संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

जोशीमठ त्रासदी : अगली पीढ़ी के वृक्ष

अपने रहन-सहन और बसाहट के लिए समाज पर्यावरण में हस्तक्षेप करता हैकई बार इसके नतीजे दुखद भी होते हैंलेकिन आमतौर पर वही समाज इसे दुरुस्त भी कर लेता है। प्रस्तुत हैकरीब पांच दशक पहले जोशीमठ में ही घटी त्रासदी पर ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ समूह की तत्कालीन साप्ताहिक समाचार-पत्रिका ‘दिनमान’ (27 जून – 3 जुलाई 1976) में छपा अनुपम मिश्र का यह आलेख, संपादित कर पुन: साझा किया जा रहा है;

यतींद्रकुमार डोबरियाल और प्रकाशचंद्र डिमरी अभी हाल ही में एमए की परीक्षा देकर आए हैं। परीक्षा-फल अगले महीने तक निकल आएगा, लेकिन उत्तराखंड के ये दो छात्र अपने अन्य साठ साथियों के साथ फिलहाल एक और परीक्षा में बैठ रहे हैं। जिसका फल अगले महीने नहीं, अगले साल भी नहीं, शायद पंद्रह साल बाद निकल सकेगा। यह परीक्षा कॉलेज की दीवारों से घिरी मेज-कुर्सियों पर नहीं हो रही है।

दुर्गम तीर्थ बदरीनाथ के रास्ते में जो अंतिम पड़ाव जोशीमठ है, उससे कोई 2000 फुट नीचे का एक ढ़लान इन परिक्षार्थियों का परीक्षा-भवन बन गया है। यहां इनके हाथों में कागज और कलम के बदले फावड़ा, कुदाल और सब्बल हैं। अपने इन औजारों की मदद से इन्हें सिर्फ एक ही सवाल का जवाब देना है, क्या इतिहास, परंपरा, सुरक्षा के लिहाज से महत्वपूर्ण शहर जोशीमठ को बचाया जा सकता है? आठवीं सदी में आद्य शंकराचार्य ने दक्षिण से यहां आकर तपस्या की थी। इसी के बाद बदरीनाथ मंदिर बनाया गया था।

हरिद्वार से 296 किलोमीटर दूर 6100 फुट की ऊंचाई पर बसे इस छोटे से सुंदर शहर पर मुसीबत के बादल काफी पहले से मंडराने लगे थे। शहर के ऊपर और नीचे के जंगल कट चुके थे, इसलिए इसके धंसने का खतरा कभी भी सामने आ सकता था। शहर के धंसने की प्रक्रिया अभी शुरू नहीं हुई थी इसलिए लोग इस खतरे को ‘राई’ के अनुपात में तौलते रहे, पर विशेषज्ञों ने इस ‘राई’ में छुपे खतरे के पहाड़ को काफी पहले भांप लिया था।

वर्ष 74 में दिल्ली के वनस्पति-शास्त्री डॉ.वीरेंद्र कुमार एक अध्ययन के सिलसिले में ’फूलों की घाटी’ गए थे। रास्ते में पड़ने वाले जोशीमठ का यह भाग उन्होंने अपनी मोटर की खिड़की से देखा था। वापस दिल्ली लौटकर उन्होंने उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री से जोशीमठ फिसलने के संभावित खतरे पर बात भी की थी। चूंकि खतरा अभी सामने नहीं था, इसलिए बात आई-गई हो गई, पर खतरे की पहली घंटी बजने में कोई देर नहीं लगी। पांच मार्च 1976 को आई एक हल्की-सी बारिश के बाद जोशीमठ के डाकबंगले के नीचे की जमीन खिसक गई और वह अपने साथ डाकबंगले का एक हिस्सा ले गई।

उत्तराखंड के सामाजिक कार्यकर्ता चंडीप्रसाद भट्ट जोशीमठ से 20 किलोमीटर नीचे गरूड़गंगा में एक विवाह में सम्मिलित होने आए थे। यहीं पर उन्होंने डाकबंगले के फिसल जाने की खबर सुनी। ठेठ बरसात के मौसम में उत्तराखंड के पहाड़ों में भूस्खलन की घटनाएं साधारण ही मानी जाती हैं, पर ठंड की हल्की-सी बारिश में डाकबंगले की जमीन फिसल जाने की घटना ने चंडीप्रसाद जी के कान खड़े कर दिये। वे शादी छोड़ सीधे जोशीमठ चले आए।

मौके पर स्थानीय लोगों के साथ सर्वे करके उन्होंने पाया कि न सिर्फ डाकबंगले के नीचे की जमीन खिसकी है, बल्कि उस ढलान में दो बड़ी-बड़ी दरारें भी पड़ गई हैं। इसी सर्वे के दौरान इन लोगों ने देखा कि कोई 150 फुट लंबी और 100 फुट चौड़ी एक चट्टान घाटी के नीचे बहती अलकनंदा नदी के किनारे पर झूल रही है। यह चट्टान 72 की बाढ़ के वक्त इस ढ़लान से लुढ़ककर नीचे आई थी। अलकनंदा का पानी, जिसकी ताकत एक किलोमीटर ऊपर धौलीगंगा के साथ हुए संगम से और भी बढ़ जाती है, लगातार इस झूलती चट्टान से नीचे की जमीन काट रहा है।

ऊपर की फिसलती जमीन और उसके साथ लुढ़कने वाली वजनी चट्टानों को यदि रोका नहीं गया तो नदी में झूलती चट्टान कभी भी नदी में समा सकती है। तब नदी की चौडाई जितनी चौडी इस चट्टान से अलकनंदा का तेज बहाव थम सकता है और वह कुछ ही दिनों में एक झील में बदल सकती है। इस झील का दबाव जोशीमठ की ढलान को और तेजी से काट सकता है और इस प्रक्रिया में जोशीमठ को स्वाहा होना पड़ सकता है।

व्यापक दृष्टि से सोचने वाले इन कार्यकर्त्ताओं के सामने केवल जोशीमठ का सवाल नहीं था। डाकबंगले के लिए तो कोई और मनोरम जगह भी ढूंढी जा सकती है और इसी तरह पूरा कस्बा भी कहीं और बसाया जा सकता है, पर यदि जमीन फिसलने की प्रक्रिया नहीं रोकी गई तो अलकनंदा की बाढ़ को टालना कठिन हो जाएगा और इस बाढ़ का मतलब है जोशीमठ से नीचे के कई गांवों पर आने वाला खतरा।

खतरा सिर पर नहीं खड़ा है, पर उसे रोकने में भी कोई कम वक्त नहीं लगेगा। इसलिए इन कार्यकर्ताओं ने बिना वक्त गंवाए काम करना शुरू कर दिया। जोशीमठ के नीचे की जमीन फिसलने का पहला कारण था, नीचे के घने जंगल का पूरा साफ हो जाना। इसलिए कार्यकर्ताओं ने तय किया कि सबसे पहले तो जंगल लगाने की तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए। इसी बीच स्थानीय और कुछ दिल्ली के अखबारों में डाकबंगले के गिरने और जोशीमठ पर आने वाले संकट की खबरें छप गईं।

कार्यकर्त्ताओं का दल जोशीमठ से रवाना होकर जिला मुख्यालय गोपेश्वर आया। यहां उन्होंने वनविभाग के अधिकारियों से बातचीत की। उप-अरण्यपाल निर्मलकुमार जोशी ने पूरी बात को गंभीरता से समझा। तय हुआ कि जोशीमठ के सामने खड़े हाथी-पहाड़ पर चढ़कर एक बार सारी स्थिति को फिर से समझ लिया जाए।

14 मार्च को निर्मलकुमार जोशी और एक अन्य अधिकारी दर्शनसिंह नेगी ने 6 घंटे की कठिन चढ़ाई के बाद हाथी-पहाड़ से घटना स्थल का मुआयना किया। लौटकर सभी लोगों ने तय किया कि जोशीमठ के नीचे पूरी तरह कट चुके जंगल को दुबारा लगाना ही एकमात्र हल होगा। इतने बड़े जंगल को लगाने की योजना पर तब तक अमल नहीं हो सकता था, जब तक राजधानी लखनऊ से हरी झंडी न मिल जाए, पर जोशीमठ का डाक बंगला खतरे की लाल झंडी हिला ही चुका था।

चंडीप्रसाद भट्ट ने अपनी छोटी-सी संस्था ‘दशौली ग्राम स्वराज्य संघ’ के मंत्री शिशुपाल सिंह, गोपेश्वर महाविद्यालय में छात्रों के बीच रचनात्मक काम कर रही ‘युवा निर्माण समिति’ तथा अल्मोड़ा के छात्र नेता शमशेरसिंह बिष्ट से जोशीमठ के सघन वनीकरण की चर्चा की। ‘युवा निर्माण समिति’ ने फैसला किया कि वह परीक्षा के बाद लगभग पचास छात्रों को पेड़ लगाने के लिए भेजेगी। शमशेरसिंह बिष्ट ने अल्मोड़ा के छात्रों को लाने की जिम्मेदारी ली। एक तरफ स्थानीय स्तर पर जोशीमठ को बचाने की योजना बन रही थी तो उधर नौ अप्रैल को उतरप्रदेश सरकार ने ‘जोशीमठ बचाओ जांच समिति’ का गठन कर दिया।

जोशीमठ के पहाड़ के फिसलने का क्रम वर्षो पहले शुरू हो गया था। एक जमाने में जोशीमठ के ऊपर और नीचे इस ढलान पर बांज का घना जंगल छाया हुआ था। वर्ष 1861 में जोशीमठ की आबादी केवल 453 थी, जो वर्ष 1961 में 2442 हो गई। वर्ष 1952 में इस इलाके में पहली सड़क बनी, 1962 में नीति-घाटी का रास्ता और वर्ष 1965 में बदरीनाथ मार्ग। रास्ते बनते गए और इस छोटे-से सीमांत गांव का दर्जा बढ़ता गया। वर्ष 1961 से 71 के बीच आबादी 30,000 हो गई। गांव की जरूरत भर लकड़ी जंगल को बिना नुकसान पहुचाए निकल ही आती थी, लेकिन आबादी के साथ बढ़ते गए चूल्हों को जलाने में पेड़ घटते चले गए।

जोशीमठ के सामने हाथी-पहाड़ और बगल में काकभुशुंडी पहाड़ पक्की चट्टानों के बने हैं। केवल जोशीमठ का पहाड़ कच्चा है। पेड़ों की जड़ें उसे बांधे हुए थीं, पर ज्यों-ज्यों पेड़ कटते गए जमीन फिसलने का क्रम बढ़ता गया। एक अन्य वजह से यह प्रक्रिया और तेज हुई। नई बसी आबादी के लिए भारी मात्रा में अगल-बगल के स्त्रोतों से पेयजल लाया गया, पर इस की निकासी का कोई इंतजाम नहीं सोचा गया। कस्बे से फेंका गया यह पानी अलग-अगल जगहों से बहता हुआ नीचे अलकनंदा की तरफ दौड़ता है और इस तरह इस कच्चे पहाड़ को लगातार काटता जा रहा है।

जमीन कटने से रोकने के लिए यहां चौड़ी पत्ती के बांज, बुरांस, पांगर, कांचुली, उतीस, बकैन या बेशर्म और खडीक के पेड़ लगा सकते हैं। रीठा का जंगल आबादी के काम भी आएगा। शिविरार्थियों ने बहुत बैचेनी के साथ कहा कि जोशीमठ के पानी की निकासी के लिए एक छोटी योजना तुरंत बनानी पडेगी। अल्मोडा से आए शमशेर सिंह बिष्ट ने नैनीताल में पानी की निकासी के लिए बनाई गई खडिंचनुमा (सीढ़ीदार) पक्की नाली बनाने का सुझाव दिया।

शिविर अपना लक्ष्य पूरा कर खत्म हो जाएगा। जुलाई के दो हफ्ते तक शिविरार्थी आराम करेंगे। तब तक जोशीमठ में बरसात का पहला झला आ जाएगा। उसके बाद ये सब एक बार फिर से इकट्ठा होंगे – तैयार किए गड्ढ़ों में पौधे रोपने के लिए। पौधे की किस्म वनविभाग तय करेगा और रोपे भी वही देगा। इस बीच इन छात्रों की परीक्षा का फल निकल आएगा और वे युवावस्था की अगली कक्षा में प्रवेश करेंगे, लेकिन जोशीमठ को बचाने के लिए दी गई इस ताजी परीक्षा का नतीजा जब निकलेगा तब वे वयस्क हो चुके होंगे। शायद तब उनके परिश्रम का फल देखने के लिए उनकी संतानें भी साथ खड़ी होंगी।

साभार : सप्रेस

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