संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

गांव तक पहुंचा, कचरे का कहर

कहा जाता है कि शहरी लोग कचरे का सर्वाधिक विसर्जन करते हैं, लेकिन अब यह व्याधि गांवों तक भी पहुंच गई है। प्रस्तुत है, इसी विषय पर प्रकाश डालता कुलभूषण उपमन्यु का यह लेख;

भारतवर्ष में प्रतिदिन 28 करोड़ टन ठोस कचरा पैदा हो रहा है जिसमें से 10.95 करोड़ टन ग्रामीण क्षेत्रों में हो रहा है। ग्रामीण भारत में तेजी से बदलती जीवन-शैली के चलते शहरी सुविधाएँ और उपभोक्ता वस्तुएं सुदूर ग्रामों तक पहुंच रही हैं। इस कारण एक बार प्रयोग होने वाला प्लास्टिक और अन्य भारी  पैकिंग में प्रयोग होने वाला प्लास्टिक, दवाई की बोतलें, शीशा, आदि दूर-दराज के गांवों तक पहुंच रहा है।

गांव में कोई कचरा-प्रबन्धन व्यवस्था न होने के कारण यह काम केवल अनौपचारिक कबाडियों के ही भरोसे है। कबाड़ी भी हर प्रकार का ठोस कचरा स्वीकार नहीं करते, केवल वही  कचरा लेते हैं जिसकी पुन:चक्रीकरण बाजार में अच्छी मांग हो। इस तरह केवल 10% कचरा ही उठ पाता है। शेष सडकों, खेतों, सिंचाई-व्यवस्थाओं, नदियों में खप रहा है।

आम लोग, जहां कचरा परेशानी देता है वहां इकट्ठा करके जला देते हैं। उन्हें इस बात का जरा भी भान नहीं होता कि प्लास्टिक से निकलने वाला धुआं स्वास्थ्य के लिए कितना हानिकारक है। इसी तरह बैटरियां और इलेक्ट्रॉनिक कचरा भी खतरनाक स्तर तक फैलता जा रहा है। यदि यही स्थिति बनी रही तो कोई हैरानी नहीं कि गांव कचरे से पटे टापू दिखने लगें।

पंचायती-राज को संवैधानिक दर्जा मिलने और स्वच्छता अभियान के बाद यह आशा जगी थी कि कोई रास्ता निकलेगा, किन्तु केवल जागरूकता से ही ऐसी पेचीदा समस्याओं का समाधान निकलना संभव नहीं होता। इसके लिए टिकाऊ, संस्थागत व्यवस्था होना जरूरी होता है, किन्तु पंचायतों में अभी ऐसी व्यवस्था पनप नहीं सकी है। पंचायत प्रतिनिधि और कर्मचारी दूसरे निर्माण कार्यों में व्यस्त रहते हैं और इस विषय पर कम ध्यान देते हैं। हालांकि कई जगह कचरा इकट्ठा करने के लिए कमरे बनाए गए हैं, किन्तु इसके लिए कर्मचारियों की व्यवस्था न होने के कारण लोगों से यह उम्मीद करना कि वे अपने-अपने घरों से कचरा उठाकर कचरा-घर तक पंहुचा देंगे, व्यवहारिक नहीं लगता।

पंचायतों को इस दिशा में सक्रिय करने के लिए विशेष फण्ड देकर सक्रिय किया जा सकता है। प्रति परिवार स्वच्छता-टैक्स लगाकर भी कुछ राशि इकठ्ठा की जा सकती है। स्थानीय दुकानदारों या अन्य व्यावसायिक संस्थाओं से भी कुछ राशि ली जा सकती है। ‘कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी’ (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी, ‘सीएसआर’) के तहत उद्योगों से भी पंचायतों को आर्थिक संसाधन प्राप्त करने के लिए मदद दिलाई जा सकती है। इस तरह आर्थिक व्यवस्था सुनिश्चित करने के बाद कचरा-घर के लिए स्थान तय करके निर्माण के बाद सौ, डेढ़ सौ घरों पर एक कार्यकर्त्ता रखना होगा जो रोज घर-घर जाकर कचरा इकठ्ठा करके कचरा-घर पहुंचा सके।

इससे पहले प्रत्येक घर तक यह जागरूकता पंहुचाना जरूरी है कि वे प्लास्टिक कचरा व अन्य सूखा कचरा अलग-अलग इकठ्ठा करें, रसोई का गीला कचरा खाद बनाने के लिए गड्ढा बनाकर इस्तेमाल करें और बैटरियां व अन्य इलेक्ट्रॉनिक कचरा अलग रखें। इनको अलग-अलग करने के बाद ही कचरे का उपचार किया जा सकता है। यह बात लगातार निवासियों को समझते रहना पड़ेगा, ताकि कोई ढील न आ जाए। बैटरियां और इलेक्ट्रॉनिक कचरा अलग से बेचने की व्यवस्था की जाए। जो प्लास्टिक कबाड़ी उठा ले वह बेच दिया जाए, अन्य गत्ता आदि भी बेच दिया जाए। इसके बाद जो कचरा बच जाए उसके निपटान की व्यवस्था सरकार को करनी होगी। इसके लिए सीमेंट प्लांट और अन्य ईंधन की मांग रखने वाले उद्योगों से बात की जा सकती है या फिर किसी केंद्रीय स्तर पर इन्सिनरेटर लगाकर ऐसे कचरे को जलाकर बिजली भी बनाई जा सकती है।

इन्सिनेरेटर में प्लास्टिक जलाने से हानिकारक धुआं वातावरण में फैलने का खतरा रहता है, कितु आजकल अत्याधुनिक तकनीक से बने इन्सिनेरेटर बहुत मामूली धुआं ही छोड़ते हैं जिनमें 98.8% धुआं जलकर समाप्त हो जाता है। कुछ प्लास्टिक उच्च तापमान पर गर्म करके डीज़ल ईंधन में तब्दील किए जा सकते हैं। इस तर पूरी व्यवस्था को नए सिरे से खड़ा करके कचरे से गांवों को बचाया जा सकता है। जो कंपनियां अपने माल को पैक करके कचरा फैलाती हैं उनको भी जिम्मेदार बनाया जा सकता है कि वे कचरा वापिस लें। जैसे शीतल-पेय की शीशे की बोतलें लगातार कंपनियां वापिस लेती हैं।

ये सब करने के बाद भी हो सकता है कि कुछ कचरा बच जाए। उसके डंपिंग के लिए सुरक्षित जगह निश्चित हो जहां जलस्रोतों और जमीन को कोई खतरा न हो। इसमें ग्रामीण समाज की बड़ी जिम्मेदारी बनती है क्योंकि कचरे की हानियों से वे ही शिकार होते हैं। इसलिए व्यापक जन-जागरूकता अभियान साथ-साथ चलते रहने चाहिए, लेकिन प्रबन्धन व्यवस्था स्थापित किए बिना जागरूकता भी असफल ही सिद्ध होती है।

साभार : सप्रेस; श्री कुलभूषण उपमन्यु स्वतंत्र लेखक हैं। हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष हैं।

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