संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

आदिवासियों की बदहाली के संवैधानिक गुनहगार

संविधान में आदिवासियों को मिले विशेष दर्जे को आमतौर पर अनदेखा किया जाता रहा है। मसलन – राज्यपालों को अनुसूचित क्षेत्रों में विशेषाधिकार दिए गए हैं, ताकि वे आदिवासियों की विशिष्ट जीवन पद्धतियों, खान-पान और भाषा आदि को देखते हुए उनके हित में निर्णय ले सकें, लेकिन विडंबना है कि अधिकांश राज्यपाल संविधान के इस प्रावधान से अनजान, अछूते ही रहे हैं। केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने पिछले महीने एक पत्र लिखकर राज्यपालों को इसकी याद दिलाई है। क्या यह हस्तक्षेप आदिवासियों की मौजूदा दशा सुधारने में कारगर हो सकेगा? प्रस्तुत है, इसी की पड़ताल करता यह लेख;

ब्रिटिश हुकूमत में जब जल, जंगल और जमीन की लूट के लिए कानूनी ढांचा तैयार किया था जो उसके विरूद्ध भारत के आदिवासियों ने जोरदार संघर्ष किया और लाखों लोग शहीद हुए। इस संघर्ष के दबाव में ब्रिटिश शासकों ने आदिवासी इलाकों को ‘सेक्लूडेड’ (पृथक) और ‘आंशिक रूप से पृथक’ क्षेत्र घोषित कर वहां के निवासियों को गुलामी के कानूनों से मुक्त कर दिया था। ‘भारत सरकार कानून – 1935’ की ‘धारा – 92’ में तदाशय के स्पष्ट प्रावधान वर्णित हैं जिन्हें भारतीय संविधान की ‘पांचवीं’ और ‘छठी’ अनुसूची में वर्गीकृत किया गया है।

भारत के संविधान में राज्य की नीति के निदेशक तत्व लिपिबद्ध हैं जो शासन के मूलभूत तत्व भी कहलाते हैं। ‘अनुच्छेद- 39’ में कहा गया है कि राज्य अपनी नीति का इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से पुरूष और स्त्री, सभी नागरिकों को समान रूप से आजीवका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो। राज्य को यह सुनिश्चित करने का भी निर्देश है कि समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक हित को सर्वोच्च प्राथमिकता मिले। संविधान के ‘अनुच्छेद – 244’ में जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन बाबत विशेष प्रावधानों की व्यवस्था है। मध्यप्रदेश सहित भारत के 10 राज्यों में जनजातीय बहुल आबादी वाले क्षेत्रों को ‘पांचवी अनुसूची’ में रखा गया है।

दुर्भाग्य से संविधान की यह स्पष्टता होते हुए भी सभी आदिवासी क्षेत्रों के लिए संविधान में विस्तृत व्यवस्था नहीं की गई, जिसका मुख्य कारण था, उनकी स्थितियों की विभिन्नता। प्रत्येक समाज की विशिष्ट स्थिति को देखते हुए उनके अनुरूप न्यायसंगत व्यवस्था स्थापित करने का दायित्व और अधिकार ‘पांचवीं अनुसूची’ में राज्यपालों को सौंपा गया है, परन्तु राज्यपालों ने ना तो अपना दायित्व निभाया और ना ही संविधान की मूल चेतना को नहीं समझा। यही कारण है कि ‘छठी अनुसूची’ के आदिवासी इलाकों को छोड़कर देश के सभी आदिवासी इलाकों पर ऐसे कानून लाद दिए गए जो उनकी परम्परा की अनदेखी ही नहीं करते हैं, बल्कि उसके विपरीत भी हैं।

सबसे बङी विसंगति तो यह है कि आदिवासियों को समाज के रूप में अपनी व्यवस्था कायम रखने और अपनी इच्छा के मुताबिक उसको ढालने के बुनियादी अधिकार का वजूद तक नहीं है। भूमि सहित प्राकृतिक संसाधनों पर समाज के अधिकार, अवलम्बन और रिश्ते, जो आदिवासी समाज की व्यवस्था का आधार होते हैं, किसी कानून में शामिल नहीं किए गए। जब इस कानूनी व्यवस्था के अन्तर्गत कार्यवाई होती है तो कानून का पालन तो होता है, परन्तु संविधान की मूल भावना की अनदेखी होती है और आदिवासियों के बुनियादी मानवीय अधिकारों का उल्लंघन होता है। इस विसंगति का मूल है राज्य की अपने दायित्व की अनदेखी, जिसकी कीमत उस आदिवासी समाज को चुकानी पङती है जिसकी रक्षा का भार और गंभीर दायित्व राज्य पर है। क्या इससे भी बङी कोई विडम्बना हो सकती है?

भारत की ‘अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग’ के पूर्व आयुक्त, विख्यात चिंतक स्वर्गीय डाक्टर ब्रह्मदेव शर्मा कहा करते थे कि “आदिवासियों के साथ सबसे बङी त्रासदी यह है कि उन्होंने अपने त्याग और बलिदान से ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति तो पा ली, परन्तु आजाद भारत ने उन पर उपनिवेशकालीन कानून थोपकर उन्हें गुलाम बना दिया।” संविधान के ‘खंड – 5,’ ‘अनुच्छेद- 53’ में स्पष्ट किया गया है कि संघ की कार्यपालिका की शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी और वह इसका प्रयोग संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा करेगा।

‘अनुच्छेद-60’ में राष्ट्रपति की शपथ दर्ज है, जिसमें स्पष्ट लिखा है कि राष्ट्रपति का कर्तव्य संविधान और विधि का परिक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करना है, परन्तु इस सर्वोच्च स्तर पर भी आदिवासियों का संज्ञान नहीं लिया जाना आश्चर्यजनक है। ‘योजना आयोग’ के अनुसार आजादी के बाद विभिन्न विकास परियोजनाओं से लगभग 6 करोङ लोग विस्थापित हो चुके हैं, जिसमें 40 प्रतिशत आदिवासी एवं अन्य परम्परागत वन-निवासी हैं। इसका मतलब है, आदिवासी क्षेत्रों में विकास के नाम पर विस्थापन, बेरोजगारी, पलायन हो रहा है तथा उन्हें उनके सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश से बाहर जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है।

उपरोक्त संवैधानिक स्थिति पर ‘राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग’ की 14 वीं रिपोर्ट (2018- 19) में दिये गए सुझाव और अवलोकन पर कार्यवाही करते हुए केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा 29 अप्रेल 2022 को सभी राज्यपालों के सभी प्रमुख सचिवों व सचिवों को पत्र लिखकर दिशा-निर्देश जारी किया गया है। पत्र में लिखा गया है कि राज्यपाल कार्यालय को ‘पांचवीं अनुसूचि’ के क्षेत्रों में लागू होने वाले कानून, विनियमन, अधिसूचना को सावधानीपूर्वक परिक्षण करना चाहिए। उन्हें यह अधिकार संविधान से मिला हुआ है, परन्तु वाकई में राज्यपाल इस शक्ति का इस्तेमाल करते हैं? पत्र में उल्लेख किया गया है कि राज्यपालों को यह अधिकार दिया गया है कि आदिवासियों के कल्याण के लिए किये गए कार्य सबंधी रिपोर्ट प्रत्येक वर्ष राष्ट्रपति को दें। ‘पांचवीं अनुसूचि’ वाले राज्यों के राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को भेजी गई रिपोर्ट आवश्यक रूप से जनता की पहुंच में होना चाहिए। राज्यपालों के सचिवों से कहा गया है कि ‘राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग’ की 14 वीं रिपोर्ट के सुझाव को संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में अपनाएँ।

अनुसूचित क्षेत्रों में शांति और सुशासन के लिए राज्यपाल को ‘पांचवीं अनुसूचि’ के पैरा-(2) के तहत विनियम बनाने का व्यापक अधिकार दिया गया है और राज्य सरकार के क्षेत्राधिकार को सीमित किया गया है, परन्तु राज्यपाल को व्यापक विधायी और प्रशासनिक अधिकारों से सक्षम किया है। संविधान के ‘अनुच्छेद – 244’ में व्यवस्था है कि किसी भी कानून को ‘पांचवीं अनुसूचि’ वाले क्षेत्रों में लागू करने के पूर्व राज्यपाल उसे ‘जनजातीय सलाहकार परिषद’ को भेजकर अनुसूचित जनजातियों पर उसके दुष्प्रभाव का आकलन करवाएंगे और तदनुसार कानून में फेरबदल के बाद उसे लागू किया जाएगा। अब तक इस संवैधानिक व्यवस्था की अनदेखी की जाती रही है। ऐसे में केन्द्रीय गृह मंत्रालय की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए।

साभार : सप्रेस

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