संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

नदी जोड़ परियोजना केे खतरे

मोदी सरकार ने नदी जोड़ परियोजना को नए सिरे से प्राणवायु देने का फैसला कर लिया है। इस परियोजना से होने वाले लाभ हानि की गणना करने में की गई चुक बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकती है। नदी जोड़ परियोजना की विसंगतियों को उजागर करता सप्रेस से साभार डॉ.ओ.पी.जोशी का सामयिक आलेख; 

जनवरी 2015 में दिल्ली में आयोजित भारत जल सप्ताह में पर्यावरणविदों द्वारा जारी चिंताओं को नजरअंदाज कर भाजपा नीत सरकार नेे घोषणा की कि प्राथमिकता के आधार पर हर हालत में नदियां आपस में जोड़ी जाएंगी एवं रास्ते में आनेवाली बाधाओं को दूर किया जावेगा। अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार ने सन् 2002 में 5,67000 करोड़ रु. की नदी जोड़ योजना को अमृत क्रांति नाम देकर प्रारम्भ किया था। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशनुसार इसे दिसम्बर 2016 तक पूरा किया जाना था। इस योजना के पीछे प्रमुख तर्क यह दिया गया था कि इससे सिंचाई एवं बिजली उत्पादन में जो बढ़ोत्री होगी जिससे सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) लगभग 4 प्रतिशत बढ़ेगी। इसके अन्तर्गत लगभग 3करोड़ 50 लाख हेक्टर में सिंचाई तथा 34 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन की सम्भावना बतायी गयी थी। देश के सूखे क्षेत्रों में 173 अरब क्यूबिक मीटर पानी पहूँचाने तथा जल परिवहन को बढ़ावा देने के साथ-साथ कई अन्य लाभों के भी गुणगान किये गये थे।

वर्ष 2004 में केन्द्र में बनी डॉ. मनमोहन सिंह सरकार ने इस योजना पर अध्ययन एवं सर्वेक्षण करवाते हुए इसे जारी रखा। इस सभी कार्यों पर सरकार के 50 करोड़ रूपये खर्च हुए थे। सितम्बर 2009 को गंगा प्राधिकरण की बैठक के बाद तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इसे बंद करने को घोषणा कर दी थी। इसे रद्द करने का आधार यह बताया गया कि जनता को जादुई आंकडो़ पर ध्यान न देकर   वास्तविकता समझनी चाहिये क्योंकि इस परियोजना के घातक मानवीय, आर्थिक, पारिस्थितिकीय एवं सामाजिक परिणाम घातक होंगे। परियोजना रद्द करने की इन बातों को यदि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर देखा जाए तो इस सम्भावित परिणामों को एकदम नकारा नहीं जा सकता है वैसे भी प्रकृति मनुष्यों द्वारा दिये आंकड़ों एवं नियमों के अनुसार नहीं चलती है।

किसी भी परियोजना को अपने पक्ष में करने हेतु सरकारें आंकड़ों का ऐसा चित्र जनता के सामने प्रस्तुत करती है कि उसमें सब कुछ लाभ ही लाभ दिखायी देता है। देश में बड़े    बांधों को स्थापित करते समय जो लाभ बताये गये थे उनमें से कई तो आज तक प्राप्त नहीं हुए। वर्तमान में दुनिया मंदी के दौर से गुजर रही है एवं देश की आर्थिक हालत भी कोई बहुत ज्यादा मजबूत नहीं है, वहीं शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बजट में कमी की जा रही है। ऐसी हालत में इतनी व्यापक एवं मंहगी योजना लागू करना कहां तक उचित है ? योजना पूर्ण होते होते इसकी लागत बतायी गयी राशी से कई गुना अधिक होगी, तो आखिर इतनी राशि कहां से आएगी ?

वित्त एवं कम्पनी कार्य के राज्यमंत्री ने वर्ष 2002 में ही जानकारी दी थी कि देश में प्रति व्यक्ति पर 13384 रूपये का कर्ज है। हिसार के एक आर. टी .आय. कार्यकर्ता को वित मंत्रालय ने जानकारी दी है कि दिनांक   11.12.14 को देश पर 67.9 अरब डालर का विदेशी कर्ज है। इतने कर्ज में डूबा  देश इस योजना से और कितने कर्ज में डूबेगा? देश की भौगोलिक स्थिति में जहां पहाड़, मैदान, जंगल, चरागाह ,तालाब ,झीलें ,रेगिस्तान एवं बड़ा समुद्री किनारा है वहां  यह योजना किस हद तक सफल होगी? हमारे यहां नगरों एवं महानगरों में जब सड़कें चौड़ी की जाती हैं या अतिक्रमण हटाये जाते हैं तो हजारों लोग न्यायालय से स्थगन आदेश ले आते हैं एवं कार्य रुक जाता है तो फिर देशभर में फैलने वाली इस योजना पर कितने स्थगन आदेश आएंगे एवं कहां कहां कार्य रुकेगा? इस परिस्थितियों में योजना अपने निर्धारित समय से पूरी नहीं होगी एवं लागत बढ़ती जावेगी।

इतनी बड़ी योजना के पीछे सबसे बड़ी त्रासदी विस्थापन एवं पुनर्वास की होगी। इस योजना से 3.5 से 5 करोड़ लोगों को विस्थापन सम्भावित है। वैसे भी पुनर्वास का इतिहास देश से अच्छा नहीं है। कई बड़े बांधों के कारण विस्थापित लोगों का पुनर्वास सही ढंग से नहीं हुआ। दक्षिण के नागार्जुन सागर के कई विस्थापितो को अपने बच्चे तक बेचना पड़े हैं। बड़े बांधों एवं नहरों से सिंचाई के कारण गाद जमा होने, दलदलीकरण एवं लवणीकरण की जो समस्याएं पैदा हुई, वे इस योजना में भी पैदा होगी। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मध्य एशिया व पाकिस्तान मे किये गये कुछ अध्ययनों के अनुसार जहां नदियों का पानी समुद्र में जाने से रोका गया वहां भूमि में क्षारियता बढ़ी एवं धीेरे धीरे बंजर हो गयी। हमारे देश की नदियां अपने अपने जलप्रवाह क्षेत्रों से लगभग 2 करोड़ 68 लाख 30 हजार घनमीटर पानी महासागरों में पहुंचाते है।

सतत तटीय प्रबंधन राष्ट्रीय केन्द्र के निर्देशक ने हमारे देश मे किये गये अध्ययन के आधार पर बताया है कि जैसे जैसे ताजे पानी के बहाव को समुद्र में जाने से रोका जाता है वैसे वैसे डेल्टा सिकुड़ जाते हैं या डूब जाते हैं। देश को नदियों के संदर्भ दो महत्वपूर्ण बातें हैं, प्रथम, तो यह कि इनमें वर्ष भर जल की समान मात्रा नहीं रहती है एवं दूसरी ,यह कि सारी नदियों में प्रदूषण का स्तर अलग अलग है एवं वह भी जल की मात्रा अनुसार बदलता रहता है। इस संदर्भ में जल की अधिकता के समय बाढ़ नियंत्रण एवं कमी के समय सूखे से रोकथाम किस प्रकार होगी? नहरों, जलाशयों एवं दलदलों से जलजलित रोग भी बढ़ते हैं। सूखाग्रस्त इथोपिया में जब सिंचाई कार्य का विस्तार किया तो मलेरिया में 10 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी। हमारे देश में भी हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान ने कहां कि नागार्जुन व तुंगभद्रा बांधों के कारण  आंध्रप्रदेश, कर्नाटक एवं तमिलनाडु के किसानों में घुटने की एक बीमारी (लाकनी) फैली है। नदियों के मार्ग बदलने एवं नहरों से पानी पहुंचाने का स्थानीय जीवांे पर भी विपरीत प्रभाव होता है।

सतलज का पानी इंदिरा गांधी नहर से जब थार के रेंगिस्तान मे पहुंचाया गया तो वहां स्थानीय पौधांे की 150 तथा पक्षियों की 20 प्रजातियां धीरे धीरे विलुप्त हो गयी। जलवायु परिवर्तन की बातें अब स्थापित हो चुकी है अतः इस योजना को इस आधार पर भी पुनः आर्थिक,सामाजिक,तकनीक, मानवीय, भौगोलिक सांस्कृतिक, पारिस्थितिकीय एवं कृषि के पक्षों पर विशेषज्ञों द्वारा वैज्ञानिक आधार पर पारदर्शिता से अध्ययन करवाना चाहिये। ज्यादातर तकनीकी लोग नदियों को सिंचाई एवं बिजली उत्पादक के भाव देखते हैं जो एकदम ठीक नहीं है। प्रत्येक नदी अपने आप में एक ईकोतंत्र है। उसके अपने पानी के गुण हैं, बहाव है, अपना क्षेत्र है एवं कई प्रकार की वनस्पतियों के साथ साथ शाकाहारी व मांसाहारी जीव भी है। गंगा डाल्फिन मछलियों के लिए   उपयुक्त है तो चंबल में घड़ियाल पलते हैं। नदियां हमारी सभ्यता संस्कृति एवं आस्था से जुड़ी हैं एवं इसलिए उनका धार्मिक महत्व भी है। ऐसे में नदियों को जोड़ना यानी उनके प्राकृतिक स्वरूप को तोड़ना है जो प्रकृति के विस्द्ध है। बगैर व्यापक अध्ययन के जल्दबाजी में इसे लागू किये जाने पर यह पर्यावरण की सबसे बड़ी त्रासदी साबित हो सकती है।

(डॉ.ओ.पी.जाोशी स्वतंत्र लेखक हैं तथा पर्यावरण के मुददों पर लिखते रहते हैं ।)

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