संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

मध्य प्रदेश : ‘पेसा’ से उलट ‘पेसा’ के नियम

मध्य प्रदेश सरकार को करीब ढाई दशक पहले संसद में पारित ‘पेसा कानून’ की अब जाकर सुध आई है। पांच महीने पहले ‘पेसा’ के नियम-कानूनों का दस्तावेज तैयार करके उस पर संबंधित विभागों की राय मांगी गई, लेकिन इन नियम-कानूनों पर आम जनता, आदिवासी और व्यापक समाज की राय जानने के लिए इसे सार्वजनिक नहीं किया गया। ‘पेसा’ के नियम-कानूनों के सरकारी दस्तावेज में आखिर क्या है जिसे सार्वजनिक नहीं किया जा रहा? क्या ये कानून ‘पेसा’ की मूल भावना को बरकरार रख पाएंगे? प्रस्तुत है, इस विषय की छान-बीन करता राजकुमार सिन्हा का यह लेख;

संविधान के अनुच्छेद (40) में स्वशासी व्यवस्था की इकाई के रूप में गांवों की पंचायत को मजबूत करने की बात कही गई है। 73 वें संविधान संशोधन में पंचायती राज व्यवस्था को संविधान के भाग (9) में जोङा गया है। संविधान के अनुच्छेद (244) में आदिवासी क्षेत्रों के प्रशासन बाबत विशेष प्रावधानों की व्यवस्था है। इसी अनुच्छेद के आलोक में आदिवासी समाज की पारम्परिक भावनाओं के अनुरूप प्रशासन चलाने के लिए केंद्र सरकार ने ‘पंचायत उपबंध (आदिवासी क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम – 1996’ बनाया। जिसे बोलचाल की भाषा में ‘पेसा कानून’ कहा जाता है।

‘पेसा कानून’ में आदिवासी परम्पराओं के अनुसार आपसी विवाद निपटाने और प्राकृतिक संसाधनों का समुदाय के हित में प्रबंधन करने का अधिकार ग्रामसभा को दिया गया है। 25 वर्षो बाद मध्यप्रदेश सरकार द्वारा ‘पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) नियम – 2021’ का मसौदा तैयार कर विगत जुलाई को सबंधित विभागों से एक माह के अंदर सुझाव और संशोधन हेतु प्रस्ताव मांगे गए थे। ‘पेसा नियम’ के मसौदे को न तो सार्वजनिक किया गया है और न ही इस पर आम लोगों से सुझाव मांगे गए हैं। यहां तक कि निर्वाचित आदिवासी जनप्रतिनिधियों को भी इस सबंध में अधिकृत रूप से सूचित नहीं किया गया है।

इसी मसौदे पर चर्चा के लिए जबलपुर में महाकौशल क्षेत्र के आदिवासी समुदाय, आदिवासी समाजिक संगठनों के पदाधिकारी और कांग्रेस के पूर्व आदिमजाति कल्याण मंत्री व विधायक उपस्थित थे। इस बैठक में ‘पेसा कानून’ की मंशा के विपरीत बनाए जा रहे नियम पर विस्तार से चर्चा कर इसे निम्नानुसार अधोलिखित किया गया है:-

(1) ग्रामसभा का संगठन करने के लिए ‘मध्यप्रदेश पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम – 1993’ की धारा-5 (क) का उल्लेख किया गया है, जबकि ‘पेसा कानून-1996’ की धारा-4 (ख) और (घ) के अनुसार ग्रामसभा के रूप में गांव समाज अपनी परम्परा के अनुसार कामकाज चलाने के लिए सक्षम है। पारम्परिक ग्रामसभा में रूढ़िगत रूप से ग्रामीण शामिल होते हैं, जिसमें बच्चे, अवयस्क युवक एवं युवती भी हैं। अतः ग्रामसभा को पारंपरिक तरीके से संचालित करने के लिए नियम में प्रावधान करना आवश्यक है।

(2) अनुसूचित क्षेत्रों की ग्रामसभा का ‘मध्यप्रदेश पंचायत राज एवं स्वराज अधिनियम-1993’ के तहत शक्ति और कृत्य का उल्लेख किया गया है, जबकि ‘पेसा कानून-1996’ की धारा-4(ङ) में ग्रामसभा के अधिकार और कृत्य का विस्तार से उल्लेख किया गया है। अतः ‘पेसा कानून’ में ग्रामसभा के वर्णित अधिकार और कृत्य के दायरे में इसे परिभाषित किया जाए।

(3) ग्रामसभा के सम्मिलन के लिए सदस्यों की कुल संख्या के एक दशमांश या ग्रामसभा के कुल पांच सौ सदस्य, इनमें से जो भी कम हों, से सदस्यों के कोरम की पूर्ति होगी। इसमें संशोधन कर ग्रामसभा के कुल सदस्यों की पचास प्रतिशत और महिलाओं की तैंतीस प्रतिशत भागीदारी अनिवार्य की जाए।

(4) यह सुनिश्चित किया जाए कि ग्रामसभा द्वारा विधि सम्मत एवं आर्थिक दृष्टी से संभव निर्णयों का परिपालन हो। परिपालन नहीं होने की स्थिति में सबंधित अधिकारी व कर्मचारी पर दंडात्मक कार्यवाही का प्रावधान किया जाए।

(5) सामुदायिक संसाधन को परिभाषित करते हुए लिखा गया है कि समुदाय के भू-भागीय क्षेत्र में जल, भूमि, वन, खनिज तथा अन्य संसाधन होंगे, जबकि गांव लोगों का स्वाभाविक रहवास है। उसकी भौगोलिक सीमाएं परम्परा से चली आ रही हैं। अपनी व्यवस्था स्वयं करने के प्रयोजन के लिए गांव का क्षेत्र विस्तार, उसकी औपचारिक कानूनी सीमाएं (भू-भागीय क्षेत्र) न होकर उसकी पारम्परिक समाजिक सीमाओं तक है।

(6) लघुवनोपज को ‘वन-अधिकार कानून-2006’ के अध्याय – (1) की कंडिका-2(झ) के अनुरूप परिभाषित किया जाए, जिसमें गौण वन उत्पाद के अतर्गत पादप मूल के सभी गैर-इमारती वनोत्पाद शामिल हैं, जिनमें बांस, झाङ, झंखाङ, ठूंठ, बैंत, तुसार, कोया, शहद, मोम, लाख, तेंदू या केंदू पत्ते, औषधीय पौधे और जङी-बूटियां, मूल, कन्द और इसी प्रकार के उत्पाद सम्मिलित हैं।

(7) प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा का उल्लेख करते हुए लिखा गया है कि ग्रामसभा उसके प्रबंधन में सक्रिय भूमिका निभाएगी, जबकि ‘वन-अधिकार कानून-2006’ की धारा-3(1)झ के अनुसार सामुदायिक वन संसाधन का संरक्षण, पुनर्जीवित या संरक्षित या प्रबंध करने का अधिकार ग्रामसभा को है, जिसकी वे सतत उपयोग के लिए परम्परागत रूप से संरक्षा कर रहे हैं। अतः सक्रिय भूमिका की जगह प्रबंध करने का अधिकार जोङा जाए।

(8) वनों के विभागीय कार्यक्रम हेतु ग्रामसभा के साथ परामर्श का उल्लेख किया गया है। परामर्श की जगह ग्रामसभा से चर्चा कर सहमति प्राप्त करना ज्यादा लोकतांत्रिक और पारदर्शी प्रक्रिया है।

(9) ग्रामसभा अपने क्षेत्र के गौण खनिज, जैसे-मिट्टी, रेत और पत्थर के उपयोग के सबंध में योजना बनाकर उसके अनुसार नियंत्रण करेगी, परन्तु ग्रामसभा के क्षेत्राधिकार में उपलब्ध हर तरह के खनिज जैसे कोयला, बाक्साइट, लोहा, तांबा आदि महत्वपूर्ण स्थानीय संसाधन हैं। इसको भी ग्रामसभा के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट किया जाए।

(10) भूमि अधिग्रहण के पूर्व-परामर्श का उल्लेख किया गया है। परामर्श की जगह ग्रामसभा की सहमति और उनके द्वारा पारित प्रस्ताव को बंधनकारी बनाया जाए, जिससे आदिवासी क्षेत्रों में ज़बरन विस्थापन को रोका जा सके।

(11) भू-अर्जन तथा पुनर्वास की कंडिका में ‘भू-अर्जन अधिनियम-1894’ का उल्लेख किया गया है, जबकि ‘भू-अर्जन, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम-2013’ लागू हो गया है। ‘भू-अर्जन अधिनियम-1894’ के जगह 2013 के इस अधिनियम का उल्लेख किया जाए। (11) बाजारों तथा मेलों पर नियंत्रण के लिए ‘ग्राम स्वराज अधिनियम-1993’ की धारा-58 का उल्लेख किया गया है, जबकि ‘पेसा कानून’ की धारा-4(ड) (iV) में ग्राम बाजारों, चाहे वे किसी भी नाम से ज्ञात हों, के प्रबंध करने की शक्ति ग्रामसभा को दी गई है। इसलिए ग्रामसभा द्वारा लिए गए निर्णय के अनुसार मेला व बाजार का प्रबंध ग्राम पंचायत करे। आदिवासी समाज के शोषण से मुक्ति और विकास में सहभागिता के लिए बाजार पर समाज का कारगर नियंत्रण अनिवार्य है।

साभार : सप्रेस

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