अति वंचित समुदायों की बड़ी दस्तक
अपनी आपबीती सुनाने और अपनी चाहतों का इज़हार करने का यह मौक़ा उन्हें अति वंचित समुदायों के जीने के अधिकार पर फोकस राज्य स्तरीय विमर्श के तहत मिला। इसका आयोजन गंगा प्रसाद वर्मा मेमोरियल हाल में हुआ। इसमें भदोही, जौनपुर, वाराणसी, इलाहाबाद, कौशाम्बी, फ़तेहपुर, उन्नाव, बाराबंकी, लखनऊ और ललितपुर से इन समुदायों के लगभग ढाई सौ लोगों ने भागीदारी की। इनमें महिलाओं की भागीदारी लगभग आधी थी।
सर्वे का दायरा था आठ जिलों (भदोही, जौनपुर, वाराणसी, इलाहाबाद, कौशाम्बी, फ़तेहपुर, उन्नाव और बाराबंकी) के 14 ब्लाक, 15 राजस्व गांव और अति वंचित समुदायों के 676 परिवार। बेशक़, यह सीमित दायरे की तसवीर है लेकिन व्यापक रूप से अति वंचित समुदायों के साथ नत्थी वंचनाओं की बानगी पेश करता है;
मनरेगा
मनरेगा इसलिए लागू हुआ कि ग्रामीण इलाक़ों में ज़रूरतमंद परिवारों को साल में सौ दिन काम मिले। इसमें अति वंचित समुदायों को पहली क़तार में होना चाहिए था। लेकिन उनकी कोई क़तार लगभग नहीं बन सकी। मनरेगा का फ़ायदा लेने के लिए जाब कार्ड का होना पहली शर्त है। लेकिन सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि 62 फ़ीसदी परिवार जाब कार्ड से वंचित हैं। उन्नाव में यह स्थित सबसे बुरी है जहां सौ फ़ीसदी परिवार जाब कार्ड से वंचित हैं। फ़तेहपुर, भदोही और कौशाम्बी में यह प्रतिशत 92 से 94 के बीच है। बाक़ी चार जिलों में यह प्रतिशत 72 से 55 के बीच है। पूरी रिपोर्ट पढ़े
विमर्श में यह सवाल प्रमुखता से उठा कि कल्याणकारी कार्यक्रमों और बुनियादी सेवाओं से वे वंचित क्यों हैं। यह मांग की गयी कि मनरेगा से लेकर राशन कार्ड, आंगनवाड़ी, आवास, शिक्षा, पेयजल, पेंशन, जमीन का पट्टा जैसे मामलों में उनके साथ हो रहे अन्याय को रोका जाये और उन्हें पूरा न्याय दिया जाये। विमर्श के पैनल में शामिल थे- इंडियन वर्कर्स कौंसिल के रामकृष्ण, हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अंबिका प्रसाद, पत्रकार अफज़ाल अहमद अंसारी समेत समुदाय की ओर से दो महिला प्रतिनिधि इलाहाबाद की सुदामा देवी और जौनपुर से परमशिला।
मुसहरों के बीच लंबे समय से काम कर रहे हरीराम वनवासी ने अपने समाज की भीषण गरीबी और बेबसी की तसवीर खींचते हुए माना कि हालात को बदलने के लिए सबसे पहले समाज को आगे आना होगा। गोरखपुर की राजकुमारी ने अपनी और अपने समाज की दुर्दशा का बयान किया और बताया कि मनरेगा के तहत नौ महीने पहले किये गये उनके काम की मजदूरी अभी तक बकाया है। इलाहाबाद की सरिता देवी के पिता की हत्या हुई लेकिन मामले की एफआईआर तक दायर नहीं हो सकी। समारू मदारी (जौनपुर), भगवान शंकर (उन्नाव), निर्मला देवी (वाराणसी), मुन्नी (गोरखपुर) आदि दर्जनों वक्ताओं ने अपनी बात बेबाकी से रखी।
बिहान की पहल पर आयोजित किये गये राज्य स्तरीय विमर्श का यह साझा आयोजन बिहान के अब तक के हस्तक्षेपों की अगली कड़ी के बतौर था ताकि शासन-प्रशासन के स्तर पर अति वंचितों के हित-अधिकारों को लेकर पैरवी का माहौल बने। संबंधित सरकारी विभागों और निकायों के ज़िम्मेदारों तक उनकी आवाज़ पहुंचे और उनमें आत्मविश्वास उपजे। शासन-प्रशासन और सामाजिक प्रयासों के बीच आपसी संवाद और तालमेल की शुरूआत हो। और इस तरह अति वंचितों की बेहतरी का रास्ता बने और जो आख़िरकार नीतिगत बदलाव की दिशा पकड़े।
बिहान जन अधिकारों के मोर्चे पर सक्रिय संस्थाओं, संगठनों और व्यक्तियों का साझा बैनर है और आठ जिलों में अति वंचित समुदायों के बीच जीने का अधिकार अभियान नाम की साझा दस्तक का संयोजन कर रहा है। विमर्श के सह आयोजकों में लोक हकदारी मोर्चा, जन केंद्रित विकास समिति और कासा शामिल थे।
विमर्श की शुरूआत में आयोजन के सरोकारों का सार संक्षेप पेश किया गया। यह आयोजकों की चिंताओं और बिहान के ताज़ा हस्तक्षेपों का ब्यौरा है। परचे की शुरूआत में कहा गया है कि; तमाम प्रावधानों और कल्याणकारी सरकारी कार्यक्रमों के बावजूद अति वंचित समुदायों की बस्तियों में केवल भूख है, बदहाली है, लाचारी है, बेकारी है… उन पर ज़ोर-ज़ुलुम की तपती धूप है और कहीं कोई छाया नहीं, सुनवाई के रास्ते लगभग बंद… ।
यह तसवीर सभी अति वंचित समुदायों की है। आज़ादी मिलने के बाद बहुत कुछ बदला। नहीं बदली तो यह तसवीर बल्कि कई गुना और गाढ़ी हो गयी। हालात इतने उल्टे हुए कि ख़ुद दुखियारे अपनी बेहतरी का सपना देखना तक भूल गये। यह स्थिति चमकते विकास के आंकड़ों का सबसे अंधेरा पहलू है।
साझेदारी की ज़रूरत को पेश करते हुए परचे में कहा गया कि; बेशक़, अति वंचित समुदाय अलग-थलग रह कर अपनी बेहतरी की जंग नहीं लड़ सकते। इसके लिए उनका संगठित और सक्रिय होना बुनियादी शर्त है। लेकिन केवल इतना भर पर्याप्त नहीं है। उन शक्तियों के साथ अति वंचित समुदायों की साझेदारी बेहद ज़रूरी है जो व्यापक जनता को इंसाफ़ दिलाने के लिए मैदान में हैं- विभिन्न ग़रीब समर्थक संगठन, नेटवर्क, आंदोलन, समूह और विभिन्न पेशों और तबक़ों से जुड़े सचेत व्यक्ति।
यह समझदारी ही अति वंचित समुदायों के जीने के अधिकार की हिफ़ाज़त और उनके सतत विकास की कुंजी बन सकती है।
ज़रूरत इस बात की है कि वंचनाओं से मुक्ति की चाहतों की धुनों पर व्यापक साझेदारी का गीत गूंजे और जो दूर तलक़ पहुंचे।
बहरहाल, हस्तक्षेपों की ताज़ा कड़ी में अभी छह माह पहले बिहान के घटक संगठनों/सदस्यों ने अपने-अपने इलाक़ों में, कुल 11 जिलों में, दलित और वंचित समुदायों ख़ास कर मुसहर, नट, कंजड़, हेला, फ़क़ीर, खुटकढवा, गिहार, मदारी, सपेरा, सहरिया, कबूतरा जैसी अर्ध घुमंतू जातियों की स्थितियों-परिस्थितियों का जायज़ा लिया। आठ जिलों में बाक़ायदा सर्वे हुआ। भले ही यह सर्वे चुनिंदा इलाक़ों तक सीमित था लेकिन उससे बख़ूबी अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आम तौर पर हालात कितने गंभीर हैं।
सर्वे बताता है कि इन समुदायों के सामने जीने का विकट संकट है और वे ग़रीबों के लिए चलायी जा रही विभिन्न सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की पहुंच से भी बाहर हैं। वे भूमिहीन हैं और उनकी आजीविका का मुख्य साधन मज़दूरी है। खेती के लगातार मंहगा और जोखिम भरा होते जाने और उसके अंधाधुंध मशीनीकरण के साथ खेती से जुड़े उद्योग-धंधों के ख़ात्मे ने मज़दूरी के मौक़ों को बुरी तरह घटाने का काम किया है। ज़ाहिर है कि लक्षित समुदाय पहले से कहीं अधिक भूख और कुपोषण की गिरफ़्त में हैं। बेघरी की समस्या से भी जूझ रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, स्वच्छता जैसी बुनियादी सहूलियतों से भी बहुत दूर हैं। व्यापक समाज में उन्हें जगह नहीं मिलती और पंचायतों में भी उनकी सुनी नहीं जाती। एक वाक्य में कहें तो अति वंचित समुदाय दूसरे दर्ज़े के नागरिक की हैसियत में घिसट-घिसट कर जीने को मजबूर हैं।
बहरहाल, सर्वे से निकले मुद्दों को लेकर जिला स्तरीय कार्यक्रम भी आयोजित किये गये ताकि अति वंचितों के पक्ष में जनमत बने और दबाव पड़े। इसी कड़ी में संबंधित जिला अधिकारियों के मार्फ़त शासन को ज्ञापन भी सौंपे गये।
(प्रस्तुति: आदियोग)