संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

मोदी सरकार के कोयले का व्यवसायिक खनन सम्बन्धी फ़ैसले के खिलाफ़ छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन का आह्वान

कोयला कॉर्पोरेट मुनाफे की एक वस्तु नहीं, बहुमूल्य राष्ट्रीय सम्पदा है जिससे सैंकड़ों लोगों का जीवन और आने वाली पीढ़ियों का भविष्य जुड़ा है

कल 18 जून 2020 को प्रधान मंत्री मोदी ने व्यावसायिक उपयोग के लिए खदानों की प्रक्रिया शुरुआत की | अपने भाषण में उन्होने कहा कि कोयला संसाधनों का आर्थिक लाभ के लिए दोहन, जिसमें निर्यात में भारत की अहम भूमिका बनाना, इस प्रक्रिया के प्रमुख उद्देश्य हैं| बाद में जब नीलाम होने वाली खदानों कि सूची आई तो पता चला कि उसमें कई ब्लॉक सघन वन, जैव विविधता से परिपूर्ण, पर्यावरणीय दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में हैं, जिनको पूर्व में No-Go और वर्तमान में Inviolate माना गया है | ऐसे भी कई क्षेत्र हैं जहाँ ग्राम सभाएं पहले से ही पेसा, वनाधिकार तथा पाँचवी अनुसूची के प्रदत्त अधिकारों का उपयोग कर, विरोध कर रहे हैं और इस विरोध को नीलामी के पहले से ही प्रधान मंत्री सहित सभी संबन्धित मंत्रियों को अवगत कराया जा चुका है |

स्पष्ट है कि सरकार ने बहुमूल्य कोयले संसाधन को मात्र एक बाजारी वस्तु मात्र बना दिया है – जिसमें देश की कोयला जरूरतों, जन-हित, उससे जुड़े पर्यावरणीय तथा सामाजिक नन्याय, तथा ग्राम सभा के संवैधानिक अधिकारों की कोई जगह नहीं है | यह पूर्णतया सूप्रीम कोर्ट के 2014 में कोलगेट मामले में दिये गए निर्णय कि मूल मंशा के विपरीत है जहाँ स्पष्ट कहा गया था की यह “राष्ट्रीय संपदा” है जिसका उपयोग जन-हित में देश कि जरूरतों के लिए ही किया जाना चाहिए |

नई नीलामी क्या कोयला निर्यात के लिए है? या फिर प्रदूषण और विस्थापन का आयात है?

सरकार के विभिन्न दस्तावेज़, कोल इंडिया लिमिटेड vision-2030, CEA के प्लैन, इत्यादि पहले ही कह चुके हैं कि देश कि कोयला जरूरतों के लिए और किसी खदान के आवंटन कि ज़रूरत नहीं है | कोल इंडिया लिमिटेड के अपने योजना, और वर्तमान में आवंटित खदानें, भारत के अगले 10 वर्षों कि जरूरतों को पूरा करने में सक्षम है | इसी कारण से पूर्व में की गई नीलामी की कोशिशें विफल रही जिसमें अधिकांश खदानों के लिए न्यूनतम बोलीदार भी नहीं मिल सके | जिन खदानों की नीलामी सफल रही, उनमें से भी कई मालिकों ने अपने हाथ खड़े कर दिये | ऐसे में महत्वपूर्ण सवाल है कि जब पहले की नीलामी विफल रही, पुरानी खदाने चालू नहीं हो पा रही हैं, नए कोयले उत्पादन की ज़रूरत नहीं, तो फिर ये नीलामी क्यूँ | इसका जवाब मोदी जी के भाषण में ही मिलता है जिसमें वो चाहते हैं कि भारत कोयले का प्रमुख निर्यातक बने | परंतु अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर भी कोयले कि मांग बढ्ने के कुछ आसार नहीं लग रहे हैं | क्लाइमेट चेंज से संबन्धित Paris समझौते के अनुसार, और कोयले उत्खनन के गंभीर दुष्प्रभाव के मद्देनज़र, कई देश कोयले उत्खनन की समाप्ति की ओर बढ़ रहे हैं | ऐसे में भारत का कोयले निर्यात पे फोकस से स्पष्ट है कि यह केवल प्रदूषण और विस्थापन का आयात है |

नीलामी से घने वन क्षेत्रों का विनाश और गंभीर पर्यावरणीय संकट

स्पष्ट है कि नई नीति और नीलामी प्रक्रिया में भारत-निर्माण तथा जन-हित जैसे उद्देश्य पूरी तरह दरकिनार किए जा चुके हैं | नीलामी में शामिल किए गए खदान भारत के सबसे घने जंगलों और पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में स्थित हैं | इनमें से कई खदानें No-Go / Inviolate क्षेत्रों में हैं जिनको सरकारी दस्तावेज़ों में इतना महत्वपूर्ण माना गया है कि इंका हहर स्थिति में संरक्षण किए जाना अत्यंत आवश्यक है (ऐसे क्षेत्र भारत के कुल कोयला क्षेत्रों के 10 प्रतिशत से भी कम हैं) | साथ ही कई खदानें हाथी-पर्यावास क्षेत्रों में स्थित हैं, जिनके विनाश से मानव-हाथी संघर्ष और गहराएगा | पिछले 10 दिनों में 6 हाथियों कि मौत इसी तरफ इशारा करती हैं | ऐसे में नई खदानों से गंभीर पर्यावरणीय संकट उत्पन्न होने कि संभावना गहराएगी और यह नीलामी पेरिस समझौते के तहत भारत कि प्रतिबद्धता के भी खिलाफ है |

ग्राम सभाओं का निरादर और आदिवासियों के विस्थापन का संकट 

नीलामी कि सूची में कई खदानें खदानें आदिवासी बाहुल पाँचवी अनुसूची क्षेत्रों में हैं जहां पेसा कानून 1996 तथा वनाधिकार कानून 2006 के तहत जन-समुदाय को विशेष अधिकार प्राप्त हैं, जिसके तहत खनन से पूर्व ग्राम सभाओं कि सहमति आवश्यक है | इस संबंध में पिछले ही दिनों हसदेव अरण्य कि ग्राम सभाओं कि ओर से जनप्रतिनिधि पहले ही अपना विरोध व्यक्त कर प्रधान मंत्री को नीलामी ना करने का आग्रह कर चुके हैं | परंतु ग्राम सभाओं का निरादर कर हसदेव अरण्य में भी 3 खदानों कि नीलामी कि जा रही है | वो भी कमर्शियल माइनिंग मतलब चंद कंपनियों के आर्थिक लाभ के लिए |

मोदी सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि उसकी संवैधानिक प्रावधानों में कोई आस्था नहीं और पर्यावरण संरक्षण से कोई लेना-देना नहीं है | चिंता है तो सिर्फ चुनिन्दा कंपनियों के मुनाफे की |

 

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