संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

भूमि अधिग्रहण संशोधन बिल 2015 : भूमि संशोधनों में कितना है दम !

नौ संशोधन और दो उपनियमों के साथ भूमि अधिग्रहण संशोधन बिल-2015 लोकसभा में मंजूर हो गया। प्रत्येक संशोधन व उपनियम पर क्रमवार टिप्पणी करता अरुण तिवारी का महत्वपूर्ण आलेख;

लोकसभा में विपक्ष ने 52 संशोधन सुझाये थे। वे सभी गिर गये। सरकार, नौ सुधार ले लाई। नौ घंटे चली लंबी चर्चा के बाद वे सभी अपना लिए गये। दो उपनियम और जुङे। मतों की बाजीगरी में अल्पमत को हारना ही था; वह हार गया। बहुमत विजयी रहा। किंतु क्या देश जीता या जीत फिर भी किसी एक वर्ग, पार्टी, गठबंधन या सत्ता की ही हुई ? यह समझने के लिए तो हमें समझना 52 जमा 9 यानी सभी 61 संशोधनों को ही होगा। किंतु माध्यम और आपके समय की सीमा को देखते हुए अगर लोकसभा द्वारा मंजूर संशोधनों पर ही गौर करें तो ही काफी जवाब मिल जायेगा। आइये, गौर करें:

  1. प्राइवेट पार्टनरशिप प्रोजेक्ट के तहत् आने वाली सामाजिक ढांचागत परियोजनायें अब छूट वाली श्रेणी में नहीं रहेंगी।
भूमि अर्जन, पुनर्वासन एवम् पुनव्र्यवस्थापन में उचित प्रतिकार और पारदर्शिता अधिकार कानून – 2013 ने निजी कंपनियों द्वारा भूमि अधिग्रहण में 80 प्रतिशत भूमि मालिकों की सहमति तथा प्राइवेट पार्टनरशिप प्रोजेक्ट (पीपीपी) यानी सरकार और निजी साझेदारी से निर्मित अथवा संचालित होने वाली ढांचागत परियोजनाओं के मामले में 70 प्रतिशत भूमि मालिकों की सहमति का प्रावधान रखा था। मोदी सरकार द्वारा दिसम्बर, 2014 में लाये संशोधनों ने पांच श्रेणियां बनाईं, जिन्हे भूमि मालिक से सहमति लिए बगैर भूमि अधिग्रहण की छूट होगी: रक्षा, ग्रामीण ढांचागत् निर्माण, लोगों की क्षमता के भीतर कीमत वाले रिहायशी मकान, औद्योगिक तथा पीपीपी श्रेणी की परियोजनायें।

इस पृष्ठभूमि के आइने में देखें, तो लोकसभा द्वारा अपनाये प्रथम संशोधन का मतलब है कि अब पीपीपी श्रेणी के तहत् आने वाली स्कूल, अस्पताल, सङक, नहर आदि सामाजिक विकास की ढांचागत परियोजनायें हेतु भूमि अधिग्रहण हेतु अब भूमि मालिक की सहमति लेनी होगी।
ध्यान रहे कि इसका एक मतलब यह भी है कि पीपीपी श्रेणी की अन्य सभी परियोजनायें अभी भी किसानों की सहमति के बगैर ज़मीन ले सकेंगी।
2. आदिवासी भूमि के अधिग्रहण हेतु पंचायत की सहमति जरूरी होगी।
जाहिर है कि इस संशोधन का मकसद यह सुनिश्चित करना है कि आदिवासियों की मर्जी के बगैर ज़मीन न ली जा सके। आजकल पंचायतें जिस तरह राजनैतिक दल की बंधक और भष्ट्राचार की नर्सरी बनती जा रही हैं, उनसे पंचायतें की निष्पक्षता सवालों के घेरे में पहले से है ही। ऐसे में यह प्रावधान पंच-प्रधानों की दलाली और बढायेगा। यूं तो ज़मीन जिसकी है, सहमति उसकी ली जानी चाहिए, न कि पंचायतों की। फिर भी यदि सरकार संवैधानिक ढांचागत इकाई को ही प्रमुखता देना चाहती है तो वह गौर करे कि ग्रामसभा, ग्रामीणों की प्रतिनिधि सभा है, न कि पंचायत। अतः पंचायत के साथ-साथ ग्रामसभा सदस्यों की सहमति लेना भी जरूरी बनाया जाये।

3. खेतिहर मजदूर के परिवार के एक सदस्य को नौकरी देना आवश्यक होगा।

खेतिहर मजदूर वह होता है, जो दूसरे की ज़मीन पर खेती कार्य में मज़दूरी करता है। यदि इस संशोधन का आशय यह है कि अधिग्रहित की जाने वाली भूमि पर काम करने वाले मज़दूर के परिवार के एक सदस्य को नौकरी देना आवश्यक होगा, तो यह अंतिम जन की चिंता करने का काम है। यूं इसकी सराहना तो होनी चाहिए, किंतु कोई किसी के खेत पर मज़दूरी करता है, यह सिद्ध करना ही मुश्किल होगा। यदि सिद्ध हो भी गया और खेतिहर मज़दूर को नौकरी मिल भी गई तो इससे उसका क्या लाभ होगा, जिस किसान की ज़मीन गई ?
इस प्रश्न के पीछे छिपा पहलू काफी नकरात्मक नतीजे लाने वाला है। जैसे ही भू-मालिक किसानों को पता चलेगा कि ज़मीन जाने पर नौकरी उनकी बजाय खेतिहर मज़दूर को मिलेगी, वे इस भावी भय से आशंकित होकर अपनी ज़मीन को दूसरों को किराये/ठेके/मज़दूरी पर देना ही बंद कर देंगे। अभी ही कितने की किसान अपनी ज़मीन को लगातार कई वर्षों तक एक परिवार को किराये पर सिर्फ इसलिए नहीं देते, कि कहीं सरकार कोई ऐसा नियम ले आई कि ज़मीन उसकी होगी, जो खुद उस पर खेती करेगा, तो ज़मीन उनके हाथ से चली जायेगी।

यदि इस संशोधन में खेतिहर मज़दूर से मतलब भू़-मालिक किसान है, तो सरकार समझे कि किसान, मज़दूर नहीं होता वह अपनी खेती का खुद मालिक होता है। वह भाषा बदले। खेतिहर मज़दूर की जगह ऐसा लिखे कि भूमि मालिक तथा अपनी आजीविका के लिए उस भूमि पर निर्भर खेतिहर मज़दूर के परिवार के एक सदस्य को नौकरी देना आवश्यक है।

यहां यह स्पष्टता भी आवश्यक है कि नौकरी किसे मिलेगी, इसका चयन करना परिवार का अधिकार होगा। नौकरी, अभ्यर्थी की शिक्षा और हुनर के अनुरूप दिया जायेगा। यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि जिस परियोजना के लिए ज़मीन ली जायेगी, नौकरी उसी परियोजना में दी जायेगी। वैसा संभव न होने पर लिखा जाये कि उसके निवास स्थान के जिले की परिधि के भीतर ही दी जायेगी। अभ्यर्थी की इच्छा हो, तो ही उसे जि़ले के बाहर नौकरी दी जायेगी। नौकरी ठेका आधारित हो अथवा स्थाई ? यह सवाल भी काफी दिक्कतें पैदा करने वाला है। स्पष्ट करना यह भी जरूरी होगा कि जिस परिवार में सभी अनपढ होंगे, उन्हे मिलने वाली नौकरियां क्या होंगी ?

4. सरकार, सरकारी निकाय तथा निगमों के लिए भूमि अधिग्रहण कर सकती है।
यह संशोधन का मंतव्य प्रशंसनीय है। इसमें भाषा सुधारकर और स्पष्ट करना चाहिए कि सरकार को सिर्फ और सिर्फ सरकारी निकाय तथा शासकीय निगमों के लिए ही ज़मीन का अधिग्रहण करने के लिए अधिकार होगा।

5. दिक्कत अथवा शिकायत होने पर किसानों को जिला स्तर पर ही अपील करने का अधिकार होगा।
ऊपरी तौर पर देखें तो चैथा संशोधन उचित मालूम होता है, किंतु ये संशोधन यह सुनिश्चित नहीं करता कि भूमि मालिक को उसकी मर्जी के बगैर ज़मीन न देने की स्वतंत्रता होगी। सोचिये, क्या चैथा संशोधन पहले से कलेक्टरेट, दीवानी और तहसील के चक्कर लगा रहे ग्रामीणों का एक चक्कर और बढाने वाला ही साबित नहीं होगा ? ज़मीन, गांव का प्राण होती है। क्या इस संशोधन से गांव के प्राण, जिला प्रशासन की कृपा के अधीन नहीं हो जायेंगे ?

मेरा तो मानना है कि चैथा संशोधन, 70/80 प्रतिशत भूमि मालिकों से सहमति लिए बगैर ज़मीन अधिग्रहण न करने वाले मूल प्रावधान का विकल्प नहीं हो सकता। यह संशोधन, पहले से दलाली और भ्रष्टाचार का अड्डा बने जिला कलेक्टरेट को और भ्रष्ट होने का आधार नहीं दे देगा ? यह गांव को और बेचारा बनायेगा। इस संशोधन को हटाकर भू-मालिकों की सहमति वाले प्रावधान को लाया जाये।

6. भूमि मालिक की शिकायत/अपील की सुनवाई हेतु व्यवस्था बनाई जायेगी, ताकि बिना परेशानी उसका निपटारा हो सके।
चैथा संशोधन हटाकर सहमति के मूल प्रावधान को लाने के पश्चात् पांचवें संशोधन का कोई मायने नहीं रह जायेगा।


7. पूर्व संशोधन में लिखे गये ’प्राइवेट एन्टेटी’ शब्द को बदलकर ’प्राइवेट एंटरप्राइजेज’ किया गया है।
’प्राइवेट एन्टेटी’ शब्द निजी के दायरे को निजी कंपनियों से बढाकर अन्य कारपोरेट उद्देश्य तथा गैर-लाभकारी संगठनों द्वारा संचालित परियोजनाओं को भी शामिल करता है। इसे सुधारकर वापस ’प्राइवेट एंटरप्राइजेज’ यानी निजी उद्यमों तक सीमित करना अच्छा है।

8. औघोगिक गलियारे के लिए रेलवे लाइन और राजमार्गों के दोनो ओर एक-एक किलोमीटर के दायरे में मौजूद भूमि का ही अधिग्रहण किया जायेगा।

सरसरी निगाह में यह संशोधन उचित मालूम होता है, किंत यह उचित है नहीं। गौर करें कि हाल के वर्षों में हमारी सरकारों ने क्या किया है। गंगा एक्सप्रेस वे, यमुना एक्सप्रेस वे से लेकर दिल्ली-मुंबई औद्योगिक काॅरीडोर तक के प्रयास इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं कि सरकारों को जहां-जहां उद्योग स्थापित करने हुए, वे वहां-वहां पहले राजमार्ग अथवा एक्सप्रेस वे ले गये। अतः यह सीमा रेखा सीमित होकर भी असीमित है। सरकार तो सामाजिक ढांचागत विकास के नाम पर जब चाहेगी, जहां चाहेगी. कहीं भी राजमार्ग और रेलवे लाइन बनायेगी और फिर वहां उद्योग को ले जायेगी।

अतः आठवें संशोधन को उचित बनाने के लिए रेलवे लाइन और राजमार्गों के स्थान पर ”भूमि अर्जन, पुनर्वासन एवम् पुनव्र्यवस्थापन में उचित प्रतिकार और पारदर्शिता अधिकार कानून बनने की तारीख से पूर्व मौजूद रेलवे लाइन और राजमार्गों’’ लिखना होगा। अलबत्ता, तो पहले से मौजूद राजमार्गों और रेलव लाइनों के एक किलोमीटर के दायरे में ही इतनी ज़मीन मौजूद है कि अगली एक सदी तक उद्योगों के लिए अतिरिक्त ज़मीन की जरूरत ही नहीं पङेगी। फिर भी यदि भविष्य में और जरूरत हुई तो इसके लिए यह लिखा जा सकता है कि अगले पांच दशक बाद इस संशोधन पर पुनर्विचार करना अच्छा होगा।

इसमें यह स्पष्ट करना जरूरी और बेहतर होगा कि रेलवे लाइन और राजमार्गों के दोनो ओर एक किलोमीटर के दायरे में आने वाली किस भूमि का अधिग्रहण किया जा सकेगा और किस भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जा सकेगा। मसलन, नदियों में प्रदूषण मुक्ति के मद्देनजर, यह मांग कई वर्षों से उठ रही है कि नदी भूमि से कम से कम पांच किलोमीटर की दूरी में किसी भी नई औद्योगिक इकाई को लगाने की इज़ाजत न दी जाये। पुरानी इकाइयां धीरे-धीरे वहां से विस्थापित की जायें।

औ़द्योगिक विभाग को राष्ट्रीय स्तर पर यह सीमा रेखा बनाने की जरूरत ज्यादा है कि किस उत्पाद और कितने उत्पादन लक्ष्य के लिए अधिकतम कितनी ज़मीन का अधिग्रहण किया जा सकता है ? असली सीमा रेखा इसी से बनेगी। पूरी तरह विचारकर ऐसी कई और सीमायें बनाने की जरूरत है।
9. औद्योगिक गलियारे की भूमि पर सीलिंग यानी उच्चतम मूल्य देने का प्रावधान होगा।

इस संशोधन की सराहना करें, किंतु स्पष्ट कर लें कि उच्चतम मूल्य का मतलब क्या है और इसका निर्धारण कैसे होगा ?

उपनियम

1. एक उपनियम के मुताबिक, सरकारी परियोजनाओं के लिए किसानों की बहुफसली ज़मीन नहीं ली जायेगी।
गौरतलब है कि बहुफसली ज़मीन का मतलब, कम से कम दो फसली ज़मीन होता है। एक फसली ज़मीन आम तौर पर बंजर, ऊसर, टांड अथवा बीहङ श्रेणी की मानी जाती है।

झारखण्ड, बुंदेलखण्ड, राजस्थान और गुजरात से लेकर देश के कई हिस्सों में इलाके के इलाके ऐसे हैं, जहां पूरी की पूरी ज़मीन एक फसली ही है। ऐसे इलाके में यदि किसी अधिग्रहण में किन्ही ग्रामवासियों की पूरी की पूरी ज़मीन ही चली जाती है, तो वह क्या करेगा ? जाहिर है कि आप कहेंगे कि उसके परिवार के एक सदस्य को नौकरी तो मिलेगी ही, मुआवजा भी मिलेगा। मुआवजा राशि से कोई कारोबार करेगा। आपका उत्तर उचित है। किंतु ग्रेटर नोएडा, नोएडा, लोनी से लेकर पश्चिम में पंजाब और पूर्व में झारखण्ड तक के अनुभव उचित नहीं हैं। दादा की बनाई ज़मीन का मोल पोता नहीं जानता। एक साथ आये पैसे को संभालना सभी के बस का नहीं होता। इस अचानक आये पैसे ने देश के कई इलाकों को ऐय्याशी, अपराध, बेरोजगारी अथवा निकम्मेपन की गिरफ्त में लिया है।

गौर करने की बात है कि गांव की परंपरागत कारीगर जातियों के लोग आमतौर पर खेती योग्य भूमि के मालिक नहीं हैं। खेती योग्य भूमि के मालिक का असल हुनर खेती ही ही है। खेत खो जाने पर वह क्या करेगा ? मोदी जी ने मनरेगा का मज़ाक उङाया। वह भूल गये कि अधिग्रहण में किसान के पास एक विकल्प तो यह बचेगा कि वह दूर कहीं जाकर मनरेगा की मज़दूरी करे।

वह यह भी भूल गये कि भूमि जाने पर भू-मालिक का सिर्फ अपनी ज़मीन से पलायन नहीं होता; रिश्ते-नाते, संस्कृति और परिवेश से भी पलायन होता है। ग्रामीण को अपने से ज्यादा अपने रिश्ते-नाते और खेती का संबल होता है। नये इलाके में जाकर ये सभी संबल फिर से खङे करना अपने आप में एक चुनौती होती है। बिहारी, पंजाबी और मारवाङी इस चुनौती का सामना करने के लिए मशहूर रहे हैं। इन तीनों ने ही  ने देश और दुनिया के हर कोने में जाकर ऐसी चुनौतियों पर विजय पाई है। यही इन तीनों की तरक्की का मूल कारण भी है। किंतु अभी आम ग्रामीणों के लिए ये चुनौतियां खङे करने का काम आपात् स्थितियों में ही होना चाहिए।
यहां बागीचों को लेकर एक महत्वपूर्ण चिंता पर गौर करना भी जरूरी है।

बागवानी में आने वाली कई फसलें साल में एक ही फसल देती हैं; तो क्या उनका अधिग्रहण हो सकेगा ? अभी-अभी देश ने बागवानी की तरफ कदम बढाये हैं। अभी-अभी देश के कुपोषित आबादी की पहंुच फलों तक होनी शुरु ही हुई है। राष्ट्रीय बागवानी मिशन के सहयोग से भारत में ऐसी बहुत सी भूमि बागवानी की अनुपम मिसाल बनकर उभरी है।

समझना होगा कि बागवानी सिर्फ फल ही नहीं देती, किसान को समृद्धि, सेहत और वायुमण्डल कोे ढेर सारी आॅक्सीजन देती है। मेरा मानना है कि बागवानी की ज़मीन को बहुफसली की श्रेणी में रखकर अधिग्रहण से मुक्ति सुनिश्चित किया जाये। बागवानी भूमि का अलग से रिकाॅर्ड रखने की भी जरूरत है।

2. बंजर ज़मीन का अलग से रिकाॅर्ड रखा जायेगा।
यह अच्छा विचार है। किंतु इसके साथ सावधानी और शर्त जरूरी है। पहली, यह कि सरकार बंजर ज़मीन का रिकाॅर्ड तो रखे, लेकिन उसका अधिग्रहण तभी करे, जब उसकी जरूरत हो। दूसरा, यह तय करना चाहिए कि प्राथमिक तौर पर बङी काश्तकारी वाले इलाकों की बंजर ज़मीनों का ही अधिग्रहण किया जायेगा। बुंदेलखण्ड, उत्तराखण्ड सरीखे इलाके देश की आबोहवा की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण  पर्यावरणीय टापू हैं। ऐसे इलाकों में किस प्रकार की परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण हो और किस प्रकार की परियोजना के लिए न हो, यह सुनिश्चित करना जरूरी है।

सरकार का काम व्यापारी मुनाफा कमाना अथवा प्राॅपटी डीलर की भांति कमीशन कमाना नहीं है। फिर भी सरकारी विकास प्राधिकरण किसान ने औने-पौने दामों में ज़मीनें खरीदते हैं और उन्हे अत्यंत मंहगे दामों में हम नागरिकों को बेचते हैं। किसी भी श्रेणी के मकानों अथवा भूखण्डों का आकलन कर लीजिए, विकास प्रााधिकरण यही कर रहे हैं। इसे रोकने के लिए जरूरी है कि भूमि जिस दाम पर भूमि मालिक से ली जाये, उस राशि पर बैंक दर से ब्याज तथा उस भूमि को विकसित करने के लिए किए निर्माण आदि कार्य की वास्तविक लागत को सार्वजनिक किया जाये। ज़मीन अथवा उस पर निर्मित इमारत का बिक्री मूल्य वही हो, जो वास्तविक लागत मूल्य है।

गौर करने की एक बात यह है कि केन्द्र और राज्य.. दोनो स्तर पर बंजर, ऊसर, टांड और बीहङ भूमि के विकास का कार्य किया जा रहा है। कोई भी बंजर ज़मीन, तीन साल के समय में उपजाऊ बनाई जा सकती है। एक फसली को दो फसली बनाने में भी अधिकतम यही समय लगता है। अतः एक सरकार यह भी सुनिश्चित करे कि जो-जो भूमि, बंजर तथा एक फसली से क्रमशः उपजाऊ तथा दो फसली अथवा बागवानी में तब्दील होती जायेगी, उसेे रिकाॅर्ड से बाहर किया जाता रहेगा।

उक्त संशोधनों और उस पर इस टिप्पणी का लब्बोलुआब जो हो, एक बात का शुकून शायद सभी को होगा कि जंतर-मंतर की ज़मीन से शुरु हुई बहस थोङी सार्थक हुई है। इसके बहाने किसानों की चिंता के कुछ अन्य पहलू भी लोकसभा और नीतिकारों के सामने आये हैं। भूमि संशोधन बिल पर राज्य सभा में मत विभाजन से पहले सरकार द्वारा आगे कुछ और संशोधन पेश करने के संकेत मिले हैं। दुआ कीजिए कि बिल के ज़मीन के उतरने से पहले केन्द्र और राज्यों की सरकारें ज़मीनी हो जायें।

इसको भी देख सकते है