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किसान आंदोलन : सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित की गई कमिटी के चारों मेंबर्स का सच

-श्याम मीरा सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने किसान कानूनों पर कुछ दिन के लिए स्टे लगाते हुए एक कमिटी का गठन किया है, जबकि प्रदर्शनकारी किसान यूनियन लाख मना करते रहीं कि उन्हें ऐसी किसी भी कमिटी से बात नहीं करनी है, उनकी स्पष्ट मांग है कृषि कानूनों को वापस लिया जाए. आपको लग सकता है कि किसान कितने ढीठ हैं कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई किसी कमिटी की भी सुनना नहीं चाहते, पर उससे पहले कमिटी में नामित किए गए चारों सदस्यों का कृषि कानूनों पर मत पढ़ लीजिए. ये भी पढ़ लीजिए कि उन्होंने किसान आंदोलन पर पूर्व में क्या-क्या कहा है, वे एमएसपी पर क्या सोचते हैं. इस कमिटी में शामिल किए चारों लोगों का नाम है- भूपिंदर सिंह मान, प्रमोद कुमार जोशी, अशोक गुलाटी औरअनिल घनवंत. अब इन चारों का बारी-बारी से इतिहास पढ़ लीजिए.

1. अनिल घनवट – शेतकरी संगठन (किसानों का ही एक संगठन) के अध्यक्ष हैं, इंडियन एक्सप्रेस अखबार में इनके लिए एक आर्टिकल आया, जिसमें अनिल घनवट न केवल खुले तौर पर कृषि कानूनों का समर्थन करते हैं, बल्कि किसान आन्दोलन का भी विरोध करते हैं, वे किसान आन्दोलन को बिचोलियों और दलालों और आड़तियों द्वारा फंडेड बताते हैं. इतना ही नहीं अनिल घनवट के शेतकरी संगठन ने कृषि कानूनों के समर्थन में और सरकार के समर्थन में 2 अक्टूबर के दिन सड़कों पर रैलियां निकालीं थीं और कृषि कानूनों का स्वागत किया था. इस आर्टिकल की लिंक आपको कमेंट बॉक्स में मिल जाएगी.

2. इस कमिटी के दूसरे सदस्य हैं भूपिंदर सिंह मान, भूपिंदर सिंह मान अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति (AIKCC) के अध्यक्ष हैं. भूपिंदर सिंह उन किसान संगठनों का नेतृत्व करते हैं जो सरकार का समर्थन करते हैं जिन्होंने उस वक्त कृषि मंत्री को जाकरअपना समर्थन पत्र सौंपा जबकि पंजाब, हरियाणा, यूपी के किसान दिल्ली बॉर्डर पर धरना दे रहे थे. भूपिंदर सिंह न केवल कृषि कानूनों का समर्थन करते हैं, बल्कि 14 दिसंबर के दिन वे कृषि भवन में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह से जाकर मिलते हैं और उन्हें कृषि कानूनों को लागू करने के लिए एक पत्र भी सौंपते हैं. इसे लेकर द हिन्दू में बाकायदा एक आर्टिकल है इसकी लिंक भी आपको कमेन्ट बॉक्स में मिल जाएगी.

3. तीसरे हैं प्रमोद जोशी, प्रमोद जोशी ने हरिभूमि नाम के अखबार में 13 दिसंबर के दिन ‘आखिर कैसे टूटे गतिरोध” नाम से अपना एक ओपिनियन छापा, जिसमें वे कृषि कानूनों का स्वागत करते हैं और किसानों को कृषि कानूनों के फायदे समझने की सलाह देते हैं. प्रमोद जोशी ने ”फाइनेंस एक्सप्रेस” में एक आर्टिकल लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था कि – किसानों की कृषि कानूनों को वापस लेने वाली मांग विचित्र है’, 15 दिसंबर के दिन लिखे इस आर्टिकल में प्रमोद जोशी किसान आंदोलन के खत्म न होने का कारण किसानों को ही मानते हैं न कि सरकार को. इस आर्टिकल में प्रमोद जोशी कहते हैं कि ”ये दुखद है कि किसान आंदोलन अभी तक खत्म नहीं हुआ, जबकि केंद्र सरकार का रुख इस मसले पर सकारात्मक है और किसानों की जेन्युइन मांगें मानने के लिए तैयार है.” गांव कनेक्शन नाम समाचार पोर्टल पर पत्रकार मिथलेश कुमार धर द्वारा लिखे एक आर्टिकल में भी प्रमोद जोशी ने ‘एंटी-एमएसपी’ व्यू दिया है जोकि किसानों की सबसे प्रमुख मांग है. इन तीनों आर्टिकल्स की लिंक नीचे कमेंट बॉक्स में मिल जाएगी

4. इस कमेटी के चौथे सदस्य हैं कृषि वैज्ञानिक अशोक गुलाटी. जिन्होंने कुछ दिन पहले इंडियन एक्सप्रेस में कृषि बिल के समर्थन में एक बड़ा सा आर्टिकल लिखा था. उसमें उन्होंने कृषि बिल का समर्थन करते हुए लिखा था कि मैं सरकार के इस कदम का स्वागत करता हूं. अशोक गुलाटी ने 7 दिसंबर को इन्डियन एक्सप्रेस पर एक अर्तिकल लिखा जिसमें वे एमएसपी को एक ट्रेप बताते हैं और उससे बाहर निकलने की बात करते हैं, 12 अक्टूबर को लिखे अपने आर्टिकल में गुलाटी कृषि कानूनों को एतिहासिक निर्णय बताते हुए सरकार का समर्थन करते हैं.

अब सवाल ये है कि किसान आन्दोलन पर आरोप लगाने वाले, किसान आंदोलन की मांगों को विचित्र बताने वाले, एंटी एमएसपी व्यू देने वाले, कृषि कानूनों के समर्थन में रैलियां निकालने वाले, कृषि कानूनों पर सरकार के समर्थन में ज्ञापन देने वालों को न्यूट्रल कैसे मान लिया जाए? कैसे मान लिया जाए कि वे किसानों के प्रति इतना पूर्वाग्रह रखने के बाद भी किसानों के प्रति ईमानदार रहेंगे. ये कितने गजब की बात है कि कमिटी में चार मेम्बर चुने गए हैं, चार के चारों कृषि आंदोलन का विरोध करने वाले और सरकार का समर्थन करने वाले रहे हैं. क्या न्यायपालिका को इतना भी पता न था कि वो जिन लोगों को कमिटी के लिए चुन रही है, वे सबके सब कृषि कानूनों के समर्थक रहे हैं.

एक दिन पहले ही सरकार ने कोर्ट में कहा कि वह कृषि कानूनों को वापस नहीं लेगी, सरकार के रुख को देखते हुए किसान यूनियनों ने भी साफ कह दिया कि जब सरकार का रुख स्पष्ट है तो वो ऐसी किसी भी कमिटी से कोई बात नहीं करेंगी. फिर सुप्रीम कोर्ट ने किसान आन्दोलन को बायपास करने के लिए कमिटी का गठन क्यों किया? क्या ये किसान आंदोलन को कमजोर करने के लिए नहीं है? कमिटी का गठन किया जाना था तो आन्दोलन की शुरुआत में क्यों नहीं किया गया. 45 दिन बाद जाकर न्यायपालिका अचानक सोकर उठती है और अंग्रेजी में कहती है ‘We are the Supreme Court of India and we will do our job’. ये कितनी बच्चों जैसी बात है कि सुप्रीम कोर्ट को बताना पड़ रहा है ताकि लोग उसपर विश्वास कर लें जबकि यही सुप्रीम कोर्ट 17 दिसंबर के दिन कहती है कि ‘Farmers Have Right To Protest, But Can’t Block Roads’ उस समय यही सुप्रीम कोर्ट किसी पार्टी के आईटी सेल की तरह रोड जाम करने का जिम्मेदार किसानों को बना रहा थी जबकि रोड सरकार ने जाम की हैं किसानों नहीं. बल्कि किसान तो सड़क ओपन करके दिल्ली में प्रवेश करना चाहते हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट उल्टा किसानों से सवाल करती है सरकार से नहीं. तब सरकार को फटकारते हुए सुप्रीम कोर्ट नहीं कहती ‘We are the Supreme Court of India and we will do our job’.

कल जब सुप्रीम कोर्ट का अचानक से बदला बदला सा रुख देखा, मैं तभी से शक कर रहा था कि सुप्रीम कोर्ट अचानक से कैसे बदल गई. बहुत से लोग सुप्रीम कोर्ट के इस साहस को कि उसने सरकार को फटकर लगाई है बड़ी ही प्रशंसा कर रहे थे, पर मुझे तब भी शक था. मुझे शक था कि जरूर सुप्रीम कोर्ट के भेष में ये पूरा खेल केंद्र सरकार के द्वारा किया जा रहा है. जिसे पता है कि उसकी विश्वसनीयता इस मामले पर एक्सपोज हो चुकी है. अब चूंकि ये तय है कि किसान पीछे हटने वाले नहीं है इसलिए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को आगे कर दिया है और उसे क्रांतिकारियों के कपड़े पहना दिए हैं जो अब चे ग्वेरा की लैंग्वेज में कह रही है ‘हम सुप्रीम कोर्ट हैं”
आपने शायद नहीं पढ़ा होगा लेकिन आपको बता दूँ कि कल जो सुप्रीम कोर्ट कह रही थी कि हम किसानों की रक्षा करेंगे उसी सुप्रीम कोर्ट ने जब सुना कि किसान यूनियनों ने स्पष्ट कह दिया है कि सुप्रीम कोर्ट को रद्द करना है तो कानून को रद्द करे लेकिन हम कमिटी के पक्ष में नहीं हैं न ही किसी भी कमिटी में शामिल होंगे तो आज की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘कमिटी’ के विरोध में वे किसान यूनियनों का एक भी तर्क नहीं सुनेंगे.

ये कैसी गजब बात है किसानों की रक्षा करने का दावा करने वाली सुप्रीम कोर्ट बिना किसान यूनियनों की इच्छा के उनपर जबरदस्ती कमिटी थोप रही है. वह भी ऐसी कमिटी जिसके चारों के चारों सदस्य पहले से कृषि कानूनों पर सरकार का समर्थन कर रहे हैं.
आपको ये गड़बड़ नहीं लगती?

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