संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

निर्यात हेतु ‘जीएम’ बासमती नहीं, देशवासियों के लिए ‘जीएम’ सरसों क्यों?

खेती में अनेक सरकारी हस्तक्षेपों की तरह ‘जीन-संवर्धित’ बीजों को लाने के पीछे भी उत्पादन बढ़ाने का बहाना किया जा रहा है, लेकिन क्या बिना जांच-पड़ताल के किसी अज्ञात कुल-शील बीज को खेतों में पहुंचाना ठीक होगा? सरसों और धान में हाल में यही किया जा रहा है। प्रस्तुत है, ‘जीएम’ बीजों को लाने की जिद को उजागर करता राजेंद्र चौधरी का यह लेख;

अक्तूबर 2022 में ‘जीएम’ (जीनेटिकली मॉडीफाइड, जीन-संवर्धित) सरसों की सीमित उद्देश्यों के लिए खुले खेतों में खेती करने की अनुमति दी गई थी। देश भर में इस निर्णय पर बहस खड़ी हो गई, जिस के चलते हाल ही में ‘कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग’ के सचिव और ‘भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद’ के महानिदेशक ने एक स्पष्टीकरण जारी किया है। प्रभावी रूप में यह स्पष्टीकरण कम-से-कम चार महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े करता है।

कहा गया है कि ‘भारत सरकार ने निर्यात बाजार को ध्यान में रखते हुए बासमती पर कोई ट्रांसजेनिक विकास कार्य नहीं करने का निर्णय पहले ही ले लिया है।’ यह स्वीकारोक्ति है कि दुनिया के अधिकांश देश ‘जीएम’ फसलों का उपभोग नहीं करना चाहते इसलिए भारत सरकार बासमती के निर्यात को बनाए रखने के लिए ‘जीएम’ बासमती नहीं पैदा करना चाहती। फिर ‘जीएम’ धान एवं ‘जीएम’ सरसों क्यों? ‘जीएम’ सरसों की अनुमति दी जा चुकी है और हाल में जारी उपरोक्त स्पष्टीकरण के अनुसार ‘जीएम’ धान पर काम जारी है। जो तकनीक निर्यात के लिए उपयुक्त नहीं, उसी तकनीक से उत्पन्न खाद्य-पदार्थ देशवासियों को खाने के लिए क्यों विवश किया जा रहा है?

उपरोक्त स्पष्टीकरण में यह दावा किया गया है कि ‘जीएम’ सरसों ने परीक्षणों में 28 प्रतिशत  ज़्यादा पैदावार दी है, परन्तु इसके साथ ही यह आश्वासन भी दिया गया है कि ‘वर्तमान में विकसित संकर किस्मों के खिलाफ इसके प्रदर्शन का परीक्षण करने (पर) अगर ‘डीएमएच-11’ (धारा मस्टर्ड हाईब्रिड-11) काफी बेहतर पाया जाता है, तो इसे व्यावसायिक खेती के लिए जारी किया जाएगा।’ यानी स्पष्ट है कि जिस ‘जीएम’ सरसों के बीज को खुले खेतों में उगाने कि अनुमति दी गई है, उसकी पैदावार बढ़ाने की क्षमता पर संशय है एवं तुलनात्मक परीक्षण किये जाने हैं। फिर इसे खुले वातावरण में जारी करने की अनुमति ही क्यों दी गई? क्यों नहीं ये परीक्षण नियंत्रित वातावरण में किये जा सकते, जैसे कि पहले किये गए थे, जिनमें 28 प्रतिशत बढ़ोतरी का दावा किया गया है?

यह भी कहा गया है कि ‘एहतियाती सिद्धांत के रूप में, ‘जीईएसी’ (जीनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी) ने विकासकर्ताओं को रिलीज के पहले दो वर्षों के दौरान मधुमक्खी और परागणकों पर ‘जीएम’ सरसों के प्रभाव का डेटा तैयार करने का निर्देश दिया है।’ वैश्विक स्तर पर ‘एहतियाती सिद्धांत’ का अर्थ है, सुरक्षित साबित होने के बाद ही प्रयोग में लाना, परन्तु यहाँ अनुमति देने के बाद प्रभावों का अध्ययन किया जाएगा। ऐसे में दुष्प्रभाव सामने आने पर क्या होगा?

अमेरिकी गेहूं के साथ आये खरपतवार ‘कांग्रेस घास’ का कोई उपाय निकला है क्या? ‘जीएम’ बीजों के साथ सबसे बड़ा ख़तरा यही है कि खुले वातावरण में जाने के बाद इन पर कोई नियंत्रण नहीं रहता। बीज की बिक्री रोकी जा सकती है, परन्तु एक बार खुले खेत में जाने के बाद, न केवल इस पर किसी का नियंत्रण नहीं होता, अपितु यह गैर-‘जीएम’ बीजों को भी हमेशा के लिए प्रदूषित कर सकता है। किसी भी फसल के ‘जीएम’ बीजों के खुली हवा में जाने के बाद गैर-‘जीएम’ बीजों का शुद्ध बने रहना लगभग असंभव है।

यह स्वीकार करने के बाद कि इस बीज में ऐसा जीन डाला गया है जिस पर खरपतवार-नाशी या शाकनाशी का प्रयोग किया जा सकता है, यह कहकर पल्ला झाड लिया गया कि ‘केवल संकर बीज उत्पादन कार्यक्रम में इसका उपयोग किया जाना चाहिए, न कि संकर की व्यावसायिक खेती में।’ यह जानते हुए भी कि इस पर खरपतवार-नाशी का प्रयोग किया जा सकता है, इसलिए इस तथ्य को नज़रअंदाज़ किया गया, क्योंकि आवेदक ने इसके खरपतवार-नाशी सहनशील होने का दावा नहीं किया है। अनुमति पत्र में तो स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बिना अनुमति के खेत में खरपतवार-नाशी सहनशील इस फसल पर खरपतवार-नाशी का प्रयोग करने पर कानूनी करवाई होगी।

यह दावा करने के साथ कि जारी किये गए ‘जीएम’ बीज आवश्यक एवं पर्याप्त जांच में पूरी तरह से सुरक्षित पाए गए हैं, यह भी चेतावनी दी गई है कि अगर ‘अधिकृत या पूर्व-कर्मचारियों द्वारा इस विषय पर प्रकाशित की गई कोई भी राय या लेख नियामक अधिकारियों द्वारा किए गए दस्तावेजों और निर्णयों से अलग हैं, सार्वजनिक हित में आवश्यक किसी भी प्रशासनिक प्रक्रिया के अधीन हैं।’

होना तो यह चाहिए था कि अगर सरकार को अपनी जांच पर भरोसा था, तो सारे आंकड़े सार्वजनिक करके ‘जीएम’ सरसों को अवांछनीय और असुरक्षित साबित करने की खुली चुनौती देती, परन्तु यहाँ तो भूतपूर्व कर्मचारियों तक को सरकारी राय से मतभेद सार्वजनिक न करने की चेतावनी दी जा रही है। सरकारी स्पष्टीकरण से स्पष्ट है कि ‘जीएम’ सरसों असुरक्षित एवं अवांछनीय है।

जब तक ‘जीएम’ बीजों की स्वतंत्र एवं पारदर्शी पड़ताल की व्यवस्था नहीं हो जाती, जब तक इनका लम्बी अवधि का प्रयोग सुरक्षित साबित नहीं हो जाता, जब तक ऐसी व्यवस्था सुनिश्चित नहीं हो जाती कि किसी भी उपभोक्ता अथवा किसान को सचेत चयन के बिना ‘जीएम’ फसल खानी/बोनी न पड़े, जब तक ‘जीएम’ बीजों से अन्य बीजों के अनचाहे सम्मिश्रण को रोकने की पुख्ता व्यवस्था नहीं हो जाती, जब तक ‘जीएम’ फसलों से हुए नुकसान की जवाबदेही और भरपाई की व्यवस्था नहीं हो जाती, तब तक ‘जीएम’ फसलों पर रोक रहनी चाहिए। ‘जीएम’ बीजों और विशाल कम्पनियों आधारित तकनीकों को बढ़ावा देने के स्थान पर सरकार को खुद-मुख्त्यारी की खेती, आत्मनिर्भर किसान और स्वावलंबी गाँव को बढ़ावा देना चाहिए। देश को चाहिए, स्वावलंबी किसान और गाँव, न कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर निर्भरता।

साभार : सप्रेस; श्री राजेन्द्र चौधरी महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक, (हरियाणा) में प्रोफेसर रहे हैं।

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