संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

पांच राज्यों में चुनाव : खारिज होता पर्यावरण 

पांच राज्यों  में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में मतदाताओं को लुभाने हेतु दिये आश्वासनों या घोषणाओं में पर्यावरण सुधार की कहीं, कोई चर्चा नहीं की गयी है। हमेशा की तरह वे सभी धतकरम किए जा रहे हैं जिन्हें हमारे मौजूदा तर्ज के लोकतंत्र ने आत्मसात कर लिया है, लेकिन क्या इस धमा-चौकड़ी में हमारे जीवन के लिए जरूरी पर्यावरणीय मुद्दों को कोई तरजीह दी जा रही है? क्या हम एक निश्चित अंतराल पर अपने जीवन को बचाने-संवारने के चुनावी मौके को हाथ से जाने दे सकते हैं? प्रस्तुत है, इस विषय की छानबीन करता डॉ. ओ.पी.जोशी का यह आलेख ;

पांच राज्यों – उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा एवं मणिपुर – में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में मतदाताओं को लुभाने हेतु दिये आश्वासनों या घोषणाओं में पर्यावरण सुधार की कहीं, कोई चर्चा नहीं की गयी है।

उत्तर प्रदेश का चुनाव सबसे ज्यादा चर्चित है एवं वहीं पर्यावरण की हालत भी ज्यादा खराब है। सिंधु-गंगा के मैदानों की हवा ज्यादा प्रदूषित हैं एवं इसी के ह्दय स्थल में उत्तरप्रदेश बसा है। प्रदूषण पर निगरानी रखने वाली स्विट्जरलेंड की संस्था ‘आयक्यूएअर’ की ‘वर्ल्ड एअर क्वालिटी रिपोर्ट – 2020’ में बताया गया है कि दुनिया के 30 प्रदूषित शहरों में 22 हमारे देश के हैं। इनमें 10 उत्तरप्रदेश के हैं-गाजियाबाद, बुलंदशहर, जलालपुर, कानपुर, लखनऊ, मुजफ्फरनगर, आगरा, मेरठ, नोएड़ा एवं ग्रेटर-नोएडा।

इसके बाद वर्ष 2021 में ‘क्लाईमेट ट्रेंड’ द्वारा उत्तरप्रदेश में वायु-प्रदूषण की समस्या पर अध्ययन कर बताया गया कि यहां की 99 प्रतिशत आबादी प्रदूषित हवा में सांस लेने को मजबूर है। यह सुझाया गया कि वायु-प्रदूषण की निगरानी की व्यवस्था ग्रामीण क्षेत्रों में भी की जाए, जहां लोग लकड़ी, कोयला एवं कंडों का उपयोग करते हैं।
‘भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद’ (आयसीएमआर) ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि राज्य के ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) के 2.15 प्रतिशत के बराबर हानि वायु प्रदूषण से पैदा बीमारियों तथा उत्पादकता में कमी के कारण हो रही है। यह 36 हजार करोड़ रूपये प्रतिवर्ष आंकी गयी है।

यहां की काली व हिंडन नदियां देश की प्रदूषित नदियों में शामिल हैं एवं गोमती, वरूणा तथा गंगा, यमुना के हालात भी ठीक नहीं है। गंगा और उसकी सहायक नदियों में ‘राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण’ (एनजीटी) द्वारा निर्धारित समय सीमा (01 जुलाई 2020) तक बगैर उपचार के सीवेज छोड़ने के कारण ‘केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल’ ने राज्य सरकार पर 26 करोड़ रूपये का ‘पर्यावरण -जुर्माना’ लगाया है।

पांच नदियों के विशाल भंडार एवं हरित क्रांति के लिए प्रसिद्ध पंजाब में भी पर्यावरण साफ नहीं है। यहां के बिगड़े पर्यावरण के लिए हरित क्रांति को जिम्मेदार बताया जा रहा है। यहां पिछले 45-50 वर्षों में रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों का भरपूर उपयोग किया गया। इसका पानी मिट्टी एवं जैव-विविधता पर विपरित प्रभाव हुआ। मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्व कम हो गये।

पंजाब कृषि वि.वि. के एक अध्ययन अनुसार मिट्टी के 1,80,000 नमूनों में से 78 प्रतिशत में जैविक कार्बन एवं 49 प्रतिशत में जिंक की कमी बतायी गयी थी। केंचुए भी लगभग समाप्त हो गए थे। फसल अवशेष (पराली) जलाने से भी मिट्टी की गुणवत्ता बिगड़ी एवं वायु प्रदूषण बढ़ा। खेती में रसायनों के उपयोग से सतही एवं भूजल में नाइट्रेट एवं सल्फेट की मात्रा बढ़ गयी।

‘भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र’ के एक दल ने कुछ वर्षों पूर्व फरीदाबाद, भटिंडा, अमृतसर व फिरोजपुर शहर के कुछ भूजल नमुनों में आर्सेनिक के अंश भी देखे थे। गन्ना एवं धान जैसी ज्यादा सिंचाई वाली फसलों की पैदावार हेतु भूजल के ज्यादा दोहन से राज्य के लगभग 75 प्रतिशत भाग में भूजल की कमी हो गयी है। गांवों के तालाब एवं पोखर भी विकास की बलि चढ़ गए हैं। खेती के रसायनों के प्रभाव से गौरैया एवं तितलियों की संख्या काफी घट गयी है एवं मनुष्यों में कैंसर रोग बढ़ा है। भटिंडा से बीकानेर जाने वाली पेसेंजर को लोग कभी ‘कैंसर एक्सप्रेस’ कहते थे।

उत्तराखंड विश्व की सबसे नवजात पर्वत श्रृंखला हिमालय पर बसा है जहां हिम-स्खलन, भूक्षरण एवं भूकम्पन होते रहते हैं। इन कारणों से यह राज्य प्राकृतिक आपदाओं की चपेट में रहता है। वर्ष 2013 की केदारनाथ-त्रासदी के बाद वर्ष 2021 में सात फरवरी को रेणी गांव में आए फ्लैशफ्लड (कीचड़ व मलवे का भारी बहाव) ने भी भारी तबाही मचायी थी। समय-समय पर आयी प्राकृति आपदाओं ने स्पष्ट कर दिया कि पहाड़ों का विकास वहां की प्रकृति एवं पर्यावरण के अनुसार नहीं हो रहा है।

इस राज्य की स्थापना के बाद बारह वर्षों में (2000 से 2012 तक) जंगल 84.9 प्रतिशत से घटकर 52.8 प्रतिशत रह गए हैं एवं 8000 किलोमीटर की सड़क लगभग 25000 किमी की हो गयी है। पेड़ों की कटाई, जल-विद्युत परियोजनाएं, बारूद से विस्फोट एवं तापमान में वृद्धि आदि कारणों से यहां के पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव हुआ है। वर्तमान में बारामासी सडक निर्माण के कार्यो में पर्यावरण नियमों की अनदेखी से कुछ और खतरे बढ़ गए हैं।
पर्यटन के लिए प्रसिद्ध गोवा में खनिज, विशेषकर लौह अयस्क एवं बालू-रेती का अतिदोहन पर्यावरणीय एवं सामाजिक समस्या बना है। दक्षिण गोवा में पहाड़ों के नीचे लौह अयस्क (आयरन-ओर) का भंडार है। राज्य में कच्चे लोहे का खनन पिछले कई वर्षों में हुआ, परंतु स्थापित नियम कायदों का पालन नहीं करने से पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पडा। इस खनन ने खेत-खलिहान, छोटी नदियां, मछली तथा धान के क्षेत्रों को हानि पहुंचायी। खनन क्षेत्र में लोगों के फेफड़े भी खराब हुए।

इस सभी कार्यो की शिकायत पर सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी 2018 में सभी कंपनियों के खनन पर रोक लगा दी थी। इस रोक से वहां की खनन कार्य से जुड़ी लगभग 25 प्रतिशत आबादी के सामने आजीविका का संकट पैदा हो गया। अब यहां से चुनाव लड़ रहे सभी दल खनन कार्य पुन: शुरू किये जाने की बात कह रहे हैं, परंतु यह कोई दल नहीं कह रहा कि खनन कार्य स्थापित नियम कानून के अनुसार होगा। ‘गोआ फाउंडेशन’ तथा नागरिक समूहों के ‘गोआचि-माटी’ घोषणा-पत्र में कहा गया है कि खनिज कार्य सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश के अनुसार हो। खनिज हमें विरासत में मिला है। इसका दोहन इस प्रकार हो कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी बचा रहे।

उत्तर-पूर्वी का एक छोटा-सा पहाड़ी राज्य मणिपुर भी पर्यावरण में आए बदलावों से सूखे की ओर अग्रसर है। ‘भारतीय मौसम विज्ञान विभाग’ ने लम्बे समय तक अध्ययन कर बताया था कि यहां मानसूनी वर्षा में कमी हो रही है। वर्ष 1975 से 2007 के मध्य तीन दशकों में 18 वर्ष सूखे से प्रभावित रहे। वर्ष 2009 में जब देश में मानसून में बड़ी कमी आयी तब यहां भयंकर सूखा पड़ा था। वर्ष 2019 में भी मानसून के मौसम में 56 प्रतिशत वर्षा में कमी आंकी गयी थी। ‘मैरीलैंड विश्वविद्यालय (अमेरिका) ने सेटेलाइट से देश के वन क्षेत्रों का अध्ययन कर बताया था कि मणिपुर में 1.96 लाख हेक्टर वन-क्षेत्र में कमी आयी है। मणिपुर में खाद्य असुरक्षा है, क्योंकि यहां खेती की ज्यादा जमीन नहीं है। पुरानी झूम खेती की प्रथा आज भी कई जगह चल रही है।

इन पांचों राज्यों में कोविड महामारी की त्रासदी के बाद चुनाव हो रहे हैं। इस काल में हुए कई अध्ययनों ने बताया था कि जहां प्रदूषण कम एवं हरियाली अधिक थी, वहां संक्रमण कम था। इन सारे अध्ययनों को नजर-अंदाज कर पर्यावरण के सुधार की चुनाव में चर्चा नहीं करना यही दर्शाता है कि साफ-सुथरा पर्यावरण हमारे लिए कोई मायने नहीं रखता।

साभार : सप्रेस

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