संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

मारूती मजदूरों को आजीवन कारावास : ‘न्याय’ पर एक टिप्पणी

-पंकज त्यागी, वकील और मानवाधिकार संगठन कार्यकर्ता
न्याय का अर्थ आमतौर पर अन्याय से मुक्ति के रूप में लिया जाता है। लेकिन न्याय करने वाला भी एक पक्ष होता है। महान कथाकार प्रेमचंद ने इस पक्ष को पंच परमेश्वर बताया था। लेकिन आज की राजसत्ता यह पंच परमेश्वर हो, यह जरूरी नहीं है। यदि हम दलित, आदिवासी, मुसलमान और आम लोगों की जेलबंदी और सजा को देखें तो न्याय का अर्थ अन्याय का विशाल तानाबाना लगेगा जिसमें सालों साल फंसकर जिंदगी की बर्बादियां देख रहे हैं। अब न्याय खासतौर से शासकवर्ग और उससे जुड़े लोगों का ही परमेश्वर बन चुका है। और गरीब किसान, मजदूर और मेहनतकश आबादी के लिए तो यह अन्याय का वाहक बन गया है। इस बात को देखना है तो हाल ही में मारूती सुजुकी, मानेसर, गुड़गांव के 148 मजदूरों के संदर्भ में आया जिला सत्र न्यायाधीश, गुड़गांव के आदेश में देखा जा सकता है। इस न्यायधीश ने इन मजदूरों में से 13 को बामशक्कत आजीवन कारावास और चार मजदूरों को पांच वर्ष तक की जेल में रखने की सजा दी है। यह सजा उसी आदेश की निरन्तरता है जिसे माननीय पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने मारूती मजदूरों की जमानत की याचिका को खारिज करते हुए यह लिखा था कि ‘‘यदि इन मजदूरों को जमानत पर रिहा किया जाता है तो यह देश में विदेशी निवेश के माहौल को खराब करेगा।’’
आखिरकार इन मारूती सुजुकी, गुड़गांव के मजदूरों ने क्या किया कि उनसे विदेशी निवेश का माहौल खराब होने लगा और कानून की ऐसी धज्जीया उड़ने लगी कि भारतीय दंड संहिता की धारा 147, 148, 149, 114, 201, 302, 307, 323, 325, 334, 353, 381, 382, 436, 437, 34, 120बी के तहत 148 मजदूरों को गिरफ्तार किया गया और लगभग 65 मजदूरों को इन्हीं मामलों में भगोड़ा घोषित किया गया। इन मजदूरों को कथित न्याय के इंतजार में 3 से साढ़े चार साल तक जेल में गुजारने पड़े और इन्हीं में 13 मजदूरों को जो मूलतः यूनियन के पदाधिकारी हैं, को 18 मार्च 2017 को जिला सत्र न्यायाधीश आजीवन कारावास की सजा दे दी गई।
गुड़गांव का औद्योगिक क्षेत्र दिल्ली-मुंबई औद्योगिक काॅरिडोर के अंतर्गत आता है। गुड़गांव से लेकर मानेसर, धारूहेड़ा और बावल तक विशाल औद्योगिक विस्तार है जिसमें 10 लाख से अधिक मजदूर काम करते हैं। जब से इस क्षेत्र में उद्योग लगना शुरू हुआ तब से मजदूर यहां के फैक्ट्रीयों में यूनियन बनाने की मांग को लेकर लड़ते रहे हैं। यह मौलिक अधिकार जिसे लागू कराने के लिए बकायदा सरकारी प्रावधान ही नहीं, इसके लिए संस्था तक बनाई गई है, को कभी भी लागू नहीं किया गया। इसके साथ ही बड़े पैमाने पर मजदूरों की भर्ती से लेकर काम के माहौल को बनाये रखने के लिए ठेकेदारों और बाउंसर गुंडों की व्यवस्था बनाई गई। मजदूरों से काम का दोहन तो खूब चलता था लेकिन वेतन अत्यंत कम रखा जाता था।
किसी न किसी बहानों से उनके पैसे काट लिये जाते हैं। मारूती सुजुकी के मजदूरों के साथ भी ऐसा ही था। चंद मजदूरों को छोड़कर ज्यादा मजदूर ठेका और प्रशिक्षु के रूप् मेें काम करते थे। प्रबंधन की बात न मानने पर काम से निकाल देना, पैसा काट लेना, तकनीक गति के आधार पर काम ज्यादा बढ़ा देना, गाली गलौज करना आदि आम बात थी। एक तरफ मारूती सुजुकी की कमाई कई गुना बढ़ चुकी थी तो दूसरी ओर मजदूरों की तनख्वाह मंहगाई के एवज में कम होती जा रही थी। मजदूरों को फैक्टरी के भीतर चाय, नाश्ता, भोजन आदि के लिए समय एकदम से सिकुड़ता जा रहा था वहीं दूसरी ओर रोबोट के सामानान्तर मजूदरों को रखकर भयावह काम की स्थिति में ठेला जा रहा था। मजूदर अलग अलग आवाज उठा रहे थे लेकिन बाउंसर गुंडों और प्रंबधन के गालियों से उनसे निपट लिया जा रहा था। ऐसे में मजदूरों के सामने एकताबद्ध होकर आवाज उठाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था। 18 जुलाई 2012 को भी कुछ ऐसा ही हुआ। चाय के अवकाश के समय फैक्टरी सुपरवाइजर ने मजदूरों को दिशा निर्देश सुनने के लिए बुलाया जिसका विरोध मजदूरों के यूनियन पदाधिकारी जिया लाल ने यह कहकर विरोध किया कि चाय तो चैन से पीने दो, उसके बाद मीटींग करेंगे! ठसी बात को लेकर सुपरवाईजर ने जियालाल को जातिसूचक गालियां देनी शुरू कर दी।
यहीं से बात बढ़ी और जियालाल को नौकरी से बर्खास्त कर दिया। इसी घटना ने मजदूरों के गुस्से को सामूहिकता प्रदान की और यहां से मजदूरों का आंदोलन आगे गया। फैक्टरी के भीतर पहले से बैठे बाउंसरों ने आंदोलनकारी मजदूरों पर हमला किया और देखते देखते आगजानी भी हुई। मजदूरों ने आगजानी न करने की बात शुरू से करते रहे हैं और इसके लिए प्रबंधकों को ही दोषी माना। यहां मजदूरों ने यह भी बात याद दिलाई कि इस आगजानी में जिस एक प्रबंधक की धंुए से दम घुटन से मौत हुई थी वह मजदूरों के प्रति एक हद तक संवेदनशील था और वह अन्य प्रबंधकों के लिए आंखों की किरकिरी बना हुआ था। लेकिन प्रशासन, पुलिस और मालिकों ने मजदूरों पर ही आगजानी और हत्या का आरोप लगाकर 213 मजदूरों को आरोपी बनाया। मजदूर इस पूरे मामले की न्यायायिक जांच की मांग करते रहे लेकिन कभी भी उनकी बात नहीं सुनी गई और अंततः न्याय के नाम पर मजदूरों को आजीवन कारावास तक की सजा दी गई। यहां यह बात याद दिलाना जरूरी है कि मजदूरों की ओर प्रबंधकों के खिलाफ आपराधिक याचिका-इस्तगासा दायर किया था लेकिन न्यायालय ने इस याचिका को खारिज कर दिया। जाहिर सी बात है कि न्याय की पक्षधरता मजदूरों के लिए नहीं था। यह मालिकों, प्रबंधकों और निवेश की सरकारी नीतियों के पक्ष में थी।
जब मजदूरों के खिलाफ प्राथिमिकी दर्ज करते समय 55 मजदूर नामजद थे। 19 जुलाई 2012 के दोपहर 12 बजे तक 89 मजदूर गिरफ्तार किये जा चुके थे। ठेकेदारों 26 जुलाई 2012 को अपने बयान में 87 मजदूरों के नाम दिये। बात साफ है कि मजदूरों की गिरफ्तारियां मनमाने तरीके स ेचल रही थीं। यह बात कोर्ट के सामने भी आई और न्यायाधीश ने इसे संज्ञान में लिया है। कोर्ट की कार्यवाही के दौरान सरकारी और नीजी गवाह जो प्रबंधकों और सरकार की ओर से खड़े थे, 117 मजदूरों की पहचान ही नहीं कर पाये। ये मजदूर बिना आरोप बने हुए और पहचान के बिना लगभग 3 साल तक जेल में बंद रहे और अमानवीय जिंदगी की ओर ठेले गये। जबकि माननीय न्यायाधीश ने इस बात का संज्ञान लेने के बाद भी इन मजदूरों को मुवावजा नहीं दिया और न ही पुलिस को दोषी माना।
प्राथिमिकी में जो आरोप दर्ज है कि मजदूरों के हाथ में डंडे और राॅड थे जबकि पुलिस द्वारा जो बरामदगी दिखाई गई है उसमें कार के शाॅकर और बीम दिखाये गये हैं। साफ है कि जो कहा गया वह नहीं था लेकिन उसकी जगह पर कुछ और लाकर रख दिया गया। पूरा मामला षडयंत्र के तहत गढ़ा गया है। लेकिन माननीय न्यायधीश इस मसले को किसी और नजर से देखते हैं। उन्होंने बताया कि प्राथमिक में बरामदगी के सामानों के साथ जो ‘अन्य’ लिखा गया उसमें ही ये कार के शाॅकर और बीम हैं। लेकिन जो सामान लिखाया गया वह तो मिला नहीं बल्कि सिर्फ ‘अन्य’ के हिस्से वाला ही मिला जो बेहद मनमानी वाला है। कह सकते हैं कि मूल गायब है इसलिए धूल  से काम चलाना है। और इस धूल से मजदूरों को सजा देना ही मुख्य मकसद है जिस माननीय न्यायाधीश ने अपने न्याय में किया और मजदूरों को आजीवन कारावास तक दिया।
18 जुलाई 2012 को कथिततौर पर हुए मारपीट की एमएलसी-मेडिकल वैधानिक सर्टिफिकेट में तीन ऐसे लोगों के प्रमाणपत्र पेश हुए जिनको खुद तीनों ने अपनी गवाही में नकार दिया। यानी कि उनकी न तो एमएलसी हुई थी और न ही उन्हें कोई चोट आई थी। यह साफ है कि जो प्रमाण कोर्ट में पेश किये जा रहे थे वे झूठे थे। लेकिन माननीय न्यायाधीश ने इसे संज्ञान में नहीं लिया। जबकि जरूरत थी कि वे मसले को ठीक से छानबीन करते।
बत सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। दर्ज प्राथमिकी में लिखा गया है कि ‘इन्होंने’ जान से मारने की नीयत से आग लगाई जिससे प्रबंधक अवनीश दवे की मृत्यु हो गई। साफ है कि आरोप में यह नहीं लिखा गया कि ‘इन्होंने’ कौन थे। मजदूरों ने अपने द्वारा दायर की गई शिकायत में साफतौर  पर लिखा था कि यह आग बाउंसरों ने लगाई थी। कोर्ट मंे चले मुकदमें में मजदूरों के खिलाफ आई किसी भी गवाहों से यह साबित नहीं हो पाया कि आग किसने लगाया। लेकिन माननीय न्यायाधीश ने मजदूरों द्वारा दायर की गई शिकायत को अपने न्याय का आधार बनाया। उन्होंने यह कहा कि जब मजदूर अपने शिकायत पत्र में यह साबित नहीं कर पाये हैं कि आग बाउंसरों ने लगाई तब इसी बात यह भी सिद्ध हो जाता है कि आग उन मजदूरों ने लगाई जो फैक्टरी के प्रथम तल पर उपस्थित थे।
यह पूरी सोच और न्याय की प्रक्रिया जिसे इस माननीय न्यायाधीश ने अपनाया है वह आपराधिक न्यायशास्त्र यानी क्रिमिनल जुरिप्रुडेन्श के अवधारणा के ही खिलाफ है क्योंकि फौजदारी मुकदमों में अपराध को साबित करने के लिए तथ्यों को आधार बनाया जाता है न कि अनुमान को। यहां माननीय न्यायाधीश अनुमान को आधार बना रहे हैं। जिस तरह आज शासक वर्ग और उसकी पार्टियां संविधान, संसद जैसी अपनी ही व्यवस्था को दर किनार कर फासीवाद तानाशाही की ओर बढ़ रही हैं उसी तरह न्याय के इस कटघरे में भी न्याय की अपनी बनाई गई नीतियों को दरकिनार कर सजा देने की खुली कार्यवाही चल रही है। मजदूरों को न्याय के नाम पर सजा देना ही मानों एकमात्र उद्देश्य बन गया।
मजदूरों पर दर्ज प्राथमिकी में धारा 302 और 307 को शामिल किया गया जिसमें ‘मृत्यु की नियत’ ही अपराध का आधार है। फैक्टरी में उसी प्रबंधक की मृत्यु हुई जिसे मजदूरों का कुछ हद तक पक्षधर माना गया। लेकिन अन्य प्रबंधक न तो अत्यंत गंभीर रूप् से घायल हुआ और न ही उनकी मृत्यु हुई। जिस सुपरवाईजर से झगड़ा हुआ वह इस कदर घायल नहीं हुआ। जबकि प्राथमिकी में दर्ज है कि मजदूरों डंडों, राॅड आदि से से लैस थे और जान से मारने के नियत से हमला कर रहे थे। यदि प्राथमिकी को मान लिया जाय तब मजूदरों के द्वारा हत्या करने की नीयत से प्रबंधक बचे कैसे। और जिस प्रबंधक की मृत्यु हुई वह धुंए से दम घुटने से मरा।
माननीय न्यायालय ने गवाह की उन बातों को माना जिसमें उन्होंने कहा है कि मजदूर नारा लगाते हुए चिल्ला रहे थे कि प्रबंधकों को मार डालो, आज किसी को छोड़ेंगे नहीं, आदि। गवाहों द्वारा बताये गये इन जैसे नारों को माननीय न्यायायधीश ने स्वीकार कर  लिया और इसे ही आधार बनाकर धारा 302 और 307 को सिद्ध मान लिया। जबकि न्याय की प्रक्रिया में नारे की बजाय कार्यवाही-एक्ट को मुख्य माना जाता है। लेकिन न्याय की प्रक्रिया को धज्जी उड़ाने और मजदूरों को मनमाने तरीके से सजा देने के लिए माननीय न्यायाधीश काफी आगे बढ़ गये।
मजदूरों के पक्ष में खड़े वकील ने अपनी दलील में माननीय न्यायाधीश को यह भी याद दिलाया कि यदि गवाहों की गवाही को पूर्णतः सच भी मान लिया जाय (जबकि जिसकी संभावनाएं बहुत कम हैं) तब भी यह मसला एक ऐसे मार पिटाई का बनता है जिसमें भोथरे हथियार का प्रयोग घायल करने के लिए किया जाता है जो धारा 325 के तहत आता है। लेकिन माननीय न्यायाधीश इन दलीलों को सुनने के लिए मानो तैयार नहीं थे। ऐसा लगता है कि उनकी मजदूरों को सजा देने की मंशा काफी पुख्ता थी।
वे इस बात से मुतमईन हो चुके थे कि मजदूरों को सजा दिये बिना देश में विदेशी निवेश का माहौल नहीं बनेगा। देश के प्रधानमंत्री जो अलग अलग पार्टियों से बने, उनके लिए विकास की अवधारणा विकास के माहौल के साथ जुड़ी रही है। पिछले 25 सालों में ‘देश की आंतरिक सुरक्षा’ का मसला इस कदर बढ़ चुका है कि फीस वृद्धि का विरोध हो, जमीन पर अधिकार हो या फैक्टरी में मजदूरों की हड़ताल हो, …देशद्रोह के घेरे में आ चुका है। और, यदि यह न भी हो तो झूठे मुठभेड़ों में मार गिराने को देश की सुरक्षा बना दिया गया है। मारूती सुजुकी, मानेसर, गुड़गांव के मजदूरों की दी गई सजा भी इसी सिलसिले का हिस्सा है।
(यह लेख फिलहाल पत्रिका में छप चुका है।)

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