुई है। इस बावत सर्वे करने के लिए जुलाई 2005 में सरकार ने जिस टीम का गठन किया, उसने  केवल एक दिन में अपनी रिपोर्ट पेश कर दी। यह टीम केवल कंपनी के अधिकारियों से ही मिली। उसने उन तीन गांवों के लोगों से मिलना जरूरी नहीं समझा जो इससे प्रभावित हुए।

कांकेर में प्लांट लगा ताकि चरगांव और रावघाट में लौह अयस्क की खानें खोली जा सकें। राज्य सरकार ने दल्ली राजहारा से जगदलपुर वाया रावघाट के लिए रेलवे लाइन बिछाने की भी मंजूरी दी ताकि अधिक से अधिक खनिजों को सुविधा से ले जाया जा सके। खनन का ठेका निक्को को मिला। खनन से निकलनेवाला कचरा परालकोट और मेंधाकी नदी के पानी को बरबाद करेगा जिससे हजारों परिवारों का जीवन प्रभावित होगा- खेती चौपट होगी, मछलियां नहीं बचेंगी।   चरगांव के चारों ओर उपजाऊ भूमि है जो बरबाद हो जायेगी। लगभग 16 गांव के लोग इससे सीधे तौर पर प्रभावति होंगे, जबकि इससे भी अधिक लोग पीने के पानी की समस्या का सामना करेंगे। पिछले दस सालों में यह तीसरा अवसर है जब राज्य सरकार इन योजनाओं को शुरू करने का प्रयास कर रही है लेकिन स्थानीय लोगों का विरोध कायम है और सरकार को उनके गुस्से का सामना करना पड़ रहा है।

नगरनार से जहां एनएमडीसी का स्टील प्लांट है, 40 से भी अधिक गांवों के लोग विस्थापित हो चुके हैं। बस्तर के लोहांडीगुडा इलाके में भी प्रस्तावति स्टील प्लांट के विरोध में आदिवासी लड़ रहे हैं और राज्य का दमन झेल रहे हैं।

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और कोई आठ सालों से बदलाव के संघर्षों के साझीदार हैं)

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