संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

कोकाकोला संयंत्र: राष्ट्रीय हित में कारपोरेटी लूट को न्यौता

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से 32 कि.मी. दूर छारबा गांव में कोकाकोला संयंत्र लगाने की अनुमति देकर राज्य सरकार ने न केवल ग्रामीणों की अनदेखी की है, बल्कि पानी की कमी से जूझते उत्तराखंड को नई मुसीबत में डाल दिया है। इस परियोजना की वास्तविकता की जांच करने सुरेश भाई के नेतृत्व में गए दल की रिपोर्ट पर आधारित प्रवीन कुमार भट्ट का महत्वपूर्ण आलेख; 
उत्तराखंड सरकार ने 17 अप्रैल 2013 को हिंदुस्तान कोकाकोला बेवरेज प्राइवेट लिमिटेड के साथ इस बात का समझौता किया कि कंपनी को राजधानी देहरादून के निकट शीतल नदी के किनारे बसे छरबा गांव में 19 लाख रुपए प्रति बीघा के हिसाब से 368 बीघा जमीन कोकाकोला संयंत्र स्थापित करने के लिए दी जाएगी। 
सरकार का दावा है कि छरबा में कोकाकोला संयंत्र लगने से राज्य में छह सौ करोड़ का निवेश होगा और एक हजार लोगों को रोजगार मिलेगा, लेकिन विदेशी कंपनी से करार और रोजगार के दावों के बीच सरकार ने उन ग्रामीणों को इस प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बनाया जिनसे जमीन लेकर यह ताना-बाना बुना जा रहा है। यहां तक कि छरबा गांव के लोगों को यह खबर समाचार पत्रों के माध्यम से ही मिली। जैसे ही सरकार के इस समझौते की खबर फैली वैसे ही इसका विरोध भी तेज हो गया है। सरकार जितनी बड़ी उपलब्धि बताकर इस समझौते को पेश कर रही थी। पर्यावरण के जानकार इसे उतना ही बड़ा खतरा बता रहे हैं।
प्रस्तावित संयंत्र राजधानी देहरादून से 32 कि.मी. दूर शीतल नदी के किनारे बसा है। 1659 परिवारों के छरबा गांव की आबादी 10,046 है। कृषि पर निर्भर गांव में 18 आंगनवाड़ी केंद्र संचालित हैं और यह गांव अप्रैल 2012 में केंद्रीय पंचायती राज मंत्रालय से आदर्श ग्राम पंचायत का पुरस्कार भी जीत चुका है। यह राज्य के कुछ बेहद प्रगतिशील और आदर्श गांवों में से एक है। 
इस गांव को किसी सरकार ने आदर्श स्थिति तक नहीं पहुंचाया, बल्कि गांव के लोगों की एक पीढ़ी की मेहनत ने यह स्थिति तैयार की है। सीआईएसएफ के सेवानिवृत्त इंस्पेक्टर पीसी चंदेल कहते हैं कि चालीस साल पहले तक हमारे गांव में पानी की भयंकर कमी थी। इस कारण कोई अपनी लड़कियों की शादी गांव में करने को तैयार नहीं होता था। यहां तक की दर्जनों परिवार गांव से अपनी जमीनें बेचकर दूर चले गए थे।
लेकिन आज हमारे गांव में पर्याप्त पानी है। गांव में पर्याप्त पानी के पीछे गांव के लोगों का चार दशक से जारी संघर्ष एवं परिश्रम है। गांव वालों ने पानी की समस्या का समाधान प्रकृति में खोजा और सबसे पहले ग्राम समाज की लगभग 1100 बीघा जमीन में वृक्षारोपण किया। पूर्व प्रधान मुन्ना खां बताते हैं कि उन्होंने दो कार्यकाल लगातार काम किया। तब प्रधान को पट्टे देने का भी अवसर था, लेकिन उन्होंने एक भी पट्टा किसी को नहीं दिया, बल्कि ग्राम पंचायत की 450 बीघा जमीन में जंगल लगवाए। यहां तक कि इन वनों की सुरक्षा गांव वालों ने खुद चौकीदार की व्यवस्था कराकर की। 
सरकार ने जिस जमीन का सौदा कोकाकोला के साथ किया वह शीतल नदी के किनारे गांव के सौ मीटर के दायरे में है। गांव वालों को एक तो इस बात का गुस्सा है कि सरकार ने बिना उनसे बात किए जमीन का सौदा कर दिया और दूसरा कोकाकोला ने जहां-जहां अपनी परियोजना निर्मित की है वहां भयंकर प्रदूषण फैला है। भूगर्भीय जल के अत्यधिक दोहन के कारण उन क्षेत्रों में पानी के लिए हाहाकार मचा है। खेती की जमीनें बंजर हुई हैं और कंपनी द्वारा किए गए रोजगार के दावे भी खोखले साबित हुए हैं। 
यह कहा जा रहा है कि छरबा गांव में लगने वाले कोकाकोला प्लांट को यमुना नदी का पानी दिया जाएगा। जबकि यमुना में पानी की पहले ही कमी है और उत्तरप्रदेश व हरियाणा राज्यों के दो दर्जन से अधिक जिले यमुना के पानी पर ही पेजयल और खेती के लिए निर्भर हैं। जिस आसन बैराज से कोकाकोला को पानी देने की बात हो रही है वह बैराज पर्यटन और पर्यावरणीय की दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण है। इतना ही नहीं इस बैराज पर प्रति वर्ष विदेशी पक्षियों को देखने के लिए देशी-विदेशी पर्यटक जुटते हैं। कोकाकोला को पानी दिए जाने के बाद बैराज से बिजली उत्पादन भी घट जाएगा। एक अनुमान है कि कोकाकोला संयंत्र को प्रतिदिन 2 लाख लीटर पानी की आवश्यकता होगी। सामाजिक कार्यकर्ता सुनीता रावत कहती हैं कि कंपनी यमुना से पानी लेने के साथ ही ट्यूबवेल लगाकर भी भूगर्भीय जल खींचेगी और गांव में पानी का जलस्तर घट जाएगा, जिसका सीधा मतलब है कि गांव में खेती, पशुपालन और पानी के स्रोत चौपट हो जाएंगे। साथ ही हमें पीने और सिंचाई के लिए भी पानी नहीं मिलेगा। 
जबकि पीसी चंदेल का कहना है कि हमारा गांव पहले ही तीन दिशाओं से उद्योग धंधों से घिर चुका है। रात में खेत में सोने जाओ तो सुबह तक नाक में काला भर जाता है ऐसे में चौथी दिशा में भी अगर हमारा पाला हुआ जंगल भी हमारे हाथ से निकल जाएगा तो हमें अपना गांव छोड़कर जाना पड़ेगा।
छरबा गांव से लगे सहसपुर, सेलाकुई इत्यादि क्षेत्रों में सरकार पहले ही उद्योग स्थापित कर चुकी है। अब उसकी नजर इस गांव पर है। सहसपुर के प्रधान सुंदर थापा भी छरबा गांव के लोगों को सहयोग का पूरा भरोसा दिलाते हैं। उनका कहना है कि सरकार को ऐसा काम करना चाहिए जैसा जनता चाहती है।
नदी बचाओ अभियान के संयोजक सुरेशभाई ने छरबा गांव पहुंचकर कहा कि गांव वालों की मर्जी के बिना कोई परियोजना गांव में नहीं लग सकती। विदेशी कंपनियों और विदेशी पूंजी के आगे सरकार नतमस्तक है, जबकि सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि उसने क्या कोकाकोला के साथ समझौता करने से पहले देश के अन्य भागों में लगे कोकाकोला परियोजनाओं के प्रभावों का अध्ययन किया गया है? क्या राज्य सरकार ने इस परियोजना के लिए ग्राम पंचायत से एनओसी ली है? उन्होंने सवाल उठाया कि यमुना का पानी उत्तरप्रदेश और हरियाणा में खेती और पेयजल के लिए प्रयोग होता है ऐसे में राज्य सरकार को इन राज्यों को भी भरोसे में लेना चाहिए था।
छरबा के ग्रामीणों ने पूर्व में ग्राम समाज की जमीन में गौवंश संरक्षण केंद्र, कृषि अनुसंधान प्रशिक्षण केंद्र जैसे अनेक उपयोगी केंद्र खोलने का आग्रह किया था, लेकिन सरकार ने इन्हें खारिज कर दिया। जबकि यूनियन बैंक की ओर से कृषि प्रशिक्षण केंद्र के लिए सहयोग का प्रस्ताव दिया गया था। सरकार ने गांव वालों को झांसा देकर 2003 में दून विवि की स्थापना के नाम पर गांव की 520 बीघा जमीन की एनओसी कराई थी अब बिना दुबारा एनओसी के इसी जमीन में से 368 बीघा जमीन सरकार ने कोकाकोला को बेच दी है। जबकि विवि के लिए ली गई जमीन पर कोकाकोला जैसी परियोजना बिना गांव वालों की सहमति के नहीं लग सकती है।
पीएसआई के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. अनिल गौतम भी गांव के पास प्रस्तावित इस संयंत्र को खतरनाक मानते हैं। उनका कहना है कि कोकाकोला संयंत्र से निकलने वाला रसायन उपजाऊ जमीन को भी बंजर कर देता है। कोक के संयंत्र में जितना पानी एक दिन में अंदर लिया जाता है उसका आधा पानी रसायन के रूप में बाहर छोड़ा जाता है। यह रसायन मिला पानी जमीन की सतह पर बहे या जमीन के अंदर जाए दोनों ही स्थितियों में खतरनाक है। उन्होंने कहा कि बनारस के मेहंदीगंज इलाके में जहां सन् 2002 में कोकाकोला ने अपना संयंत्र लगाया था वहां आज भू जलस्तर 50-60 फीट नीचे चला गया है। इससे आत्मनिर्भर बनाने वाला रोजगार तो विकसित हो नहीं सकता। हां खेती और पशुपालन चौपट होने से भुखमरी की नौबत जरूर आ जाएगी। उत्तराखंड जलविद्युत निगम के निदेशक ऑपरेशन पुरुषोत्तम का कहना है कि यमुना में पहले ही पानी की कमी है। पानी अगर कहीं और मोड़ा गया तो पानी की और कमी होगी, जिससे विद्युत उत्पादन प्रभावित होगा।  (साभार: सप्रेस)
(श्री प्रवीन कुमार भट्ट स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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